मेरे घर के सामने बड़ा सा प्लॉट खाली पड़ा है। अच्छी लोकेशन। उसके चारों ओर सड़क जाती है। किसी का है जो बेचने की जुगाड़ में है। यह प्लॉट सार्वजनिक सम्पत्ति होता तो बहुत अच्छा पार्क बन सकता था। पर निजी सम्पत्ति है और मालिक जब तक वह इसपर मकान नहीं बनाता, तब तक यह कचरा फैंकने, सूअरों और गायों के घूमने के काम आ रहा है।
| रीता पाण्डेय की पोस्ट। आप उनकी पहले की पोस्टें रीता लेबल पर क्लिक कर देख सकते हैं। |
प्लॉट की जमीन उपजाऊ है। अत: उसमें अपने आप उगने वाली वनस्पति होती है। मदार के फूल उगते हैं जो शंकरजी पर चढ़ाने के काम आते हैं। कुछ महीने पहले मिट्टी ले जाने के लिये किसी ने उसमें गड्ढ़ा खोदा था। कचरे से भर कर वह कुछ उथला हो गया। पिछले हफ्ते एक कुतिया उस उथले गड्ढे में मिट्टी खुरच कर प्लास्टिक की पन्नियां भर रही थी।
सन्दीप के बताने पर भरतलाल ने अनुमान लगाया कि वह शायद बच्चा देने वाली है। दोनो ने वहां कुछ चिथड़े बिछा दिये। रात में कुतिया ने वहां चार पिल्लों को जन्म दिया। संदीप की उत्तेजना देखने लायक थी। हांफते हुये वह बता रहा था - कुलि करिया-करिया हयेन, हमरे कि नाहीं (सब काले काले हैं, मेरी तरह)| कुतिया बच्चा देने की प्रक्रिया में थी तभी मैने उसके लिये कुछ दाल भिजवा दी थी। सुबह उसके लिये दूध-ब्रेड और दो परांठे भेजे गये।
रात में मेरी चिन्तन धारा अलग बह रही थी। सड़क की उस कुतिया ने अपनी डिलीवरी का इन्तजाम स्वयम किया था। कोई हाय तौबा नहीं। किसी औरत के साथ यह होता तो हड़कम्प मचता – गाड़ी/एम्ब्यूलेंस बुलाओ, डाक्टर/नर्सिंग होम का इन्तजाम करो, तरह तरह के इंजेक्शन-ड्रिप्स और जरा सी देर होती तो डाक्टर सीजेरियन कर चालीस हजार का बिल थमाता। फिर तरह तरह के भोजन-कपड़े-दवाओं के इन्तजाम। और पता नहीं क्या, क्या।
प्रकृति अपने पर निर्भर रहने वालों की रक्षा भी करती है और उनसे ही इन्तजाम भी कराती है। ईश्वर करे; इस कुतिया के चारों बच्चे सुरक्षित रहें।
पुन: – कुतिया और बच्चों के लिये संदीप और भरतलाल ने एक घर बना दिया है। नियम से भोजन देते हैं। कुतिया कोई भी समस्या होने पर अपनी कूं-कूं से इन्हें गुहार लगाने पंहुच जाती है। वह जान गयी है कि यही उसका सहारा हैं। पिल्लों ने अभी आंख नहीं खोली है।

आपने टिप्पणियों की जो नयी सेटिंग की है, वह रुचिकर नहीं जान पडती। पिछली पोस्ट की टिप्पणियां पढने में मुझे परेशानी हुई तो इस ओर ध्यान गया। छठे नंबर की टिप्पणी तक पढने में दिक्कत नहीं है, लेकिन सातवीं के लिए फिर उपर भागना पड़ता है, फिर आठवीं के बाद पूरे स्क्रीन तक फैली पंक्तियों को पढने के लिए पुतलियों को नचाना पड़ रहा है। पाठकों की आंखों का व्यायाम कराना चाहते हैं क्या :)
LikeLike
हम तो उन चारोँ नवजात पिल्लोँ की और उनकी माँ की लम्बी उमर की दुआ भेजते हैँ …- लावण्या
LikeLike
“सब काले काले हैं, मेरी तरह” बहुत सुंदर, पढ़कर मज़ा आ गया! संदीप और भरतलाल को बधाई. संदीप के दर्शन हो गए. अगर भरतलाल भी दिख जाते तो और अच्छा होता.
LikeLike
आप के इस आलेख ने बहुत बड़ा यथार्थ सामने ला रखा है। इस समझ को विस्तार दिया जा सकता है।
LikeLike
संदीप और भरतलाल ने तो अपना काम कर दिया। उन्हें बधाई। लेकिन रीता जी ने ‘सोहर’ गाया कि नहीं? हम भी सपरिवार शामिल हो लेते। :)
LikeLike
क्या केने क्या केनेपिल्लों के, और पोस्ट के भी।
LikeLike
रोचक लेख।मन में कई विचार आ रहे हैंसुबह सुबह जलदी में हूँ।शाम तक आशा है विस्तार से अपनी टिप्पणी लिख भेजूंगा।शुभकामनाएं
LikeLike
… रोचक व डिफरेंट लेख है, पढकर अच्छा लगा।
LikeLike
सच में-बचपन में कभी न कभी सबके साथ ऐसा ही कुछ वाकया गुजरा होता है. आपने सुन्दरता से कलमबद्ध कर दिया. छोटे छोटे पिल्लों को देखकर बड़ा अच्छा लगा.ईश्वर उनकी रक्षा करे. संदीप और भरतलाल के रहते वैसे भी कोई चिन्ता नहीं.
LikeLike
रोचक पोस्ट। वैसे बचपन में सभी लोग संदीप और भरतलाल ही होते हैं…कभी न कभी किसी ऐसी ही घटना से दो चार हुए। एक कहानी पाठ्यपस्तकों में कहीं पढी थी कि एक चिडिया के घोसले में कुछ बच्चों ने अंडों के नीचे थोडी रूई रख दी थी। बाद में वह अंडा न जाने कैसे गिरकर फूट गया। बच्चों की माँ ने जब यह देख कर पूछा कि रूई क्यों रखी, तब उनका जवाब था कि अंडों को नरमाहट भरी गद्दी देने के लिये ताकि उन्हें आराम रहे। अच्छी पोस्ट।
LikeLike