पर जो भी मेहरारू दिखी, जेडगुडीय दिखी। आदमी सब हैरान परेशानश्च ही दिखे। लिहाजा जो दीखता है – वह वही होता है जिसमें मन भटकता है। आत्मा कहीं दीखती नहीं।
आत्मा के स्तर पर आरोहण सब के बस की बात नहीं। जैसे “युधिष्ठिर+५+कुकुर” चढ़े थे हिमालय पर और पंहुचे केवल फर्स्ट और लास्ट थे; वैसे ही आत्मा के स्तर पर आरोहण में फर्स्ट और लास्ट ही पंहुचते हैं। हम जैसे मध्यमार्गी सुजाता की खीर की इन्तजार ही करते रह जाते हैं।
चिरकुटों के भाग्य में न तो बिरियानी लिखी है न सुजाता की खीर। न इहलोक की मौज न बुद्धत्व। अत: आत्मा के स्तर पर आरोहण तो दिवास्वप्न है। उनके भाग्य में कोंहड़ा की तरकारी और बिना घी की रोटी ही लिखी है – रोज आफ्टर रोज! (डिस्क्लेमर – पत्नीजी पर कोई कटाक्ष इण्टेण्डेड नहीं है!)।
इष्टदेव सांकृत्यायन जी की आत्मा। प्रोफाइल में इतनी भयंकर-भयंकर किताबें ठिली हैं कि आत्मा बहुत विद्वान जान पड़ती है।इष्टदेव सांकृत्यायन जी ने कहा कि उनके ब्लॉग पर उनकी आत्मा की तस्वीर है। मैं उस आत्मा से रूबरू हो लूं। अब आत्मा की फोटू देखना एक बात है। फोटू तो ध्यानमग्न श्री कृष्ण की भी लगा रखी है मैने, पर उनका स्मरण करने में भी बहुत यत्न करना होता है। मन जो देखना चाहता है, वही देखता है। कल दिन में कनाट-प्लेस के दो-तीन चक्कर लगे होंगे चलते वाहन से। पर जो भी मेहरारू दिखी, जेडगुडीय दिखी। आदमी सब हैरान परेशानश्च ही दिखे। लिहाजा जो दीखता है – वह वही होता है जिसमें मन भटकता है। आत्मा कहीं दीखती नहीं।
खैर, आप इष्टदेव जी की आत्मा की तस्वीर निहारें। हमने तो उनसे उनकी भौतिक तस्वीर मांगी थी – जो उन्होंने बड़ी चतुराई से मना कर दी। यह तस्वीर तो बड़ी ताऊलॉजिकल है। न ताऊ का पता है, न इस आत्मा का पता चलता है। आत्मा के स्तर पर आरोहण करें तो कैसे?!
मैं सांकृत्यायन जी से मिलना चाहता था। मैं बोधिसत्त्व से भी मिलना चाहता हूं। इन लोगों की आत्मा तो क्या पहचानूंगा, उतनी काबलियत नहीं है; पर इन लोगों का व्यक्तित्व जरूर देखना चाहूंगा। यह अवश्य सम्भव है कि अगर मिलूं तो अधिकांश समय चुपचाप बैठे रहने में निकल जाये। पर मौन में भी तो सम्प्रेषण होता है। शायद बेहतर सम्प्रेषण।
(यह पोस्ट २५६२ स्वतन्त्रता सेनानी एक्स्प्रेस के डिब्बा नम्बर ४८८० में लिखी, गढ़ी और पब्लिश की गयी। आप समझ सकते हैं कि पटरी और डिब्बा, दोनो संतोषजनक हैं। अन्यथा, हिचकोले खाते सफर में यह काम कैसे हो पाता! :-)

यह अवश्य सम्भव है कि अगर मिलूं तो अधिकांश समय चुपचाप बैठे रहने में निकल जाये। पर मौन में भी तो सम्प्रेषण होता है। शायद बेहतर सम्प्रेषण। ” bhut shi khaa aapne….maun me bhi smpreshn hota hai…..lakin ye janne ki jigysa bhi kam nahi ki in tasveron ke piche kaun vyktitav hain..”Regards
LikeLike
@ चंद्रमौलेश्वर प्रसाद (cmpershad> यह अपनी आत्मा को तुरंत इस पार्थिव शरीर को त्यागने की तैयारी में है:)मुझे तो लगता है कि यह आत्मा दर्शक को आत्मलोक पंहुचाने में तत्पर दीखती है!
LikeLike
यह पढ़ कर तो कई कई भाव स्फुलिंगिया गए -किस किस को यहाँ उकेरूँ .चलिए स्थाई भाव लेता हूँ -ब्राहमण को कोहडा मिलता जाय और कुछ नही न मिले तो भी वह इस भव सागर को हँसी खुशी पार कर लेगा -मैं श्रीमती रीता पाण्डेय जी के इस सनातनी नुस्खे की हिमायत करता हूँ ! और रही सांकृत्यायन की बात तो तय जान लीजिये कि जैसी कि मेरी यह गट फीलींग है कि यह शख्श अपनी आत्मा से भी ज्यादा भयंकर हो सकता है -क्योंकि चिंतन के स्तर से यह निश्चित ही बन्रार्ड शा का अवतर लगे है -साफ़ साफ बचे ! बधाई !
LikeLike
हा!हा!हा!हा!हा!हा!हा!आत्मा की तस्वीर?हा!हा!हा!हा!
LikeLike
आपने डिब्बा पटरी सब कहा लेकिन चलती ट्रेन का डिब्बा नही कहा, जुडीगुडी और परेशान आत्माओं को कनाट प्लेस में देखकर रूके हुए डिब्बे में भी हिचकोले खाने की संभावना बनी रहती है।
LikeLike
यह बात तो दुरुस्त है पर मौन में भी तो सम्प्रेषण होता है। शायद बेहतर सम्प्रेषण। और विश्वसनीय भी! परंतु यह पोस्ट पटरी और सभी प्रकार के डिब्बे के संतोषजनक होने का प्रमाण-पत्र नहीँ। पटरी तो कॉमन है, पर आप तो विशिष्ट अधिकारी डिब्बे में ही सवार थे न? न कि जन सामान्य के डिब्बे मे! चलो बेहतर तो है ही कि आप रेल सेवाओं की गुणवत्ता परखने की नयी नयी युक्तियाँ ईजाद करते हैं।
LikeLike
कहते हैं कि चित्र बोलते है – फिर, भले ही वो ताऊलोजिकल हो या सैकोलोजिकल। इस चित्र के सैकोलोजिक विश्लेषण से यह पता चलता है कि यह अपनी आत्मा को तुरंत इस पार्थिव शरीर को त्यागने की तैयारी में है:)
LikeLike
भारतीय रेलों का प्रचार इस पोस्ट से किया जा सकता है- रेल पर चलिये ,आत्मा से जुड़िये।
LikeLike
हमारी तो आत्मा इतनी पारदर्शी है कि चित्र में आत्मा के सिवाय सारा कमरा नजर आ रहा है। सो चिपकाने का कोई लाभ नहीं।घुघूती बासूती
LikeLike
उम्दा ट्रेनीय पोस्ट
LikeLike