मैं लियो टॉल्सटॉय (१८२८-१९१०) की मेरी मुक्ति की कहानी पढ़ रहा था। और उसमें यह अंश उन्होंने अपने समय के लेखन के विषय में लिखा था। जरा इस अंश का अवलोकन करें। यह हिन्दी ब्लॉगरी की जूतमपैजारीय दशा (जिसमें हर कोई दूसरे को दिशा और शिक्षा देने को तत्पर है) पर सटीक बैठता है –
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मैने इस धोखेबाजी (लेखकगणों के असदाचार और दुश्चरित्रता) को समझ कर छोड़ चुका था। पर मैने उस पद-मर्यादा का त्याग नहीं किया था जो इन आदमियों ने मुझे दे रखी थी – यानी कलाकार, कवि और शिक्षक की मर्यादा। मैं बड़े भोले पन से कल्पना करता था कि मैं कवि और कलाकार हूं। और हर एक को शिक्षा दे सकता हूं। यद्यपि मैं स्वयम नहीं जानता था कि मैं क्या शिक्षा दे रहा हूं। और मैं तदानुसार काम करता रहा।
इन आदमियों के संसर्ग में मैने एक नई बुराई सीखी। मेरे अन्दर यह असाधारण और मूर्खतापूर्ण विश्वास पैदा हुआ कि आदमियों को शिक्षा देना मेरा धन्धा है। चाहे मुझे स्वयं न मालूम हो कि मैं क्या शिक्षा दे रहा हूं।
उस जमाने की और अपनी तथा उन आदमियों की (जिनके समान आज भी हजारों हैं) मनोदशा याद करना अत्यन्त दुखदायक, भयानक और अनर्गल है। और इससे ठीक वही भावना पैदा होती है जो आदमी को पागलखाने में होती है।
उस समय हम सबका विश्वास था कि हम सबको जितनी बोलना, लिखना और छपाना मुमकिन हो, करना चाहिये। यह मनुष्य के हित में जरूरी है। … हम एक दूसरे की न सुनते थे और सब एक ही वक्त बोलते थे; कभी इस ख्याल से दूसरे का समर्थन और प्रशंसा करते थे कि वह भी मेरा समर्थन और प्रशंसा करेगा। और कभी कभी एक दूसरे से नाराज हो उठते थे, जैसा कि पागलखाने में हुआ करता है।
… अर हम सब लोग शिक्षा देते ही जाते थे। हमें शिक्षा देने का काफी वक्त तक नहीं मिलता था। हमें इस बात पर खीझ रहती थी कि हमपर काफी ध्यान नहीं दिया जा रहा। … हमारी आंतरिक इच्छा थी कि हमें अधिक से अधिक प्रशंसा और धन प्राप्त हो। इस लिए हम बस लिखते चले जाते थे। हममें यह मत चल पड़ा कि … हम सब आदमियों से अच्छे और उपयोगी हैं। अगर हम सब एक राय के होते तो यह मत माना जा सकता था। पर हममेंसे हरएक आदमी दूसरे के विरोधी विचार प्रकट करता। … हममें से हर एक अपने को ठीक समझता था।
आज मुझे साफ साफ मालुम होता है कि वह सब पागलखाने सी बातें थीं। पर उस समय मुझे इसका धुंधला सा आभास था और जैसा कि सभी पागलों का कायदा है; मैं अपने सिवाय सब को पागल कहता था।
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अब आप वर्तमान दशा से तुलना कर देखें; क्या टॉल्सटॉय हम लोगों की छद्म दशा का वर्णन नहीं कर रहे!
