भरतलाल (मेरा बंगला-चपरासी) नया कुकुर लाया है। कुकुर नहीं पिल्ला। भरतलाल के भाई साहब ने कटका स्टेशन पर पसीजर (मडुआडीह-इलाहाबाद सिटी पैसेंजर को पसीजर ही कहते हैं!) में गार्ड साहब के पास लोड कर दिया। गार्ड कम्पार्टमेण्ट के डॉग-बाक्स में वह इलाहाबाद आया। गार्ड साहब ने उसे यात्रा में बिस्कुट भी खिलाया।
परसों यह पिल्ला पशु डाक्टर के पास ले जाया गया। इंजेक्शन लगवाने और दवाई आदि दिलवाने। इन्जेक्शन उसने शराफत से लगवा लिया। दांत बड़े हो रहे हैं, सो वह कालीन चीथने का प्रयास कर रहा है। पिछले साल ही पॉलिश कराये थे फर्नीचर – उनपर भी दांत घिस रहा है। बैठे बिठाये मुसीबत मोल ले ली है। लिहाजा अब गले का पट्टा, चबाने के लिये प्लास्टिक की हड्डी – यह सब खरीदा गया है। मन्थली बजट में यह प्रोवीजन था ही नहीं! पत्नीजी पिलवा से प्रसन्न भी हैं और पैसा जाने से परेशान भी।
भरतलाल का कहना है कि यह किसी मस्त क्रॉस ब्रीड का है। इसकी माई गांव की थी और बाप किसी भदोही के कारपेट वाले रईस का विलायती कुकुर। माई ने दो पिल्ले दिये थे। एक मर गया/गई, दूसरा यह है। सामान्य पिल्ले से डबल काठी का है। मौका पा कर हमारे घर के बाहर पल रहे हम उम्र पिल्लों में से एक को मुंह में दबा कर घसीट लाया। बड़ी मार-मार मची!
कौन ब्रीड है जी यह? इसी को पहेली मान लें!
महात्मा गांधी जी के व्यवहार को लेकर हम जैसे सामान्य बुद्धि के मन में कई सवाल आते हैं। और गांधी जी ही क्यों, अन्य महान लोगों के बारे में भी आते हैं। राम जी ने गर्भवती सीता माता के साथ इतना गलत (?) व्यवहार क्यों किया – उन्हें वाल्मीकि आश्रम में भेज कर? एकलव्य का अंगूठा क्यों कटवाया द्रोण ने? कर्ण और भीष्म का छल से वध क्यों कराया कृष्ण ने? धर्मराज थे युधिष्ठिर; फिर ’नरो वा कुंजरो वा’ छाप काम क्यों किया?
सब सवाल हैं। जेनुइन। ये कारपेट के नीचे नहीं ठेले जाते। इनके बारे में नेट पर लिखने का मतलब लोगों की सोच टटोलना है। किसी महान की अवमानना नहीं। पिछली एक पोस्ट को उसी कोण से लिया जाये! संघी/गांधीवादी/इस वादी/उस वादी कोण से नहीं। मेरी उदात्त हिन्दू सोच तो यही कहती है। केनोपनिषद प्रश्न करना सिखाता है। कि नहीं?
क्या कहेंगे नौजवानों की भाषा में – “गांधी, आई लव यू”?! रिचर्ड अटेनबरॉ की पिक्चर में इस छाप का डायलॉग शायद न हो।


फोटो का एंगल लेने में थोडी गडबडी हो गयी है……पर नये मेहमान पर बधाई….गांधी पर आपने जो लिखा सौ फीसदी सहमत हूँ….
