फंतासी बिकती रहेगी।


चारु-चन्द्रलेख आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास चारु-चन्द्रलेख में वर्णन है सातवाहन के समय का। भारतवर्ष पर तुर्क आक्रान्ताओं के आने की चर्चायें हैं। उस आक्रमण से निपटने की तैयारी की बात भारतवासी नहीं कर रहे। वे अघोरी-तिलस्मी-कपाली साधुओं के भरोसे रहने की बात कर रहे हैं जो एक मन्त्र से पूरी की पूरी सेना को भस्म करने की ताकत रखते हैं। यह दशा सभी मतों-मन्तांतरवादियों की हो रही है!

एक से एक विकट साधू की बात चल रही है। अजीब सनसनी है।

अन्तत सारी फंतासी धराशायी हो जाती है। पूरा भारत आक्रमणकर्ताओं की बर्बरता में पीस दिया जाता है। वे अघोरी-तिलस्मी-कपाली, जिनके बल पर देश बचने वाला था, न जाने कहां गये।

उस समय का पददलित राष्ट्र गौरव जो फंतासी की बैसाखी ले कर खड़ा था, और बर्बर आक्रांताओं ने जिसकी कस कर पैरों की हड्डियां तोड़ डाली थीं; वह अब तक सही तौर पर अपनी हड्डियां नहीं जोड़ पाया है।

चारु-चन्द्रलेख से –
… दक्षिण में गोपाद्रि दुर्ग तक वे (तुर्क) बढ़ आये थे। … लोगों में बाहुबल की अपेक्षा तंत्रमंत्र पर अधिक विश्वास था। नालन्दा के बौद्ध विहार में अनेक प्रकार की वाममार्गी साधनाओं का अबाध प्रवेश हो गया था। … मैने सुना था कि साधारण जनता और राजा के सैनिकों तक में यह विश्वास घर कर गया है कि यदि कभी आक्रमण हुआ तो शस्त्र बल की अपेक्षा सिद्धों का मंत्र बल उनकी अधिक सहायता करेगा।

सत्य सामान्यत: कुरूप और अप्रिय होता है। आप सत्य के सहारे से नेतृत्व तभी प्रदान कर सकते हैं, जब आपमें उसके कारण उपज रहे क्रोध और क्षोभ से लड़ने की क्षमता हो। अन्यथा जीवन की सचाई इतनी कठोर होती है कि आपको लोगों को बहलाने फुसलाने के लिये फंतासी और रोमांस बुनना होता है। अधिकांशत नेतृत्व जनता को फन्तासी और रोमांस के बल पर लीडरशिप प्रदान करता है। यह सातवासन के काल में भी सत्य था और यह आज भी सत्य है।

तिलस्म जहां लोगों में उद्यम की कमी है; जहां रातों रात कायापलट की चाह है; वहां फन्तासी का साम्राज्य है। कुछ दशकों पहले भस्म से सोना बनाने वाले, एक रुपये के पांच बना देने वाले, गरीबी हटाओ के नारे से गरीबी खतम करने का सपना बेचने वाले अपना प्रभुत्व जमाये हुये थे। आज यह काम व्यवस्थित रूप से मीडिया कर रहा है। विज्ञापनों, नाच-गानों, खबरों और रियाल्टी शो के माध्यम से पूरी पीढ़ियों को फन्तसाइज कर रहा है। निरर्थक को मुद्दा बना देता है और वह मुद्दा जब वास्तविकता के सामने भहरा कर गिर पड़ता है तो पूरी बेशर्मी से फंतासी का एक नया मुद्दा रातोंरात खड़ा कर देता है।

हमारे नेता भी यह जानते हैं। अभी देखियेगा; चुनाव का समय है – जो जितनी बढ़िया फन्तासी बुन पायेगा; वह उतनी सफलता से अगले पांच साल सुख भोगेगा। फंतासी और रोमांस अकेले में कारगर नहीं होते। उनके लिये स्वस्थ जीवन मूल्यों का ह्रास, व्यापक बोरियत, नैतिक वर्जनाओं से बह निकलने की चाह, खीझ-गुस्सा-असंयम आदि की बहुतायत में उपस्थिति आवश्यक है।

और क्या वे स्थितियां इस समय नहीं हैं – भरपूर हैं! परिवर्तन कठिन और धीमा होता है। उसके लिये कठोर परिश्रम की आवश्यकता होती है। यह अवश्य है कि परिश्रमी का भाग्य भी कुछ साथ देता है; पर मूलत तो धैर्य और बलिदान का ही रोल होता है। इसके बदले फंतासी एक झटके में, रातों-रात; श्रम-भाग्य-बलिदान-समय को बाइपास करते हुये, वह सब प्रदान करने का सपना देती है – जो आदमी चाहता है!

