जी विश्वनाथ: मंदी का मेरे व्यवसाय पर प्रभाव


मैं एक  स्ट्रक्चरल इन्जीनियर (structural engineer – संरचना अभियंता) हूँ। मेरा विशेष ज्ञान और अनुभव इस्पात के बने हुए औद्योगिक संरचनाओं के अभिकल्पन के क्षेत्र में (Design of steel structures in Industrial buildings ) है।

Vishwanath Smallश्री जी विश्वनाथ ने अपने मन्दी से सम्बन्धित अनुभव को इस अतिथि-पोस्ट में बखूबी व्यक्त किया है। मेरा सौभाग्य है कि मुझे अपने ब्लॉग पर वह प्रस्तुत करने का मौका मिला है। क्या अच्छा हो कि इस माध्यम से मन्दी पर एक सार्थक चर्चा प्रारम्भ हो सके!

आप श्री जी विश्वनाथ विषयक पोस्टें लेबल सर्च से देखने का कष्ट करें।

मैने 26 साल तक एक सरकारी संस्थान में काम किया। फिर ढाई साल एक प्राइवेट कंपनी में महाप्रबन्धक (General Manager) की पोस्ट पर काम करने के बाद  2004 अप्रैल में, 55 साल की उम्र में हमने नौकरी छोड़कर अपना खुद का एक छोटा सा KPO (Knowledge process outsourcing) का व्यवसाय आरंभ किया था।

उस व्यवसाय में ९० प्रतिशत पूँजी लगाई थी अमरीका में बसे मेरे एक मित्र ने जो भारतीय था लेकिन अब अमरीका में बसकर अमरीकी नागरिक बन गया है। उनको मुझपर पूरा भरोसा था। मेरे लिए वही वेंचर केपिटलिस्ट (Venture Capitalist) थे। मैंने कोई खास रिस्क नहीं ली थी इस व्यवसाय में आने में। वैसे भी तीन साल में मुझे रिटायर होना था। मैंने सोचा यदि, कैरीयर की अंत से पहले कुछ करना/ कमाना है, तो यही मौका है। ऑउटसोर्सिंग के लिए यह बूम का समय था। मैने सोचा कि बहती गंगा में यदि हाथ धोना है, तो इससे बढ़िया अवसर कभी नहीं मिलेगा।

हमारा नया व्यवसाय था अमरीकी फेब्रिकेटर्स के लिए अमरीकी वास्तुविद/इन्जीनियर्स  के डिजाइन/ड्रॉइंग्स पर आधारित, विस्तृत ढ़ांचागत ड्राइंग (Detailed fabrication drawings) तैयार करना। साथ में हम, Bill of materials, bolt list, CNC files (computer numerically controlled files), 3D models वगैरह भी supply करते थे।

industrial steel structureएक औद्योगिक स्टील अभिकल्पना

हमने कई लाख रुपये लाइसेंस युक्त सॉफ्टवेयर/हार्डवेयर खरीदने में लगा दिए थे। इसके अलावा केवल पाँच लाख का खर्च करने से, अपने घर में ही मैने अपना कार्यालय खोल दिया। शुरू में १७ ईंजिनियर/डिप्लोमा वाले काम पर लगा दिए थे। काम सीखने  के बाद एक एक करके यह लोग छोड़कर जाते थे। उनके बदले में हम नये लोगों की भर्ती करते रहते थे। अब दस लोग बचे हैं।

मेरे अमरीकी पार्टनर का जिम्मा था काम ढूँढना, मुझ तक पहुँचाना, ग्राहक के साथ संपर्क रखना, और पेमेण्ट उगाहना/प्राप्त करना। मेरा जिम्मा था कर्मियों का रिक्रूटमेण्ट, ट्रेनिंग, उत्पादन और उत्पाद सुपुर्दगी। आमदनी हम आपस में बाँटते थे (कर्ज के किस्तों को समायोजित करने के बाद)।

