नैनो-कार की जगह सस्ते-ट्रैक्टर क्यों नहीं बनते?


मेरे प्रिय ब्लॉगर अशोक पाण्डेय ने एक महत्वपूर्ण बात लिखी है अपनी पिछली पोस्ट पर। वे कहते हैं, कि टाटा की नैनो को ले कर चीत्कार मच रहा है। पर सस्ता ट्रेक्टर बनाने की बात ही नहीं है भूमण्डलीकरण की तुरही की आवाज में। उस पोस्ट पर मेरा विचार कुछ यूं है:

green_farm_tractorवह बाजारवादी व्यवस्था दिमागी दिवालिया होगी जो ट्रैक्टर का जबरदस्त (?) मार्केट होने पर भी आर-एण्ड-डी प्रयत्न न करे सस्ते ट्रेक्टर बनाने में; और किसानों को सड़ियल जुगाड़ के भरोसे छोड़ दे।
 
खेती के जानकार बेहतर बता सकते हैं; पर मुझे लगता है कि खेती में लोग घुसे हैं, चूंकि बेहतर विकल्प नहीं हैं। लोग अण्डर एम्प्लॉयमेण्ट में काम कर रहे हैं। सामुहिक खेती और पर्याप्त मशीनीकरण हुआ ही नहीं है। जोतें उत्तरोत्तर छोटी होती गयी हैं। खेड़ा में मिल्क कोऑपरेटिव सफल हो सकता है पर कानपुर देहात में कोऑपरेटिव खेती सफल नहीं हो सकती।  सौ आदमी सामुहिक खेती करें तो एक चौथाई लोगों से चार गुणा उपज हो। उससे जो समृद्धि आये, उससे बाकी लोगों के लिये सार्थक रोजगार उत्पन्न हो।

विकसित अर्थव्यवस्थाओं में यह हुआ है। यहां यूपी-बिहार में कोई इस दिशा में काम करे तो पहले रंगदारी और माफिया से निपटे। वो निपटे, उससे पहले ये उसे निपटा देंगे। उसके अलावा सौ लोगों के सामुहिक चरित्र का भी सवाल है। लोग सामुहिक लाभ के लिये काम करना नहीं जानते/चाहते। एक परिवार में ही मार-काट, वैमनस्य है तो सामुहिकता की बात बेमानी हो जाती है। फिर लोग नये प्रयोग के लिये एक साल भी सब्र से लगाने को तैयार नहीं हैं।

मैं जानता हूं कि यह लिखने के अपने खतरे हैं। बुद्धिमान लोग मुझे आर्म-चेयर इण्टेलेक्चुअल या पूंजीवादी व्यवस्था का अर्थहीन समर्थक घोषित करने में देर नहीं करेंगे। पर जो सोच है, सो है।

लोगों की सोच बदलने, आधारभूत सुविधाओं में बदलाव, मशीनों के फीच-फींच कर दोहन की बजाय उनके सही रखरखाव के साथ इस्तेमाल, उपज के ट्रांसपेरेण्ट मार्केट का विकास … इन सब से ट्रैक्टर का मार्केट उछाल लेगा। और फिर नैनो नहीं मेगा ट्रैक्टर की डिमाण्ड होगी – जो ज्यादा कॉस्ट-इफेक्टिव होगा। तब कोई टाटा-महिन्द्रा-बजाज अपने हाराकीरी की बात ही करेगा, अगर वह ध्यान न दे! 

और कोई उद्योगपति हाराकीरी करने पैदा नहीं हुआ है!

क्या ख्याल है आपका?

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Angad सन २००४ में महिन्द्रा ने रु. ९९,००० का अंगद ट्रैक्टर लॉंच किया था। क्या चला नहीं? smile_sad

दमदार काम में बच्चा ट्रैक्टर शायद ज्यादा फायदेमन्द नहीं है!

एक हजार में उन्नीस किसानों के पास ही ट्रैक्टर है। लिहाजा बाजार तो है ट्रैक्टर का। पर बॉटलनेक्स भी होंगे ही।


Gyan Small
चमेली का तेल लगाये ज्ञानदत्त

और पुछल्ले में यह मस्त कमेण्ट

नये ब्लॉगर के लिये क्या ज्ञान दत्त, क्या समीर लाला और क्या फुरसतिया…सब चमेली का तेल हैं, जो नजदीक आ जाये, महक जाये वरना अपने आप में चमकते रहो, महकते रहो..हमें क्या!!!

फुरसतिया और समीर लाल के चमेली का तेल लगाये चित्र चाहियें।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

38 thoughts on “नैनो-कार की जगह सस्ते-ट्रैक्टर क्यों नहीं बनते?