निश्चय ही, फंतासी बिकती रहेगी।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

17 thoughts on “फंतासी बिकती रहेगी।

  1. जहाँ इतने नए-नए साधन उपलब्ध हैं वहां फ़ंतासी तो और भी ज़्यादा ज़रूरी है। और जितनी ही ज़्यादा ज़रूरत, उतनी ही ज़्यादा ज़रूरत लोगों को फ़ंतासी की डोज़ देने की। भूखे को रोटी न खिलाकर सिर्फ़ फ़ंतासी खिला दो तो सालभर तक उफ़ नहीं करता।

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  2. हैरी पोर्टर भी एक फतांसी है ओर spiderman भी ….खूब बिकी ओर सिनेमा में चली …फतांसी हमेशा अपना स्थान बनाये रखेगी …सपने हमेशा बिकेगे ….

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  3. शानदार!परिवर्तन कठिन और धीमा होता है। उसके लिये कठोर परिश्रम की आवश्यकता होती है। मेरी पसन्द का वाक्य रहा है, सदा से.

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  4. साहित्य और इतिहास के माध्यम से वर्तमान की सुध लेता यह बेहतरीन आलेख ‘चेतावनी रा चूंग्ट्या’है . फंतासी के घटाटोप से बाहर निकलकर क्या हम कुछ सबक सीखने को तैयार हैं ?

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  5. सच झेलने की हिम्मत बहुतों में नहीं होती। फंतासी के सहारे लाइफ कट जाती है। न्यूज चैनल ये ही हो लिये हैं। फंतासी के बगैर एक दिन भी नहीं कटता। नेता क्या कर रहे हैं, फंतासी ही तो। फंतासीबाज बनना आसान नहीं है। स्वप्नदर्शी होना पड़ता है। और झूठ बोलने का अभ्यास साधना पड़ता है। आप देखिये, सिर्फ सच बोलने वाले लोग कितने विकट बोरिंग भी हो जाते हैं। हां, पर लाइफ जीने के लिए एक संतुलन जरुरी है, फंतासी और वास्तविकता के बीच। पागल और नार्मल के बीच यह फर्क होता है कि वह अपनी रची फंतासी और वास्तविकता में फर्क जानता है। पागल सिर्फ फंतासी में रह जाता है। इस लिहाज से देखें, बड़ा क्रियेटिव राइटर होने के लिए पागलपना जरुरी है। मैं तो पहले ही कह चुका हूं कि मैं सिर्फ महान नहीं , महानतम राइटर हूं।

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  6. हर फेंटेसी की उम्र होती है, ज्ञान का प्रकाश उसे तिरोहित करता है। उस का स्थान यथार्थ लेता है। लेकिन फिर नयी फैंटेसी बुनी जाती हैं। यह सिलसिला चलता रहता है। अनवरत ज्ञान का प्रकाश फैलता रहे इस तंत्र विकसित होना चाहिए। आजादी के बाद सब से पहले इस पर ही प्राथमिकता से काम होना चाहिए था लेकिन नहीं हुआ। नतीजा पूरा देश फैंटेसी पर जी रहा है। लेकिन ज्ञान राख में छुपे अंगार की तरह जीवित रहता है। ज्ञान सत्य और अमर है, वह पैदा नहीं होता और न ही मरता है वह सदैव से है और सदैव रहेगा। यूँ तो हम अगर शंकर की मानें तो समस्त जगत और सारे रूप फैंटेसी ही हैं। आज ब्लागर से सम्ब्द्ध कोई भी पृष्ठ नहीं खुल रहा है, जीमेल भी नहीं। आप का पृष्ट ब्लागर पर नहीं होने से खुल गया है ।जाने यह टिप्पणी आप तक पहुँचती है या नहीं? संदेह सही प्रमाणित हुआ। टिप्पणी गई नहीं। उसे सेव कर लिया था। अब दुबारा डाल रहा हूँ।

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  7. काफी गहराई से विश्लेषण किया है…मानसिक हलचल में ये हलचल कुछ ज्यादा ही अच्छी लगी।

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