GV and his team Feb 2009श्री गोपालकृष्ण विश्वनाथ अपनी टीम के साथ

हमारी सफ़लता इसी में थी कि अमरीका में यही ड्राइंग बनाने में उन लोगों के लिए खर्च चार या पाँच गुना होता। हम यही काम यदि  देशी फेब्रिकेटर्स के लिए करते तो दाम एक चौथाई ही मिलता। यदि हम दुगुना भी माँगते तब भी अमरीका वालों के लिए आधे दाम पर हमारी सेवाएं उपलब्ध होती। यही विन-विन सिचयुयेशन (Win-Win situation) है – आउटसोर्सिंग धंधे की सफ़लता का राज़। इस व्यवसाय में हमारा आउटपुट ऐसा था  जो हम आसानी से, बिना पैसे खर्च किए, इंटरनेट के माध्यम से उन लोगों तक पहुँचा सकते थे। जब मैं सरकारी संस्थान में काम करता था तो कागज़ के फ़ाइलों को एक विभाग से, उसी इमारत में स्थित किसी दूसरे विभाग तक पहुंचाने में कभी कभी एक दिन भी लग  सकता था! वह पूर्णत चपरासी की कृपा पर निर्भर होता!  यहाँ हम एक फ़ईल केवल पाँच मिनट में हज़ारों मील दूर पहुँचाते थे।

समय भी अनुकूल था। जब वे (अमरीकी) सोते थे, हम यहाँ काम जारी रखते थे। हम जब सोते थे, उनका काम भी जारी रहता था। प्रोजेक्ट का काम कभी रुकता नहीं था। सुबह और शाम को हमारा संपर्क का समय रहता था (Skype/MSN Messenger/Yahoo Messenger के जरिये)। अंग्रेज़ी भाषा में हमारी दक्षता से वे काफ़ी प्रभावित होते थे।

यह व्यवसाय, बिना कोई रुकावट पाँच साल चला। इन पाँच सालों में हमने अमरीकी मित्र की पूँजी की वसूली भी की। हम कर्ज से मुक्त हुए। अच्छी कमाई भी हुई। औसत तौर पर, नेट आमदनी सरकारी तनख्वाह से तीन गुना ज्यादा थी और इस बीच हम बेंगळूरु में एक अपार्टमेण्ट भी खरीदने में कामयाब हुए, (मेरी Reva Car सो अलग!)। इन पाँच सालों में कम से कम ३० नए इंजिनियरों का हमारे कार्यालय में प्रशिक्षण भी हुआ। उन लोगों का वेतन दुगुना हुआ। और कई लोग हमसे विदा होकर अन्य बड़े कंपनियों में इससे भी अच्छी नौकरी पाने में सफ़ल हुए।

अचानक यह मन्दी का दौर चलने लगा। पिछले साल से ही हमने इसका प्रभाव महसूस किया था पर शुरू में हम अधिक चिंतित नहीं हुए थे। हमने सोचा –

“हर व्यवसाय में उतार चढ़ाव तो होता ही है। बस कुछ महीने कमर कसकर जीना सीखो। खर्च कम करो। नए निवेश पर रोक लगा दो। कर्माचारियों की सालाना वेतन वृद्धि स्थगित कर दो। अब नुकसान तो नहीं होगा। कर्ज की वसूली तो हो गई है। बस जब तक आमदनी खर्च से कम नहीं हो जाता, हम यूँ ही व्यवसाय चलाते रहेंगे। दिन अवश्य बदलेंगे और  अब, जब कर्ज से मुक्त हो गए हैं तो आगे चलकर खूब मुनाफ़ा होगा।”

पर तकदीर ने हमारा साथ नहीं दिया। हालत बिगड़ती गई। नए प्रोजेक्ट आने बन्द हो गए या स्थगित होने लगे। अपने फेब्रिकेटर से पूछने पर मालूम हुआ के वह भी उतना ही परेशान है। वह जनरल कॉण्ट्रेक्टर (General Contractor – GC) को दोष देने लगा जिसने  पेमेण्ट रोक रखा था। GC ने ग्राहक की तरफ़ इशारा किया। ग्राहक ने बैंको को दोष दिया जहाँ से पैसा आना था।

कुछ छोटे मोटे प्रोजेक्ट आने लगे हमारे पास पर आमदनी घटती गई।

सन २००८ के अंत तक पानी चढ़कर नाक तक पहुँच गया और हमारा निर्णय लेने का समय आ गया। या तो डूब मरो, या अपने आप को किसी तरह बचा लो। चाहे आगे आमदनी न हो पर कम से कम घाटे से अपने आप को बचा लो। अपना घर गिरवी रखकर शायद एक और साल काम चला सकता था पर इस उम्र में इतना बड़ा जोखिम उठाने के लिए हम तैयार नहीं थे। क्या पता एक साल बाद घर भी बह जाए।

