मेरी नौकरी की डिमाण्ड रही है कि मेरा घर रेलवे के नियंत्रण कक्ष के पास हो। लिहाजा मैं दशकों रेलवे कालोनी में रहता रहा हूं और बहुत से स्थानों पर तो दफ्तर से सटा घर मुझे मिलता रहा है। आदत सी बनी रही है कि दोपहर का भोजन घर पर करता रहा हूं। यह क्रम इलाहाबाद में ही टूटा है। यहां मैं पिताजी के मकान में रहता हूं जो दफ्तर से पंद्रह किलोमीटर दूर है। सो दोपहर में घर आ कर भोजन करना सम्भव नहीं।
दफ्तर में कुछ दिन ऐसे होते हैं, जब मुझे अकेले अपने कमरे में लंच करना होता है। चपरासी प्लेट-पानी और टिफन-बॉक्स लगा देता है। और मैं काफी तेजी से लंच पूरा करता हूं।
उस दिन मैने तेजी से भोजन तो कर लिया, पर फिर रुक गया। पत्नीजी ने बड़े मन से गुझिया और मठरी साथ में भेजी थी अल्यूमीनियम फॉइल में व्रैप कर। मठरी तो स्पेशल है – चुकन्दर, धनिया और हल्दी के प्राकृतिक रंगों से बनी रंगबिरंगी मठरी।
मैं पुन: प्लेट साफ करता हूं। मठरी और गुझिया को प्लेट में रख कर फोटो लेता हूं। शान्त भाव से दुहराता हूं – “ब्रह्मार्पणम ब्रह्महवि, ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणाहुतम… ।” मैं भगवान को और अपनी पत्नी को धन्यवाद दे कर उदरस्थ करता हूं – मठरी और गुझिया।
अकेले, चुपचाप लंच का नीरस अनुष्ठान भी यज्ञ होना चाहिये, बन्धु! भले ही उसमें एक पोस्ट निचोड़ने की इच्छा निहित हो।
और यह लीजिये टिर्री का बाप; जुगाड़:
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यह वाटर-पम्पिंग के लिये प्रयुक्त डीजल इन्जन का प्रयोग करता है और बिना रजिस्ट्रेशन के वाहन के रूप में पूरे उत्तर भारत में लोकप्रिय है। कहना न होगा कि समपार फाटक (रेलवे लेवल क्रासिंग) पर बहुत सी दुर्घटनाओं का निमित्त जुगाड़ है।
यह चित्र भी हमारे अलीगढ़ के मण्डल यातायात प्रबन्धक श्री डी. मिंज के सौजन्य से है।
मेरे और निशान्त मिश्र में क्या साम्य है? शायद कुछ भी नहीं। निशान्त एक दक्ष अनुवादक लगते हैं। उनकी जेन/ताओ/सूफी/हिन्दू प्रेरक कथाओं के अनुवाद मुझे अपने मोहपाश में बांध चुके हैं। इतना सुन्दर अनुवाद — और मैं अंग्रेजी से हिन्दी बनाने के अटपटे शब्दों से उलझता रहता हूं।
मुझसे बीस साल छोटे निशान्त मुझे ईर्ष्याग्रस्त कर रहे हैं अपनी केपेबिलिटीज से। अपने बौनेपन पर केवल हाथ ही मल सकता हूं मैं! और यह आशा कर सकता हूं कि फुरसतिया इससे मौज न निचोड़ लें!


कलर फुल लंच . आप जैसे अल्पहारी के लिए , इतना तो हम लंच के बाद खाते है
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rangeen mathri bananey ki vidhi bhi likiye kripyaa ..
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ठीक कह रहे है अनुपम जी लंच का समय छाप देते तो इलाहबाद के चक्कर में किसी रोज आपको कम्पनी दे देते….ये गुंजिया क्या आल सीसन अवलेबल रहती है आपके इलाहबाद में ?
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लंच यज्ञ या यज्ञ लंच?
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एक पोस्ट निचोडने की इच्छा ही लगती है अन्यथा (आप चाहे जो समझें) अकेले भोजन करना मुझे तो किसी कठोर दण्ड से कम नहीं लगता।पता नहीं क्यों सब लोग ‘जुगाड’ पर इतना इतरा रहे हैं। मेरे कस्बे में भी थोक में उपलब्ध हैं।
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अच्छी जानकारी.बस लंच का समय और छप जाता तो अच्छा रहता.भारत तो जुगाड् से ही चल रहा है .
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सचमुच अकेले में भोजन करना बड़ा अखर जाया करता है…जुगाड़ तो एकदम लाजवाब है…
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अरे ये तो नई तरह की मठरी पता चली । रीता जी को धन्यवाद कहियेगा ।और इस तरह के जुगाड़ तो हमने खूब देखें है ।
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सरजी खाने के मामले में मैं एकैदम एकांतप्रिय हूं। पब्लिक सेक्टर खाने में खाने का पता नहीं चलता कि कित्ता खाया गया। कम या ज्यादा का पता नहीं चलता। खाने के साथ पढ़ने की बुरी लत आपको है या नहीं।
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पहले यह वाक्य : “मठरी और गुझिया को प्लेट में रख कर फोटो लेता हूं।” फिर यह : “शान्त भाव से दुहराता हूं – “ब्रह्मार्पणम ब्रह्महवि, ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणाहुतम… ।”कितना विशाल समन्वय है क्रिया के विपरीत स्वभाव का । फोटो न हुई, मंत्रोच्चार के पहले का संस्कार हो गया ।
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