हमारे गरीब सारथी


Sarathi 1समूह में हमारे सारथीगण – १

अनेक कारें खड़ी होती हैं हमारे दफ्तर के प्रांगण में। अधिकांश कॉण्ट्रेक्ट पर ली गयी होती हैं। जो व्यक्ति अपना वाहन काण्ट्रेक्ट पर देता है, वह एक ड्राइवर रखता है। यह स्किल्ड वर्कर होता है। इलाहाबाद की सड़कों पर कार चलाना सरल काम नहीं है। उसकी १२ घण्टे की नौकरी होती है। सप्ताह में एक दिन छुट्टी पाता है। इसके बदले में वह पाता है ३००० रुपये महीना। शादियों के मौसम में अतिरिक्त काम कर वह कुछ कमा लेता होगा। पर कुल मिला कर जिंदगी कठोर है।

इन्ही से प्रभावित हो कर मैने पहले पोस्ट लिखी थी – बम्बई जाओ भाई, गुजरात जाओ। वहां खर्चा खुराकी काट वह ५००० रुपये बना सकता है। पर कुछ जाते हैं; कुछ यहीं रहते हैं।

Sarathi 2समूह में हमारे सारथीगण – २

अपने ड्राइवर को यदा-कदा मैं टिप देने का रिचुअल निभा लेता हूं; पर वह केवल मन को संतोष देना है। मेरे पास समस्या का समाधान नहीं है। एक स्किल्ड आदमी डेली वेजेज जितना पा रहा है – या उससे थोड़ा ही अधिक। मैं केवल यह दबाव बनाये रखता हूं कि उसका एम्प्लॉयर उसे समय पर पेमेण्ट करे। इस दबाव के लिये भी ड्राइवर आभार मानता है। उससे कम काम लेने का यत्न करता हूं। पर वह सब ठीक स्तर की तनख्वाह के सामने कॉस्मैटिक है।

मैं विचार करता हूं, अगर सरकारी नौकरी से निवृत्त होकर मुझे अपना ड्राइवर रखना होगा तो मैं क्या ज्यादा सेलरी दूंगा। मन से कोई स्पष्ट उत्तर नहीं निकलता। और तब अपनी सोच की हिपोक्रेसी नजर आती है। यह हिपोक्रेसी समाप्त करनी है। हम दरियादिल और खून चूसक एक साथ नहीं हो सकते। यह द्वन्दात्मक दशा कभी-कभी वैराज्ञ लेने की ओर प्रवृत्त करती है। पर वहां भी चैन कहां है? दिनकर जी कहते हैं – “धर्मराज, सन्यास खोजना कायरता है मन की। है सच्चा मनुजत्व ग्रन्थियां सुलझाना जीवन की।” देखता हूं अन्तत: कौन जीता है – हिपोक्रेसी, मनुजत्व या धर्मराजत्व!

पर तब तक इन गरीब सारथियों को जीवन से लटपटाते देखना व्यथित करता रहता है।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

20 thoughts on “हमारे गरीब सारथी

  1. कुछ सोचने पर विवश करती है पोस्ट, खास तौर पर हिप्पोक्रेसी और द्वंदात्मक सोच की ओर आपका ध्यानाकर्षण. उम्मीद है, बल्कि काफ़ी हद तक विश्वास है कि हम इससे उबर पायेंगे.

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  2. क्या कहूँ?मैं तो ख़ुद आपके जैसी ही परिस्थिति का शिकार हूँ.और अक्सर इसी दुविधा में रहता हूँ कि”देखता हूं अन्तत: कौन जीता है – हिपोक्रेसी, मनुजत्व या धर्मराजत्व! “लेकिन इस अंत तक पंहुचने मे कंही देर ना हो जाय.

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  3. आपसे सहमत हूँ और यह सच है भीषण मंहगाई बेरोजगारी के चलते पढे लिखे भी नौकरी करने मजबूर हो जाते है और कम वेजेज मे भी अपना काम चला रहे है . धन्यवाद

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  4. आपने ऐसा सोचा ,अच्छा लगा ….भारत मे आम व्यक्तियों कि औसत आमदनियो मे इतना अन्तर है कई बार मैंने रिक्शा वालो को अपने पूरे दिन कि कमाई पीते देखा है……तब उसकी पत्नी ओर बच्चे का ख्याल करके मन व्यथित हो जाता है…

