बड़े प्यारे बकरी के बच्चे (मेमने) दिखे। यूं तो बकरी क्या, सूअर के बच्चे भी प्यारे लगते हैं। पर बकरी में एक निरीहता होती है जो हमें मन और आत्मा से ट्यून करती है।
बचपन में कहानी सुनते थे – बकरी और उसके तीन बच्चों की। बकरी बच्चों को अपने घर में टटरी (खपच्ची का दरवाजा) लगा बन्द कर चरने जाती थी। तीनों बच्चे चुलबुले थे। नाम था आल-बाल, च्यो-म्यों, गिलोट-मिलोट। शैतानी के चलते उन्होंने लोमड़ी के फुसलाने पर टटरी खोल दी थी। और फिर जाने कैसे जान बची।
भारतीय बाल कहानियां और भारतीय बाल कवितायें यहां का वैल्यू सिस्टम देते हैं बच्चों को। वे मछली का शिकार नहीं सिखाते। बल्कि बताते हैं – मछली जल की रानी है!

कुछ दिन पहले हमारे महाप्रबन्धक श्री सुदेश कुमार बता रहे थे कि अंग्रेजी नर्सरी राइम “बाबा ब्लैक शीप” असल में सम्पदा के वितरण की असलियत बताती है।
Baa, baa black sheep
Have you any wool?
Yes sir, yes sir.
Three bags full.
One for the master
and one for the dame.
And one for the little boy
who lives down the lane.
इसमें एक हिस्सा मालिक के लिये, एक हिस्सा अपने बीवी (अर्थात खुद) के लिये तय किया गया है। एक तिहाई ही गली में रहने वाले (आम जन) के लिये है। सार्वजनिक सम्पदा का यही वितरण-विधान है!
हमारे भारत में इस छाप की बाल कविता है? शायद नहीं।
खैर, आप बकरी के बच्चों की तस्वीर देखें। और अंग्रेजी बाल साहित्य को आउटराइट कण्डम न करें – एलिस इन वण्डरलैंण्ड नामक पुस्तक प्रबन्धन के कितने महत्वपूर्ण सबक सिखाती है!
भोलू पांड़े गिरे धड़ाम:
भोलू रेलवे का शुभंकर (मैस्कॉट – mascot) है। उत्तर-मध्य रेलवे के रेल सप्ताह फंक्शन में एक फूले रबर के खिलौने के रूप में वह बड़ा सा लगा था। अपने दम पर खड़ा। उस दिन गर्म लू के थपेड़े तेज चल रहे थे। भोलू पांडे धड़ाम हो गये हवा की चपेट में। चारों खाने चित! पर तत्काल एक तत्पर रेल कर्मी ने उसे उठाकर खड़ा कर दिया।
घटना से सीख – शुभंकर जो है सो है, रेलगाड़ी तो मुस्तैद रेल कर्मी ही चलाते हैं। रेलवे की मजबूती रेलकर्मियों से है।
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अपडेट: भोलू, एक हाथी को रेलवे का शुभंकर बनाया गया था रेलवे की १५०वीं वर्षगांठ के अवसर पर। यह रेलवे की तरह विशालकाय है, पर हिंसक नहीं वरन मित्रवत है। हाथी रेलवे की तरह लोगों को और सामान को ढोता है। इससे बेहतर शुभंकर क्या होता!
अंग्रेजी बाल गीतों में सचमुच वास्तविक घटनाओं के संकेत छिपे हुए हैं। कहा जाता है कि रिंगा-रिंगा-रोसेस… वाला बाल गीत यूरोप में प्लेग महामारी से संबंधित है। इसमें प्लेग की छूत लगने पर जो लक्षण प्रकट होते हैं, उनका बड़ा ही सटीक वर्णन है। इस बाल गीत का अंत इस पंक्ति से होता है … एंड ओल फोल डाउन, अर्थात सब गिर जाते हैं (यानी मर जाते हैं)। उन दिनों प्लेग लाइलाज था। उस महामारी में यूरोप की एक-तिहाई आबादी खेत रही थी।
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भोलुजी कई केला खाया उसका छिलका वहीँ गिरायाभोलू पांड़े गिरे धड़ाममुंह से निकला हाय राम 🙂 (लालाजी की जगह भोलू पांडे)
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शुभंकर (हाथी) को रेलवेवाले उठाकर सहारा देकर खड़ा कर रहे हैं। क्या धुरविरोधी गठबंधन है।
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जानवरों को सही कोण से देखा जाये तो मनुष्य को एकदम उनसे “प्रेम” हो जायगा. इसी कारण तो बच्चों की कहानियों और कार्टूनों में जानवरों को (यहां तक की चीटियों को और मेंढकों को) इतना स्थान दिया जाता है.सस्नेह — शास्त्री
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आपने हमारे छोटू की कविता यहाँ छाप दी सर जी .पर मन आज प्रफुल्लित हो गया आपकी पोस्ट पढ़ के …धिचक धिक्चक..
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विवेक सिंह – > बकरी के बच्चे अभी तक बचे हुए थे क्या आपकी कलम से ? आश्चर्यम आश्चर्यम 🙂
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बहुत अच्छी प्रस्तुति.. पोस्ट पढ़कर एक बार तो बचपन में ही पहुंच गए.. आभार
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भारतीय बाल कहानियां और भारतीय बाल कवितायें यहां का वैल्यू सिस्टम देते हैं बच्चों को। वे मछली का शिकार नहीं सिखाते। बल्कि बताते हैं – मछली जल की रानी है!क्या बात कही है आपने. संस्कार कोई सीखने सीखाने की चीज नहीं है. वो तो रिसते है बच्चों के मन के अन्दर इन्ही छोटी छोटी कहानी कविताओं के माध्यम से. वहीँ ये हमारी सांस्कृतिक पहचान भी हैं.बहुत अच्छा लिखा है शुभकामनाये.
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