मुझे एक वैकल्पिक रोजगार के रूप में बैंगन बेचने का टिप मिला है! टिप अंग्रेजी में है – एगप्लाण्ट बेचने को।
कम ही लोग बिन मांगे एम्प्लॉयमेण्ट सलाह पा जाते होंगे। इस मन्दी के आसन्न युग में रोजगार के विकल्प की सोच भी व्यक्ति को सुकून दे सकती है – वह सुकून जो उत्कृष्टतम लेखन भी नहीं दे सकता।
उत्तरोत्तर आर्थिक तनाव के चलते लोग ब्लॉग/लेखनोन्मुख होंगे अथवा विरत; इसका कयास ही लगाया जा सकता है। अत: रोजगार की सलाह को ब्लॉगीय सफलता माना जाये! कितना ख्याल रखते हैं लोग जो अपना समय व्यर्थ कर चाहते हैं कि मैं अपनी ऊर्जा सार्थक काम (सब्जी बेचने में) लगाऊं।
अनूप शुक्ल जी ने कहा है कि मैं धन्यवाद दे दूं इस सलाह पर। सो, यह धन्यवादीय पुछल्ला है।
खैर, बैंगन की एक प्रजाति घोस्टबस्टर एगप्लॉण्ट है जिसका चित्र मैने सस्कत्चेवान विश्वविद्यालय (University of Saskatchewan) की साइट से उठाया है। आप भी देखें।

ज्ञानदत्त जी और विश्वनाथ जी आप दोनों के क्रमशः पोस्ट और टीप हिन्दी ब्लॉग जगत के वर्तमान दशा को लेकर सजगता से रखी गई बातें हैं. टालस्टाय की सोच, जूतमपैजार की स्थिति और इन पर आयी जबरदस्त टिप्पणी ने इस पोस्ट को एक विचारमंच का रूप ही दे दिया. अनाम टीपाकारों के लिए मनाही या प्रतिबन्ध से मैं सहमत नहीं हूँ यदा कदा ये टीपाकार कुछ ब्लोगर्स पर अघोषित सेंसर का भी काम करते हैं. और फ़िर वह टीप ही तो सकता है. बाकी का अधिकार तो हमारे हाथों होता है. इसलिए ……! ब्लोगिंग की दशा पर इस तरह के जब जब विचारोत्तेजक पोस्ट आयेंगे. मत भिन्नता भी सामने आएगी, लेकिन इसी में से एक अविकल धारा भी निकलेगी. चलने दीजिये जब और कहीं मन न लगे तो अपने से जुड़े बातों पर ही व्यंग्य कर हँस लेना चाहिए.
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यह सब निजी ईमानदारी का मामला है । अनाम बनकर आत्म प्रशंसा करने वाले और दूसरों की छिछालेदारी में आनन्द अनुभव करने वाले जल्दी ही थक जाएंगे । ये पब्लिक है, सब जानती है ।
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bahut khub,dimag ko khurak mili
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सुमन्त मिश्राजी,आप से विनम्र अनुरोध है कि आप बार बार यहाँ आकर टिप्पणी करें।यह आपका “दुस्साह्स” नहीं होगा। उल्टा, हम सब अपने आप को धन्य समझेंगे।शुभकामनाएं
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मन को लिक्वीड बना देनेवाली सॉलिड पोस्ट। हम सबको आत्म-मंथन करने की जरूरत।
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टाँल्सटाय के व्याज से आपनॆ जो कहा वह उचित और स्वाभाविक ही है।बहुधा हम मनुष्यों में पशु प्रवृत्तियों की बात करतें हैं,किन्तु क्या हम कभी पशुओं मे मानुषी प्रवृत्तियों की बात करते हैं?हर गाय सींग नहीं चलाती,हर कुत्ता कटखना नहीं होता,शेर हर समय खानें पर उतारु नहीं रहता और यहाँ तक कि हर गधा दुलत्ती नहीं चलाता।तात्पर्य यह कि मनुष्य में अन्य जीवों की तुलना में बुद्धि का विकास विशेष है,इसीलिए वह हर समय बुद्धि से ही देखता और व्यवहार करता है।इस अतिशय बुद्धिवाद नें मनुष्य की सहजता का हरण कर लिया है जबकि पशु कहे जानें वाले जीव सहज/स्वभाव में ही जीते हैं।महाभारत से पहले का जितना साहित्य मिलता है अपवाद में एक आध को छोड़कर किसी में भी रचनाकार का नाम नहीं मिलता,कारण? अधिकांश यह मानकर लिखते थे कि वह उपलब्ध साहित्य का ही आख्यान,व्याख्यान,उपाख्यान या समाख्यान कर रहें है और क्योंकि जब वेदकार नें नाम नहीं दिया तो हम अपना नाम क्यों दें।