सही समय पर मुझे अपने आपको बचाने का अवसर मिल गया। मेरा तो धन्धा छोटे पैमाने पर चल रहा था। मुझे लोग छोटा पर अच्छा बन्दा (small but good fry) मानते थे। इस धन्धे में मेरा अच्छा नाम भी था। इसी धन्धे में चेन्नै में स्थित एक और कंपनी है जिसके सौ से भी ज्यादा कर्मचारी हैं और जिनका टर्नओवर मेरे से १५ गुना ज्यादा है। मेरी कंपनी खरीदने के लिए यह लोग राजी हो गए। मन्दी और हालात से परेशान होकर मुझे अपनी कंपनी की हिस्सेदारी (shares) को मूल्य पर (at par) बेचना पड़ा। मेरे कर्मचारियों की भलाई इसी में थी। और मैं दुखी नहीं हूँ।

आज, दिनचर्या पहले जैसी ही चल रही है। कंपनी को मैं ही चला रहा हूँ लेकिन अब मुझे तनख्वाह मिलती है। आगे जो होगा वह अब मेरी चिंता नहीं। यदि मन्दी से बचकर हम भविष्य में उन्नति करते हैं तो मुनाफ़ा मेरा नहीं होगा। यदि हालत और बिगड़ जाती है तो नुकसान भी मेरा नहीं। बस रिटायर होकर, ज्ञानजी के ब्लॉग पर जाकर शरण लेंगे और खूब टिप्पणी करेंगे!

— गोपालकृष्ण विश्वनाथ, बेंगळूरु।


महेन की पिछली पोस्ट पर टिप्पणी:

mahenमंदी की चर्चा ब्लॉगजगत में न देखकर मुझे भी थोडी हैरानी हुई मगर मुझे लगा शायद अपने गायब रहने की वजह से मुझे पता नहीं चला होगा। मगर मुझे नहीं लगता कि जिन लोगों को मंदी की चपेट लगी है, या जो इससे बहुत प्रभावित हुए हैं, ऐसे लोगों की उपस्थिति हिंदी ब्लॉगजगत में ज्यादा है। जो हैं, मेरी तरह, उनकी सिट्टी-पिट्टी मेरी ही तरह गुम है और ब्लॉगजगत से गायब रहेने का सबब भी यही मंदी है। हो सकता है मेरा मत गलत हो।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

33 thoughts on “जी विश्वनाथ: मंदी का मेरे व्यवसाय पर प्रभाव

  1. विश्वनाथजी का कदम सही समय पे लिया गया सही कदम ही लगता है. अभी निकट भविष्य में कुछ सुधार के आसार तो दिख नहीं रहे. इसी क्षेत्र से जुडी एक बड़ी कंपनी (एनसिस) ने पिछले सप्ताह अमेरिका में कई लोगों को गुलाबी रसीद दिखाई है.

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  2. I know if your second business fails, you will go for third may be for fourth and ultimately success will be yours that is for sure becoz your type of steel stuff never get rusted. Aur Zanaab kitane fabricator bhagenge! My best wishes.

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  3. @RajivAmusing story!I wish this were true.One has to be actually affected by the recession to undersand it fully.Here is an update.We were halfway through a job.Our Client (A Fabricator) suddenly asks us to stop even though we have a firm order from him to proceed.He had given us the written order based on an oral order from the General contractor, whom he trusted and knew.Reason for stopping our work?His General contractor was pursuaded by another Fabricator to take back the contract from our fabricator and award it to the second fabricator.All for a 10 percent reduction in the price.We are now negotiating with the new awardee and he is playing hard to get!No problem, if this business fails, I too will consider selling hot dogs.If hot dogs don’t sell, I can switch to Idlies/vadas/dosas I can also add samosas later to the menu.This is one business that will never fail as long as we humans have an appetite.Thanks for responding.RegardsG Vishwanath