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  5. बड़ा मुद्दा है। जिसे निजी क्षेत्र की कुशलता और लागत कटौती कहा जाता है, वह कहीं न कहीं कुछ लोगों के शोषण पर आधारित मामला है। पर बाजार की ताकतें यह सुनिश्चित कर देती हैं कि 3000 के बजाय 2500 में भी कोई सारथी काम करने को तैयार हो जाये। बाजार की पूरा ढांचा इंसानी लाचारी, कमीनगी, स्वार्थ और एक हद शोषण पर टिका है। पर दूसरा एक्स्ट्रीम भी है। जिन सारथियों की नौकरी पक्की है, उनका खेल दूसरा है। एक बार आपके दिल्ली स्थित रेल भवन से एक बुलावा आया था, रेल भवन के अफसरों ने लेने के लिए ड्राइवर भेजा। मैंने बातों बातों में ड्राइवर से पूछा कि क्या रेलवे की पक्की नौकरी है या कांट्रेक्ट वाली कार के ड्राइवर हो। ड्राइवर हंसने लगा और बोला जी पक्की नौकरी वाले ड्राइवर तो शाम पांच के बाद कहीं किसी को लेने छोड़ने नहीं जाते। सो अधिकांश काम हम जैसे कांट्रेक्ट वालों के हिस्से आ रहा है। इंसान एक अतिवाद से दूसरे अतिवाद पर जाता है, बीच का रास्ता शायद नहीं होता। समाजवाद के अतिवाद से बाजारवाद के अतिवाद के बीच। यह वांछनीय तो नहीं है, पर सचाई यही है।

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  6. वैसे ३००० कम है, बंगलोर आदि में ४-५००० तनख्वाह है ड्राइवरों की। पर मूल बात पैसे की नहीं है, इंसान को इंसान न समझने की है।

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  7. यह एक अजीब विडम्बना है.. कई बार केवल अफ़सोस भर होता है. मेरे एक दोस्त का रांची में साईबर कैफे हैं. वह लड़के ५०० रुपए में दिन भर काम करते हैं. मैंने उससे पूछा की और कैफे वाले कितना देते हैं उसने कहा ५०० ही. मैंने कहा अगर तुम्हे कोई दिक्कत न हो तो इसे ६०० दिया करो. दोस्त ने अगले महीने से ६०० देना शुरू किया. दूसरे महीने से अन्य कैफे वालो ने इसको कहा तुम ज्यादा क्यों देते हो, ५०० ही दिया करो, रेट फिक्स है और भी तमाम बातें… इन सबको अनसुना करते हुए उसने साफ साफ कह दिया ६०० रुपए भी कम हैं. मैं मानता हू की आप लोग इनके पैसे और बढ़ने चाहिए लेकिन आप लोग …..क्या और कितना किया जा सकता है….

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  8. बुकमार्क में शीर्षक देखते ही विचार आया कि कहीं शास्त्री जी के सारथी पर तो कोई टिप्पणी नही है पर यह तो अर्जुन -क्रिश की परम्परा वाले सारथी का मामला निकला केन्द्रीय सरकारों और उसमे भी रेल विभाग से जुदा अनुभव भी हैं -प्रादेशिक सरकारों में प्रशासनिक अधिकारियों के दीगर विभागों का बहुत खस्ता हाल है ,ड्राइवर है तो गाडी नही है ,गाडी है तो ड्राइवर नही है -मेरे यहाँ पिछले वर्ष से ड्राइवर नही है -डेली बसिस पर ड्राइवर की मनाही है -एक बनारसी गंगापार के छोरे से गाडी चलवा रहा हूँ -ऑफिस से पेमेंट नही कर सकता ,पर उसे हर महीने जस तस कर दो हजार रुपये थमाता हूँ -सोचता हूँ चलो इतना तो मिल जा रहा है उसे -काफी ख़राब स्थिति है ज्ञान जी .

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  9. ज्ञान जी। आप की संवेदनशीलता स्तुत्य है। हम अधिक नहीं दे सकते यह हमारी मजबूरी है। लेकिन जो दे सकते हैं वे उस से कम देते हैं, और गाहे बगाहै मुफ्त का रोब झाड़ लेते हैं। इस का कारण है भयंकर बेरोजगारी। उस ओर किसी का ध्यान नहीं। जब कि अनेक समस्याओं के मूल में यही है। यह जाने कब कम हो पाएगी?

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  10. व्यथित होना स्वभाविक है. मैं इस बार जब भारत में था तो देखा, मेरे दोस्तों के ड्राईवरों की तन्ख्वाह १७०० से २००० के बीच है और उन्हें सुबह ८ बजे से रात जब तक साहब घर न आ जायें, तब तक काम करना होता है. उसके काम में न सिर्फ गाड़ी चलाना बल्कि घर की सब्जी और छुटपुट काम भी शामिल थे. अफसोस के सिवाय और कुछ नहीं कर पाया किन्तु याद करता हूँ, जब में वहाँ रहा करता था तो उसी भीड़ का तो हिस्सा था जो १७०० से २००० आज दे रहे हैं. शायद कल फिर भारत में रहने लगूँ तो उसी भीड़ का हिस्सा बन जाऊँ. यही हाल घरेलू सेवकों का है. बस, आपके साथ साथ मैं भी अफ्सोस ही दर्ज करा सकता हूँ.

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