बाटी


अपनी प्रोबेशनरी ट्रेनिंग के दौरान अस्सी के दशक के प्रारम्भ में जब मैं धनबाद रेलवे स्टेशन से बाहर निकला था तो सुखद आश्चर्य हुआ था कि रेलवे स्टेशन के बाहर ठेलों पर बाटी चोखा मिल रहा था। यह बहुत पुरानी स्मृति है।

उसके बाद तो मैने नौकरी देश के पश्चिमी भाग में की। मालवा में बाटी-चोखा नहीं, दाल-बाफले मिलते थे सामुहिक भोजों में। साथ में लड्डू – जो आटे के खोल में मावा-चीनी आदि राख में गर्म कर बनाये जाते हैं।

Baatiमेरे दफ्तर में सामुहिक भोज के लिये राख से बाटी समेटता एक व्यक्ति।

इनकी विस्तृत विधि तो विष्णु बैरागी जी बतायेंगे।

जब मैं नौकरी के उत्तरार्ध में पूर्वांचल में पंहुचा तो छपरा स्टेशन के बाहर पुन: बाटी के दर्शन हुये। गोरखपुर में हमारे रेल नियंत्रण कक्ष के कर्मी तीन चार महीने में एक बार चोखा-दाल-बाटी का कार्यक्रम रख मुझे इस आनन्ददायक खाने में शरीक करते रहते थे।

मैने वाराणसी रेलवे स्टेशन के बाहर दो रुपये में एक बाटी और साथ में चोखा मिलते देखा। मेरे जैसा व्यक्ति जो दो-तीन बाटी में अघा जाये, उसके लिये चार-छ रुपये में एक जुआर (बार) का भोजन तो बहुत सस्ता है। कहना न होगा कि मैं इस गरीब के खाने का मुरीद हूं।

मैं यह आकलन करने का यत्न कर रहा था कि एक सामान्य व्यक्ति अपनी दैनिक २२००-२४०० कैलोरी की जरूरतें पूरी करने के लिये लगभग कितने पैसे में काम चला सकता है। यह लगा कि उसे भोजन पर लगभग ९००-१००० रुपये खर्च करने होंगे प्रति माह। उसके अनुसार हर महीने २००० रुपये कमाने वाले मजदूर लगभग हैण्ड-टू-माउथ नजर आते हैं। ये लोग राष्ट्र को ६-८% आर्थिक विकास का प्रोपल्शन दे रहे हैं और खुद पेन्यूरी (penury – घोर अभाव) में हैं।

हमारे घर में भरतलाल यदा-कदा तसले में कण्डे (गोबर के उपले) जला कर उसमें बाटी-चोखा बना लेता है (बाटी गैस तंदूर पर भी बनाई जा सकती है।)। साथ में होती है गाढ़ी अरहर की दाल। यह खाने के बाद जो महत्वपूर्ण काम करना होता है, वह है – तान कर सोना।

आपके भोजन में बाटी-चोखा यदा कदा बनने वाला व्यंजन है या नहीं? अगर नहीं तो आप महत्वपूर्ण भोज्य पदार्थ से वंचित हैं।   


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

44 thoughts on “बाटी

  1. आप जो बता रहे हैं वह मैंने शायद नहीं खाया है, हाँ अजमेर से वापस आते समय एक बार एक ढाबे पर दाल बाटी चूरमा अवश्य खाया था जो कि काफ़ी स्वादिष्ट था (देसी घी में बना था इसलिए तोंद फुलाऊ भी था) और जमकर भूख लगे होने के बावजूद आधे से अधिक नहीं खाया गया था!! :)

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  2. लिखने कुछ और ही आया था.. मगर यहां तो खाने को लेकर घमासान छिड़ा हुआ है और उसे पढ़ते हुये मैं क्या लिखना चाह रहा था वह भूल गया.. :(वैसे हम दाल बाटी चुरमा भी खाये हुये हैं और लिट्टी चोखा भी.. सत्तू तो यहां चेन्नई में मिलता नहीं है मगर हम उसे बिहार से एक्सपोर्ट कराते हैं, सिर्फ़ और सिर्फ़ लिट्टी बनाने के लिये.. :)

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  3. दाल बाटी और भुरता तो गरीबो का सस्ता भोजन है जिसे जल्दी और बिना तामझाम के बनाया जा सकता है . .दाल बाटी और भुरता का सही आनंद नर्मदा तट पर पिकनिक के दौरान मिलता है . कंडे में सिकी बाटी तो अति स्वादिष्ट होती है . वाह क्या कहने . पोस्ट पढ़कर इन्हें खाने की इच्छा होने लगी है .