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  4. What is Recession? This story is about a man who once upon a time was selling Hotdogs by the roadside. He was illiterate, so he never read newspapers. He was hard of hearing, so he never listened to the radio. His eyes were weak, so he never watched television. But enthusiastically, he sold lots of hotdogs. He was smart enough to offer some attractive schemes to increase his sales. His sales and profit went up. He ordered more a more raw material and buns and sold more. He recruited more supporting staff to serve more customers. He started offering home deliveries. Eventually he got himself a bigger and better stove. As his business was growing, the son, who had recently graduated from college, joined his father. Then something strange happened. The son asked, “Dad, aren’t you aware of the great recession that is coming our way?” The father replied, “No, but tell me about it.” The son said, “The international situation is terrible. The domestic situation is even worse. We should be prepared for the coming bad times.” The man thought that since his son had been to college, read the papers, listened to the radio and watched TV. He ought to know and his advice should not be taken lightly. So the next day onwards, the father cut down the his raw material order and buns, took down the colorful signboard, removed all the special schemes he was offering to the customers and was no longer as enthusiastic. He reduced his staff strength by giving layoffs. Very soon, fewer and fewer people bothered to stop at his Hotdog stand. And his sales started coming down rapidly and so did the profit. The father said to his son, “Son, you were right”. “We are in the middle of a recession and crisis. I am glad you warned me ahead of time.” Moral of the Story: It’s all in your MIND! And we actually FUEL this recession much more than we think.

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  5. Thanks to all who have sent comments and good wishes for my continued success.I was out of station for three days and read the comments only today.I am still not out of the woods.The recession continues. If this ends soon, I can bounce back.If it continues indefinitely, even the new owners will not be able to sustain us for ever. The time will then come for forced retirement. Considering my age, it may not be such a tragedy. But for the youngsters, it is a different story.In retrospect, the cause of the probblem is over-dependence on only one source of income. There is wisdom in the saying “You should not put all your eggs in one basket”I will keep all of you posted with future developments.Thanks once again for your responses and to Gyanjee for his kind courtesy in hosting this blog post.RegardsG Vishwanath

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  6. असल में समाज शास्त्र का यह नियम है कि अ गर सामाजिक प्रगति (या दुर्गति) की कोई प्रक्रिया दुनिया में कहीं भी शुरू हुई है तो वह जब तक पूरे भूगोल का चक्कर न काट ले थमेगी नहीं. मन्दी के सन्दर्भ में भी मामला कुछ ऐसा ही है. जब विदेशों से भारत पर इस बात के लिए दबाव पड़्ने लगा था कि वह विदेशी पूंजीनिवेश की अनुमति दे, तो वह अपने-आपमें मन्दी की गम्भीर सूचना थी. हमारी सरकार में बैठे मोटे-मोटे मंत्री और अफसरशाह इस बात को जानते भी थे. वस्तुत: वह कैपिटल सरप्लस जैसा मामला था. पर ज़िम्मेदार लोगों ने क्षुद्र निजी स्वार्थों के लिए राष्ट्रीय हितों की बलि देना मंजूर कर लिया. इसका दुष्परिणाम हम भुगत रहे हैं. यही नहीं, आउटसोर्सिंग का पूरा धन्धा वस्तुत: स्ट्रक्चर खड़ा करने के दौर की आरम्भिक मज़बूरी पर निर्भर है. उसके खड़ा होते ही इसकी ज़रूरत ख़त्म और रोज़गार ख़ल्लास. इस मामले में चीन की नीति अपनाने की ज़रूरत है, पर हम उसके लिए तैयार नहीं हैं. केवल प्रशासनिक या राजनैतिक ही नहीं, सामाजिक रूप से भी. आशा है, विश्वनाथ जी आगे इन समस्याओं पर भी ग़ौर फ़रमाएंगे.

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  7. विश्वनाथ जी को सादर प्रणाम,मैं व्यक्तिगत रूप से उद्यमियों के प्रति विशेष आदर का भाव रखता हूँ, इसलिये नहीं कि उनके पास अधिक धन रहता है अपितु इसलिये कि उन्होने कई लोगों को जीविका दे रखी है । इस परिप्रेक्ष्य में विश्वनाथ जी की कथा और व्यथा दोनों को ही गहराई से मनन कर यह विचार लिख रहा हूँ ।१. विश्वनाथ जी के बिजनेस मॉडेल को अपने देश में विस्तृत रूप से अपनाना चाहिये क्योंकि ज्ञान के क्षेत्र में हम लोग प्राकृतिक रूप से सुदृढ़ हैं और फाएनेन्स इत्यादि में सहायता की अपेक्षा करते हैं । विश्वनाथ जी के मित्र भी प्रशंसा के पात्र हैं । बाकी कर्मठों के लिये यदि सरकार मित्र का कार्य करे तो विकास होगा ।२. बाजार की स्थिति के अनुसार जो निर्णय लिया गया वह अनुकूल है । स्थितियों को थोड़े समय तक ही सम्हाला जा सकता है । अधिक समय तक खींचना पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होता ।३. इस स्थिति में व्यवसाय को एक सहारे की आवश्कता थी । ओबामा ने अपने देश की अर्थव्यवस्था को ९६० बिलिअन डॉलर का सहारा दिया है और ’सब कुछ बदल डालूँगा’ की तर्ज पर सारे व्यवसायों को कार्य दिया है । जब सरकारी सहारे की आस न हो तो निजी कम्पनी का सहारा लेकर व्यवसाय को निरन्तरता दी, यह प्रशंसनीय है ।४. विश्वनाथ जी के कारण कई युवाओं को जीविका एवं दिशा मिली है, इस बात का गर्व आपको मन्दी समाप्त होने के बाद पुनः नया व्यवसाय खड़ा करने की प्रेरणा देगा । यह मेरा विश्वास है ।५. ऊर्जा और विचार सन्चय करें । अच्छा समय पुनः आयेगा ।प्रवीण पाण्डेय