  1. ग्याण जी अब एक दो खेतॊ के लिये किसान अकड मै आ कर ट्रेकटर तो ले लेते है, लेकिन बाद मै उन्हे मुस्किल होती है… ओर फ़िर ट्रेकटर के साथ खेत भी चला जाता है…चमेली का तेल तो आज आप पर खुब चमक रह है.धन्यवाद

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  2. विचारणीय प्रश्न् है भैय्या…लेकिन आप ख़ुद ही जवाब दे दिए हैं…कोई उद्योग पति हाराकिरी करने को पैदा नहीं हुआ है…नीरज

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  3. ट्रेक्टर किसानो की बर्बादी का कारण साबित हुआ है आजतक .छोटे जोत के किसान दलालों के चक्कर मैं फस कर लोन पर ट्रेक्टर ले लेते है और अपनी जमीन नीलाम करनी पड़ती है .मैंने भी एक ट्रेक्टर खरीदा है दो साल में ब्याज ही दे पाया हूँ मूल धन में एक रुपया भी कम नहीं हुआ इश्वर जानेआगे क्या होगा .

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  4. अजीत भाई के विचारों से मैं सहमत हूँ, मैने यहाँ अमेरिका में अपने घर के पास मक्के के बडे बडे खेतों में मशीनीकरण का जोर देखा है। अपने देश में मशीनीकरण की बहुत संभावनायें है लेकिन सामाजिक व्यवस्था, मूर्खतापूर्ण होड़, गरीबी, शिक्षा की कमी और अदूदर्शी लठैत जनप्रतिनिधि, ये होने नहीं देंगे।

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  5. Sou baat ki ek baat kah di aapne….bas yahi ek satya hai……..विकसित अर्थव्यवस्थाओं में यह हुआ है। यहां यूपी-बिहार में कोई इस दिशा में काम करे तो पहले रंगदारी और माफिया से निपटे। वो निपटे, उससे पहले ये उसे निपटा देंगे। उसके अलावा सौ लोगों के सामुहिक चरित्र का भी सवाल है। लोग सामुहिक लाभ के लिये काम करना नहीं जानते/चाहते। एक परिवार में ही मार-काट, वैमनस्य है तो सामुहिकता की बात बेमानी हो जाती है। फिर लोग नये प्रयोग के लिये एक साल भी सब्र से लगाने को तैयार नहीं हैं। bakee gareeb kisaan aur gareeb bhookhe nange rahen ….isme sabka hit hai.so koun kya karega aur kahega.

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  6. मांग, आपूर्ति और लाभ का सिद्धांत यहाँ भी काम करता है….जब एक कोठी भरी हो तो दूसरी भरने की सोची जाती है….उसे उलचने की नहीं,….. सही कहना है आपका.

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  7. यह बड़ी विडंबना है की कृषि प्रधान देश होने के बाद भी देश मैं कृषि क्षेत्र की अनदेखी की जाती रही है . यह भी एक कारण देश मैं बेरोजगारी और शहर की और पलायन का कारण है . जिससे शहर मैं पर्याप्त संसाधनों की कमी और अपराधी गतिविधियों मैं इजाफा हो रहा है . अतः ट्रक्टर ही क्यों खेती कार्य मैं अन्य सहायक उपकरणों को भी सस्ते और छोटे रूप मैं बनाया जाना चाहिए . इससे कृषि क्षेत्र मैं रोजगार का सृजन और लोगों की रूचि जागेगी . धन्यवाद .

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  8. शायद उद्योगपतियों की सोंच ये है: ट्रैक्टर का बाजार बहुत छोटा है और नैनो जैसी कार का बड़ा. क्योंकि केवल नैनो खरीदने वाले ट्रैक्टर कभी नहीं खरीदेंगे भले ट्रैक्टर वाले नैनो जरूर खरीद लेंगे ! कार हमारी मानसिकता में बहुत बड़ी जगह रखता है… ‘फलां कार वाले हैं !’ की इमेज. अगर कम पैसों में मिले तो भारतीय किसान खेती की आमदनी के पैसे बचाकर नैनो खरीदना ज्यादा पसंद करेगा… खेती तो हो ही रही है… रामभरोसे खेती हो जाना अभी भी हमारे किसानों की मानसिकता है. और असली समस्या ये है की खेती करने के लिए ट्रैक्टर खरीदने वालों की संख्या बहुत कम है क्योंकि जनसँख्या के साथ-साथ खेत छोटे होते जा रहे हैं… बहुत छोटे. ट्रैक्टर साधारणतया बड़े किसान ही खरीदते हैं नहीं तो वे जिन्हें ट्रैक्टर को अपनी कमाई का जरिया बनाना होता है. अगर किसी गाँव में एक भी ट्रैक्टर हो (वैसे तो बगल के गाँव से भी ट्रैक्टर आ जाते हैं) तो बाकी किसान उसे किराए से काम पर लेते हैं, जुताई हो या दंवनी. अगर कुछ पैसे या अनाज देकर काम हो जाता है तो एक टुकड़े जमीन के लिए कौन ट्रैक्टर लेगा? पर कार के साथ ऐसा नहीं है !

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