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हम भि कुछ बोलूँ ?जब अमेरीकन साबित कईये दिया है,तौ चाहे एन.आर.डी हो या रेड-कार्ड होल्डर, कऊनों बात नहीं !बस इसका लगन हमरे काकर-स्पैनियल ‘छोटी ‘से पक्का कर ही दीजिये ।समीर भाई, मध्यस्थ रहेंगे ।यकीन करें गुरुवर, इस संबन्ध के ब्लागजगत में दूरगामी परिणाम दिखेंगे ।इस रिश्ते के प्रताप से फ़ुरसतिया जी बगलें झाँकते दिखेंगे ।आपके पिलवे का ब्रीड सुधर जायेगा, अउर हमरा जनम सुधर जायेगा ।कार्तिकेय जी, गैर-कोटा का जाति-गोत्र प्रदान किये हैं ।कोनों आर्यसमाज वाला भी इसका मन्तर नहीं पायेगा, जी :)
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१. कूकुर किसी भी ब्रीद का हो, अगर भदोही/मिर्जापुर से आया है तो कारपेट काटेगा ही. बरेलवी कहावत है – “भदोही का कूकुर, कालीन का सत्यानाश” २. आपके सारे सवाल जेनुइन हैं क्योंकि आप सोच-विचारकर पूर्वाग्रह के बिना उत्तर खोज रहे हैं. इत्तेफाक से मेरे पास इनके उत्तरों का कुछ छिपा हुआ (not hidden but not very obvious) आयाम है – कभी बैठकर चर्चा करेंगे.
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घर मे नए सदस्य के आने की ढेर सारी बधाईयां।बाकी कुछ हो ना हो, आपकी सुबह और शाम की टहलकदमी जरुर हो जाएगी। (गोलू पांडे की सुस्सु वगैरहा की जिम्मेदारियों के तहत)एक और बात, टहलाते समय मोहल्ले के दूसरे कुकुर स्वामियों/स्वामिनियों से भी मुलाकात सम्भव है, दोस्ती-रिश्तेदारी मे भी बदल सकती है।एक रिश्ता ( http://www.jitu.info/merapanna/?p=364 ) हम भी भेज रहे है गौर फरमाइएगा।
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ज्ञान जी, किसी भुलावे में ना जाइये। सभी आपके पिल्ले की लोकप्रियता से जल-भुन कर उसे देसी का खिताब दे रहे हैं… मेरी छ्ठी इंद्रिय बता रही है कि कुत्ते के पूर्वज डर्बीशायर से आउट्सोर्स होकर ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ भारतभूमि आये थे।लेकिन कुकुर जैसे विशालहृदय प्राणी को जाति-बंधन में बाँधकर आपने अच्छा नहीं किया।
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ज्ञान जी, पिल्ला तो मुझे देसी ही लग रहा है. अब चाहे इलाहाबाद-भदोही से बना हो या कहीं और से. आप भी पिल्ला पुराण जमकर लिखते हैं. एक बार उन बाहर वाले पिल्लों का भी हाल सुना दो.
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पिल्ला सुंदर है. बधाइयाँ. कुकुर तो बोला ही जाता है. हाँ एक फ्री सलाह. इन्हें कारपेट में शु शु करने में मजा आता है. कारपेट पर सिरके के छिडकाव से लाभ होगा. .
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गोलू पाण्डे अभी तो थोडी कठिनाई ही देगा, लेकिन बाद मै आप को इस का बहुत लाभ होगा,धन्यवाद
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अरविंद जी कह रहे हैं कि कौन सा देशी पिल्ला उठा लाए, पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया कि इसकी नस्ल ज्ञान जी की ससुराल भदोही से जुडी हुई है। ऐसे में तो यह विशिष्ट जन ही ठहरा। अगर ऐसा न होता, तो आप इस पर पोस्ट क्यों लिखते।
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“ये कारपेट के नीचे नहीं ठेले जाते।”किसी जमाने में, जब विशाल-परिवार की परिपाटी थी, तब लोग पूछते कम थे, समझते अधिक थे. लेकिन अब जमाना बदल गया है और अब हर मुद्दे पर प्रश्न उठाया जाता है, और सही जवाब देना जरूरी है.
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