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  8. मूल पोस्‍ट और उस पर आई टिप्‍पणियों से सहज अनुमान हो रहा है कि वे सारे व्‍यवसाय, जो विदेशी ग्राहकों पर (अथवा कहें कि आउटसोर्सिंग पर) आधारित थे, वे ही मन्‍दी से सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं। इसमें आश्‍चर्य की कोई बात नहीं। ‘आउटसोर्सिंग व्‍यवसाय’ का चरित्र ही यही है। जिन कारणों से दो पैसे मिले थे या मिलते रहे थे, वे कारण ही यदि नहीं रहेंगे तो परिणाम वही होगा जो यहां बताया जा रहा है।देश के अधिसंख्‍य लोग, ऐसे व्‍यवसायों से प्रत्‍यक्षत: अधिक नहीं जुडे हैं, इसलिए न तो इस संकट की चर्चा इतनी व्‍यापकता से हो रही है और न ही इससे उपजा भय ‘आम आदमी’ को सताता लग रहा है।रही ब्‍लाग जगत की बात! तो यह दुनिया तो वैसे भी बहुत ही छोटी है। हां, इस दुनिया की सकल जनसंख्‍या में मन्‍दी से प्रभावितों का अनुपात, वास्‍तविक दुनिया की अपेक्षा अधिक है, सो इसकी चर्चा (या इसकी चर्चा न होने से उपजा अचरज) यहां तनिक अधिक हो तो यह सहज और स्‍वाभाविक ही है।विश्‍वनाथजी ने अपने आप को बचा लिया, यह उनके सुदीर्घ अनुभव, दूरदर्शिता और व्‍यावसायिक कौशल का ही परिचायक है। वे सुरक्षित निकल आए और ‘स्‍वस्‍थ-प्रसन्‍न-सकुशल’ है, यह सचमुच में सबके लिए प्रसन्‍नता की ही बात है। वे किसी अन्‍य व्‍यवसाय से जुडे होते और किन्‍हीं अन्‍य कारणों से उसमें मन्‍दी आई होती तब भी वे यही निर्णय लेते।बाजार के जो घटक ‘लाभ’ प्रदान करते हैं, उनकी अनुपस्थिति ही ‘हानि’ (अथवा कि ‘लाभ में कमी’) उपजाते हैं।प्रत्‍येक व्‍यवसाय में लाभ और हानि के घटक होते ही हैं। आउटसोर्सिंग में भी ये घटक समान रूप से उपस्थित थे। हां, यह व्‍यवसाय भारतीय सन्‍दर्भों में नया (इतना नया कि इसे अकल्‍पनीय कहा जा सकता है) था और इसमें कम समय में अत्‍यधिक (कल्‍पनातीत और अपेक्षातीत) लाभ प्रदान किया सो इसकी ओर अधिकाधि लोग आकर्षित हुए, यह भी सहज/सामान्‍य है। ऐसे समस्‍त लोग आज नकारात्‍मक रूप से प्रभावित हुए हैं तो यह भी सहज स्‍वाभाविक ही है।

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  9. फोर्ब्स की ताज़ा सूची में अरबपति लोग नीचे फिसल रहे हैं वहीं कई नाम नए भी जुड़े हैं. उनके विश्लेषण के अनुसार विश्वनाथ जी में एक नए अरब-खरबपति बन्ने की पूरी संभावनाएं छिपी हुई हैं.

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