पहला रियेक्शन यह होता है कि तुरत पाकिस्तान पर चढ़ाई कर देनी चाहिये। पर शायद हम आतंकी हमले के लिये भी तैयार नहीं हैं – आपदा प्रबन्धन के स्तर पर और जन भावनाओं के सही प्रबन्धन के स्तर पर भी। युद्ध तो बहुत बड़ा कमिटमेण्ट मांगता है। मंदी के इस दौर में देश एक फुल स्केल के युद्ध का खर्च और तनाव झेल सकता है? झेलने को चाहे झेल जाये, पर अगर शत्रु जितना बाहरी हो उतना भीतरी भी@ तो युद्ध का यूफोरिया बहुत सार्थक नहीं।
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पचास लाख रुपये के खर्च और कुछ फिदाईन के बल पर एक देश को अर्थिक रूप से लकवाग्रस्त कर देना और युद्ध में लिप्त कर देना – यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी लश्करे तैय्यबा (या जो भी कोई आउटफिट हो) की। अभी तक तो वे बहुत सफल होते प्रतीत हो रहे हैं। इस हमले से जो लाभ भारत को मिल सकता था – राष्ट्रीय एक जुटता के रूप में, वह भी केवल आंशिक रूप से मिलता नजर आता है। वह लाभ दिलाने के लिये एक करिश्माई नेतृत्व की जरूरत होती है। ऐसे समय में ही करिश्माई नेतृत्व प्रस्फुटित होता है। और राजनैतिक दलों के लिये स्वर्णिम अवसर है जनमत को अपनी ओर करने का।
आतंक से युद्ध एक बार की एक्सरसाइज नहीं है। यह सतत लड़ा जाने वाला युद्ध है। शायद लोग यह सोच रहे थे कि अफगानिस्तान और ईराक में जंग जीत कर अमेरिका चैन से बैठ पायेगा। पर वह चैन दीखता नहीं है। हां, अमेरिकी यह जरूर फख्र कर सकते हैं कि उन्होंने एक “बीफिटिंग(befitting – माकूल))” जवाब दिया। अन्यथा वे आत्मग्लानि से ग्रस्त हो गये होते। हमारा “बीफिटिंग” जवाब किस तरह का होगा, यह भारत को सोचना है। और परिवर्तन होने भी लगे हैं सरकार की सोच में।
कूटनीति के स्तर पर भी हमें लड़ना और जीतना है। मनोबल तो ऊंचा रखना ही है। मुझे आइंस्टीन का कहा याद आता है – हम किसी समस्या का हल उस समस्या के लेवल पर नहीं निकाल सकते, जिसपर वह अस्तित्व में है। हमें एक दूसरे स्तर पर हल ढूंढना होगा।
@ – और शायद अब; सिमी या उस प्रकार के संगठन के आतंक में लिप्त होने की बात चलने पर वोट बैंक के आधार की जाने वाली लीपापोती का उभरता फैशन खत्म हो। मुम्बई का आतंक बिना लोकल सपोर्ट के विदेशियों का अकेले के बूते पर किया कारनामा नहीं लगता। वैसे यह क्रैप (crap – मैला) बिकने लगा है कि यह शुद्ध बाहरी लोगों का किया धरा है।
पोस्ट लेखन के बाद का जोड़:
मेरे एक अभिन्न मित्र; जिनका पेशा जनता की नब्ज पहचानना है; ने बड़े पते की बात कही है कल मुझसे – अरे भाई साहब, कोई सुनामी नहीं आने वाली! जनता गुस्से में बहुत है, पर ये गुस्सा कोई सरकार विरोधी कैश करा ले, यह हालत नहीं है। वैसे भी मेमोरी बहुत शॉर्ट होती है। ये पैनल-फैनल के डिस्क्शन चार दिन में घिस लेंगे। फिर चलने लगेंगे लाफ्टर चैनल। ज्यादा दिन आतंक-फातंक की रोवा-राटी चलने वाली नहीं। अगले आतंकी हमले तक सब ठण्डा हो जायेगा। मातुश्री में आतंकवादी घुसे होते, तब कुछ दूसरी बात होती!


आपसे असहमत रहना जैसे मेरी नियति बन गयी हो… या मेरा दुर्भाग्य ? पोस्ट की मूल आत्मा पाठक के मोरेल को हतोत्साहित करने वाली और हाँज्जि.. हाँ जी वाली टिप्पणियाँ रूलाने वाली हैं !