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  4. मैंने तो बहुत पहले खाई थी बाटी….अगली बार जब भी मन होगा आदरणीय द्विवेदीजी के यहां पहुंच जायेंगे….उनका निमंत्रण स्‍वीकार है :)

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  5. हमने भी बाटी को लेकर दो तीन पोस्‍ट पूर्व में छाप चुकें है, हमें नही पता था कि बाटी इतनी अनोखी चीज है। पोस्‍ट के साथ साथ सामूहिक निमंत्रण भी दिया था पर कोई आया ही नही। खैर अब जिसको बाटी खाने की इच्‍छा हो वह दिसम्‍बर में तैयार रहे।

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  6. आदि के जन्मदिन पर दाल बाटी चुरमा बनवाले का सोच रहे थे पर दिल्ली में कहां से ढुढे राजस्थानी हलवाई… त्यागना पडा़ आईडिया..हमारे यहां पिकनिक/गोठ का फिक्स मिनु रहता है दाल बाटी चूरमा.. दाल क्या कहने.. मुंग दाल… थोडे़ से चने की दाल.. अदरक लहसुन का बघार… और कच्चे प्याज नींबु से साथ सर्व करना.. मुहँ में पानी आ जाये… बाटी में देशी घी इतना की सोच भी नहीं सकते.. ..

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  7. बाटी-चोखा के स्‍वाद में आपने सारे टिपियाओं को मानो ‘खाऊ’ ही साबित करके रख दिया।’चोखा’ का एक और अर्थ आपके कारण आज मालूम हो पाया। मालवा में (और सम्‍भवत: राजस्‍थान के कुछ अंचलों में भी) ‘चोखा-चांवल’ शटद-युग्‍म प्रयुक्‍त होता है जिसमें ‘चोखा’ का कोई अलग अर्थ नहीं होता।बहरहाल मुझे याद कर सम्‍मानित करने के लिए आभार।आपकी मूल चिन्‍ता ने मुझे बाटी का स्‍वाद नहीं लेने दिया। इसकी कारुणिक व्‍यंजना मैं अनुभव कर पा रहा हूं-अपने बचपन में, दरवाजे-दरवाजे, आवाज लगा कर मुट्ठी-मुट्ठी आटा मांगने वाला ही केलारी की तलाश में आपके साथ हो सकता है।

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  8. सिद्धार्थ जोशी जी के दो कमेण्ट जो ब्लॉगर के स्नेग के कारण पब्लिश नहीं हो रहे दीखते: १. दाल बाटी हो और चूरमा न हो तो वह खाना राजस्‍थानी नहीं हो सकता। दाल बाटी गरीबों का भोजन???यह तो शाही खाना है। घी में डूबी हुई बाटियों की सौंधी खुशबू और महंगे गर्म मसालों की बनी गाढ़ी दाल गरीब आदमी खा और बना क्‍या सूंघ भी नहीं सकता। उसे बदहजमी हो जाएगी।यहां बीकानेर में एक पूनरासर हनुमान मंदिर है। हनुमानजी का मंदिर पूनरासर गांव में। वहां या तो लौंडे जाते हैं या खुद को लौंडे समझने वाले अधेड़ पहुंचते हैं। आधा दिन दाल बाटी और चूरमा बनाने में गुजरता है, घण्‍टे दो घण्‍टे उसे खाने में और बाकी शाम तक तान के सोने में। मैंने भी कई बार यह पार्टी ज्‍वाइन की है। हालांकि मेरा ऐसा ग्रुप नहीं है लेकिन कुछ युवक प्रेमपूर्वक मुझे ले जाते। वहां उनके साथ काम करता और दोपहर तक कड़ाके की भूख लगती तो डटकर खाता। बेकळू यानि नर्म रेत पसरा रहता।कसम से बहुत अच्‍छे दिन याद दिला दिए…2. और हां चूरमा- बाटी जब गर्म होती है तभी उसे पहले हाथ से फिर चलनी में महीन कर लेते हैं। फिर चीनी मिलाई जाती है। कभी गुड़ भी मिलाते हैं। इस काम में घण्‍टों लगते हैं। ऐसी खुशबू आती है कि भुलाए नहीं भूलती। अभी भी मुंह में पानी आ रहा है।

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