आज स्थिति विपरीत और विचित्र है।जो विषय को जानता है और जो नहीं जानता है सभी विद्वान कहलाना और प्रशंसा पाना चाहते हैं युग प्रवृत्तियों को देखते हुए यह उतना बुरा भी नहीं कहा जा सकता।किन्तु अपनें ही धर्म दर्शन संस्कृति सभ्यता और इतिहास को जानें बिना जो उदारवादी प्रगतिशील साम्यवादी समाजवादी सेक्युलर आदि जब अनर्गल अपमानकारी भाषा का प्रयोग कर कुछ लिखते हैं तो वैसी ही घटिया प्रतिक्रियाओं का आना भी स्वाभाविक है।जहाँ तक नास्तिकों की बात है तो बिना अस्ति के नास्ति हो ही नहीं सकता इतना भी यह बकवादी नहीं समझते।कुछ ब्लागर बन्धुओं और टिप्पड़ीकारों को अनामी टिप्पड़ियों पर अत्यधिक आपत्ति है क्यों?आप ब्लागर हैं और सुरक्षा कवच(माडरेशन आदि) के अन्दर बैठ कर जैसा चाहे अल्लम गल्ल्म लिखें जैसे चाहें सनातन वैदिकआर्य धर्म जिसे आज हिन्दू के नाम से जाना जाता है को गाली बकें और कोई आप पर ऊँगली भी ना उठाये? जो लोग क्लास लेस सोसाइटी का गाना गाते नहीं अघाते वह ब्लागर्स को एक क्लास क्यों बनाना चाहते हैं?कुल बात इतनी है कि अगर हम हिंसा द्वेष रागादि भावों से रहित होकर लिखते हैं तो आनें वाली टिप्पड़ियों को भी उतनी ही सहजता से लेंगे किन्तु जब हम उक्त द्वन्द्वों से ग्रसित होंगे तो टिप्पड़ियाँ भी अरुचिकर लगेंगी।मेरे मत में ऎसे बैरियर हिन्दी ब्लाग की दुनियाँ के फलक को न केवल संकीर्ण बनाएँगे वरन् एक नये प्रकार के क्लास को जन्म देंगे जो शायद ‘हम’ नहीं चाहते। ज्ञान जी ब्लाग महिनों से पढ़ रहा हूँ किन्तु टिप्पड़ी करनें का दुःसाहस पहली बार कर रहा हूँ। एक बात और कहना चाहता हूँ यह टिप्पड़ी आप के लेखन पर नहीं टिप्पड़ीकारों पर की गयी टिप्पड़ी पर है और सभी को मेरी बात से असहमत होनें का संवैधानिक अधिकार है। सुमन्त मिश्र
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बॉस बाकी बात पे बाकी लोगों ने ध्यान दिया और अपने विचार रखे। उन बातों पर विचार रखने लायक मैं तो अपने को मानता ही नहीं। नन्हा सा मुन्ना सा जो ठहरा ;)लेकिन जो मैं महसूस कर रहा हूं वो यह कि आप का पर्सोना इस ब्लॉग ने बदला तो बदला ही। लेकिन आप की आज की यह पोस्ट तो इस बात को एकदम ही सत्य साबित कर रही है कि आप एकदम ही खांटी ब्लॉगर हो गए हो। वो ऐसे कि जो आदमी टॉलस्टॉय के लिखे को वर्तमान ब्लॉगजगत से रिलेट कर ले अर्थात उसके दिमाग में 24 से 18 घंटे ब्लॉगजगत ही चलायमान रहता है, मतलब यह कि वह एक खांटी ब्लॉगर हो गया है।क्या ख्याल है दद्दा ;)
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बाबा की बात तो प्रासंगिक है इसमें दो राय नहीं… बाकी भंटा बेचना भी कौनो बुरा काम थोड़े है, सुना है बीच में घास छीलन/बेचन का भी एक सुझाव था … बड़े शुभचिंतक हैं आपके :-)
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Mr TOLSTOY is an Institution by himself – What he says may be correct in his age & for his co -writers. but my view Re: BLOG Writing is it is more like "self expression " ..I look @ the world with the eyes of a child & wonderment & share whatever i find interesting.
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वैसे यह पोस्ट भी ब्लागरो को शिक्षा देने वाली बात हो गयी (मेरी टिप्पणी भी )।ऐसे विषय मे यह मात्र दो लोगो के बीच की बात हो सर्वथा वयक्तिगत।इस बारे मे बोलकर हम सभी अपने को उसी द्वंद मे बांधते है जिसमे वह विवाद बंधा है।इसका उपाय मौन है पुर्णतः मौन और कुछ नही !!
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