गलियारा किसी मकान का नहीं, दफ्तर की इमारतों के कॉम्प्लेक्स का। जिसपर लोग पैदल तेजी से आते जाते हों। उसपर वाहन नहीं चलते। पर बहुत चहल पहल रहती है। एक बहुमंजिला बिल्डिंग से निकल कर दूसरी में घुसते लोग। किनारे खड़े हो कर अपनी सिगरेट खतम करते लोग। बाहर से आये लोग जो रास्ता पूछ रहे हों फलाने जी से मिलने का।
यह है मेरे दफ्तर का परिसर। एक ब्लॉक का निर्माण कार्य चल रहा है। मशीनें और मजदूर काम कर रहे हैं। पर वह इलाका एक टीन की चद्दर से अलग किया हुआ है। मजदूर गलियारे में नहीं नजर आते।
मैं तेजी से गलियारे में जा रहा था। अपनी धुन में। अचानक चाल पर ब्रेक लगी। सामने फर्श पर एक सीमेण्ट की बोरी पर एक शिशु सो रहा था। किसी मजदूरनी ने सुरक्षित सुला दिया होगा। काम की जल्दी थी, पर यह दृष्य अपने आप में मुझे काम से ज्यादा ध्यान देने योग्य लगा। आसपास नजर घुमाने पर कोई मजदूर नजर नहीं आया।
दफ्तर की महिला कर्मचारियों के लिये रेलवे की वीमेन्स वेलफेयर संस्था क्रेश की व्यवस्था करती है। उसके प्रबन्धन को ले कर बहुत चांव-चांव मचा करती है। महिला कर्मचारी प्रबन्धन से कभी प्रसन्न नहीं होतीं। महीने के थोड़े से क्रेश-चार्जेज को देने को लेकर भी बहुत यूनियन बाजी होती है। बच्चों को मिलने वाले दूध और खिलौनों की गुणवत्ता को ले कर अन्तहीन चर्चा होती है। और यहां यह शिशु को अकेले, गलियारे के बीचोबीच सुला गयी है उसकी मां। तसला-तगारी उठा रही होगी; पर मन का एक हिस्सा बच्चे पर लगा होगा।
मैं कुछ कर नहीं सकता था। हवा बह रही थी। हल्के बादल थे। बच्चे पर मक्खियां नहीं भिनक रही थी। मन ही मन मैने ईश्वर से बच्चे के उज्ज्वल भविष्य की कामना की। फिर कुछ संतुष्टि के साथ मैं आगे बढ़ गया।
आसपास देखा तो अधिकांश लोग तो शिशु को देख कर ठिठक भी नहीं रहे थे। यूं लगता था कि वे इसे बहुत सामान्य मान रहे थे। मेरी मानसिक हलचल में यह कुछ असामान्य परिदृष्य था; पर वास्तव में था नहीं!

उज्जवल भविष्य की कामना हम भी करते हैं- तमाम दुनिया के बावजूद मां का मन, गलियारे की छाँव, बादलों के होने और मक्खियों के न होने का शुक्रिया भी – मनीष
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आसपास देखा तो अधिकांश लोग तो शिशु को देख कर ठिठक भी नहीं रहे थे। उनके पास न मोबाइल कैमरा होगा न वे ब्लागर भी न होंगे। इसीलिये वे बिना टाइम बरबाद किये निकल लिये। :)
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काफी देर से आया हूँ। मेरा बच्चा अब इधर समय कम देने देता है। यहाँ आराम से सोता बच्चा देखकर लगता है कि ‘हरि अनाथ के नाथ’ वाला दोहा बिल्कुल सच्चा है।
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बच्चे के बारे में तो सबने बहुत कुछ कह दिया अब ह्म क्या कहें उसके उज्ज्वल भविष्य की मंगल कामना कर सकते हैं लेकिन एक बात मन में कुल्बुला रही है, जब आप फ़ोटो ले रहे थे तो क्या आस पास के लोग आश्चर्यचकित हो आप को नहीं देख रहे थे क्या उनके ऐसे देखने से आप को कोई फ़र्क नहीं पड़ा या उन्हें बताया कि मैं ब्लोग लिखता हूं उसके लिए ही ये फ़ोटो ले रहा हूँ।
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ठिठक जाना कम अज़ कम यह तो साबित करता है कि बंदे में संवेदनशीलता बची हुई है, वरना ठिठकने की भी फुरसत किसे है भागादौड़ी के इस जमाने मे और फिर अफ़सर ठिठके, यह तो रेयर केस है।बने रहें आप ऐसे ही!
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अभी रात ११ बजे यह पोस्ट पढ़ पाया ….सभी टिप्पणियाँ भी पढीं ..क्या कहूं !!?
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” हाये माँ मजदूरनी की लाचारी ..पापी पेट क्या कुछ नहीँ करवाता ! काश मेरी दुआएँ इस बच्चे तक (आपकी सँवेदनशील पोस्ट के जरीये ही) पहुँच जायेँ और इसका भविष्य सुरक्षित हो जाये तब ईश्वर कृपा को जानूँ “- लावण्या
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क्या कहूँ, रोज घर लौटते वक्त ऐसे दृश्य देखने को मिल जाते हैं, और फिर उसी भीड लेटे बच्चो के भविष्य कुछ बडे बच्चे हाथ फैलाते भी मिल जाते हैं, कभी कभार (जब उम्मीद से ज्यादा बचत हो तो) आते वक्त कुछ देकर भी आती थी, ताकि बच्चो की कुछ तो मदद हो सके, लेकिन मैने पाया कि ठीक उसके बाद उन बच्चो के बाप नशे मे धुत्त दिख जते हैं, फिर घृणा हो गयी.. कैसे बाप होते हैं ये???जो रोड पर लेटा है उसका भविष्य भी दिख जाता है.. रास्ते चालते हाथ फैला लेते हैं, उसके बाद बीडी पीते हैं… खैर उनकी गलती नही… पर यह परिपाटी रूकने का नाम भले कैसे लेगी?
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“मेरी मानसिक हलचल में यह कुछ असामान्य परिदृष्य था; पर वास्तव में था नहीं!”आप कहते हैं कविता को आपसे रूठे जमाना हो गया है . पर जो आप लिख रहे हैं वह गद्य काव्य है .यह उस जीवन की कविता है जिसकी लय-ताल बिगड़ चुकी है . जिसमें कोई ‘पोएटिक जस्टिस’ नहीं है . पर सामान्य और असामान्य का विरोधाभास और उसका विपर्ययबोध आपका कविता की ओर कदम बढ़ाना तो है ही . गलियारे में सोते बच्चे की तस्वीर अपने आप में एक मार्मिक चाक्षुष कविता है — उदास कर देने वाली कविता . आंख की कोर गीली कर देने वाली कविता . पर कविता के बाहर जीवन इसी तरह चलता रहता है . कविता है तो इस ओर थोड़ी-बहुत संवेदनशीलता है . वरना देश भर में बनते मॉल्स,शॉपिंग कॉम्प्लेक्सों, बड़े-बड़े कार्यालयों, निर्माणाधीन कारखानों में ऐसे लाखों नौनिहाल सो रहे हैं .
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ज्ञान जी जा रहे हों और हलचल ना हो ऐसा हो नहीं सकता.:) इसी मानसिक हलचल को अच्छे शब्द दिये . ऐसा अक्सर होता है पर मज़दूरों के लिए कोई भी संस्था क्रेश नहीं चलाती.
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