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Chaliye befitting reply dete hain, chaliye nahi bhoolte is baar. Chunav hareeb hain. sab neta, sab party ek jaisi. Ek ko gali do , sab ko lagati hai. Chahe Naqvi hon ya Achuthanandan. aaz-kal ek SMS ghoom raha hai…for awhile we can worry about those who come through BOATS..! but.. we MUST always worry about those who come thru VOTES..!! in netaon ko is baar vote maat diziye, tab Kisko vote deng? Hai koi vikalp?
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युद्ध तो बहुत बड़ा कमिटमेण्ट मांगता है…सच है कि युध्ध के लिए हमें तन मन धन से पूर्ण मानसिकता बनाना पड़ती है और परमाणु युग में युध्ध कोई बच्चो का खेल नही है . आधुनिक युध्ध सम दाम दंड भेद की नीति से भी लड़े जा सकते है . युद्ध के दौरान देश को बाहरी और अंदुरनी दुश्मनों से भी निपटाना पड़ता है और साथ अपनी जन धन हानि न हो उनके सुरक्षा के बिन्दुओ पर गहन विचार विमर्श करना पड़ते है . आभार.
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“पहला रियेक्शन यह होता है कि तुरत पाकिस्तान पर चढ़ाई कर देनी चाहिये। पर शायद हम आतंकी हमले के लिये भी तैयार नहीं हैं – आपदा प्रबन्धन के स्तर पर और जन भावनाओं के सही प्रबन्धन के स्तर पर भी। युद्ध तो बहुत बड़ा कमिटमेण्ट मांगता है। मंदी के इस दौर में देश एक फुल स्केल के युद्ध का खर्च और तनाव झेल सकता है? झेलने को चाहे झेल जाये, पर अगर शत्रु जितना बाहरी हो उतना भीतरी भी@ तो युद्ध का यूफोरिया बहुत सार्थक नहीं।”बिल्कुल सच!!!!!भावनाओं में बहकर ऐसे फैसले नहीं किए जा सकते हैं????
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गलत बातों का आदी ज़माना हो गया शायद किसी भी बात पर अब कोई हंगामा नहीं होता ।
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बिल्कुल यही लाइने मैने दो तीन दिन पहले किसी ब्लॉग पर टिप्पणी के रूप में लिखी थी कि बस दो दिन जाने दीजिये चैनल वाले फिर से लाफ्टर चैलेन्ज के क्लीपंग्स दिखाने लगेंगे और हम किसी सामान्य सी कविता पोस्ट पर वाह वाह करते और किसी सामान्य मजाकिया पोस्ट पर टिप्प्णीयों की लाईन लगाते दिखेंगे। सच है हमारी याददाश्त बहुत ही कमजोर है।
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सबसे पहले अफज़ल को फांसी पर लटका दीजिये और घोषणा करिए कि हर आतंकवादी का अब इस देश में यही हश्र होगा…….FIR VOTE KOON DE GA
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सार्थक चर्चा ज्ञान जी,आतंकियों का आधा मकसद तो हमारी मीडिया ने पूरा कर दिया, बाकि आधे को पूरा करने में हमारे राजनेता जोर-शोर से लगे हुए हैं. दुगना मकसद पूरा हो जाएगा अगर आज की तारीख में एक सीधा युद्ध छेड़ दिया जाए. यह युद्ध अवश्यम्भावी है. लेकिन देश की गरिमा के लिए नही, बल्कि कांग्रेस की सरकार बचाने के लिए.
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युद्ध से क्या ये ख़त्म हो जायेगा? जो घर में बैठे हैं उनको किस मिसाइल से मारा जाय ! जरुरत है कुशल और दृढ़ नेतृत्व की.
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चिंता बस इसी बात की है, की अब सबको पता है की कुछ होने वाला नहीं है और सब कुछ १-२ हफ्ते में निपट जाएगा। लेकिन अब यही तो हम सबको ध्यान में रखना पड़ेगा की राजनीतिक नेत्रत्व को और अपोजीशन दोनों को लगाम लगा के रखना होगा।वोट की कीमत पहचाननी पड़ेगी। Be Votebank. Be Heard.
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