हिन्दी तो मती सिखाओ जी!


हिन्दी ब्लॉगिंग जमावड़े में एक सज्जन लठ्ठ ले के पिल पड़े कि अरविन्द मिश्र जी का पावर प्वाइण्ट अंग्रेजी में बना था। मिश्रजी ने चेस्ट (chaste – संयत) हिन्दी में सुन्दर/स्तरीय/सामयिक बोला था। ऐसे में जब हिन्दी वाले यह चिरकुटई करते हैं तो मन में इमली घुल जाती है।

Arvind Mishra जुगाल-तत्व: मुझे नहीं लगता कि हिन्दी के नाम पर इस तरह बवाल करने वाले वस्तुत हिन्दी के प्रति समर्पित हैं। हंगामा खड़ा करना या बहती में बवाल काटना इनका प्रिय कर्म है। और ये लोग एक इंच भी हिन्दी को आगे बढ़ाने वाले नहीं हैं!

हिन्दी/देवनागरी में एक शब्द/वाक्य में दस हिज्जे की गलती करते ठेलिये। उच्चारण और सम्प्रेषण में भाषा से बदसलूकी करिये – सब जायज। पर द मोमेण्ट आपने रोमनागरी में कुछ लिखा तो आप रॉबर्ट क्लाइव के उत्तराधिकारी हो गये – भारत की गौरवशाली विरासत के प्लण्डरर!

साहेब, हिन्दी प्रेम वाले इसी चिरकुटई के कारण हिन्दी की हिन्दी कराये हुये हैं। काहे इतना इन्फीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स में मरे जाते हैं? काहे यह अपेक्षा करते हैं कि ब्लॉगर; जो सम्प्रेषण माध्यम की सभी सीमाओं को रबर की तरह तान कर प्रयोग करना चाहता है (आखिर पब्लिश बटन उसके पास है, किसी सम्पादक नामक जीव के पास नहीं); वह भाषा की शब्दावली-मात्रा-छन्द-हिज्जे-व्याकरण की नियमावली रूल-बुक की तरह पालन करेगा?

मैं भाषा प्रयोग में ओरीजिनल एक्स्पेरिमेण्टर कबीरदास को मानता हूं। भाषा ने जहां तक उनका साथ दिया, वे उसके साथ चले। नहीं दिया तो ठेल कर अपने शब्द या अपने रास्ते से भाषा को अनघड़ ही सही, एक नया आयाम दिया। और कोई ब्लॉगर अगर इस अर्थ में कबीरपन्थी नहीं है तो कर ले वह हिन्दी की सेवा। बाकी अपने को ब्लॉगरी का महन्त न कहे।

सो हिन्दी तो मती सिखाओ जी। हमारे पास तीन सौ शब्द नियमित ठेलने की आजादी हिन्दी के महन्तों की किरपा से नहीं है। और वह आजादी स्वत मरेगी, जब मात्र ठेलोअर (theloer – pusher) रह जायेंगे, कम्यूनिकेटर (communicator – सम्प्रेषक)  नहीं बचेंगे।

समीर लाल कह रहे थे कि जुगाली चलने वाली है। सही कह रहे थे!   


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

45 thoughts on “हिन्दी तो मती सिखाओ जी!

  1. इसमें कोई खास बात नहीं है इलाहाबाद विश्वविद्यालय परिसर में कोई समारोह हो परम्परागत रूप में हिन्दी -अंगरेजी की चर्चा हो ही जाती है ,कुछ असर ही ऐसा है इलाहाबादी पानी का .मुझे याद है की १९८६ में सीनेट हाल में हो रहे एक भव्य समारोह को जब भारत के तत्कालीन सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश महोदय अपना व्याख्यान देने को प्रस्तुत हुए तब भी यही सवाल उठा था ,इसके बाद भी वहां होनें वाले अक्सर कार्यक्रमों में इस तरह की आवाजें आती रहीं है लेकिन इसी में ही ज्ञान का भी प्रसारण होता रहा है .

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  2. सेम पिंच भाई जी. कबीरदास इसीलिए मुझे भी पसंद हैं. :)हॉल में प्रश्नों का ओपन सेशन हो, और एक भी चिरकुट न मिले जो मन में इमली घोल जाये, तब तो कार्यालय में ही मातहतों की मीटिंग ठीक रहेगी. आप भी कहाँ दिल से लगा कर बैठ गये.जुगाली के भी तो कुछ नियम और कायदे होंगे, ऐसा मैने सोचा. क्या कहते हैं आप?? :) अरे हाँ, नाती का ब्लॉग नहीं खुला अभी तक…क्या कर रहे हैं..हफ्ता होने जा रहा है. आप भी हर जगह रेल्वे ही मान लेते हैं जी. :)

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  3. माइक के उधर वाले को कुछ भी पूछने का अधिकार होता है! उन्होंने पूछा था कि यह पावर प्वाइंट अंग्रेजी में काहे बनाया? अब उन्होंने सवाल पूछा और आप इसे चिरकुटई बता रहे हैं! ये अच्छी बात नहीं है। भाषण-वाषण में इस तरह के सवाल जिनका कोई मतलब नहीं होता उछलते हैं। तदनुरूप बेमतलब के जबाब भी तुरन्त उछाल देने चाहिये। हिसाब बराबर। बकिया इमली घुल जाने वाली बात की तारीफ़ एक कनपुरिया ,सुमन्तजी, कर ही चुके तो अब उसे क्या दोहरायें लेकिन पर द मोमेण्ट आपने रोमनागरी में कुछ लिखा तो आप रॉबर्ट क्लाइव के उत्तराधिकारी हो गये – भारत की गौरवशाली विरासत के प्लण्डरर! आईनेस्ट वालों को आपके ऊपर कापी राइट का मुकदमा ठोंक देना चाहिये कि आपने उनकी भाषा और शैली दोनों चुराईं।

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  4. वहाँ सबने तत्काल यही समझा कि ये सज्जन सठियाये हुए हैं। दर‍असल वार्ता इतनी स्पष्ट और बोधगम्य थी कि बार-बार आग्रह करने पर पर भी श्रोताओं की ओर से कोई प्रश्न नहीं आ पा रहे थे। इन बुजुर्ग ने सोचा होगा कि कहीं श्रोता समुदाय को निष्क्रिय न मान लिया जाय इसलिए कुछ न कुछ तो पूछना ही चाहिए। सो उन्होंने यह हिन्दी-अंग्रेजी का शग़ूफा छोड़ दिया होगा।

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  5. अरविन्द जी की हिन्दी स्तरीय है, उनका ब्लॉग इसकी गवाही देता है । निश्चय ही कबीर की तरह भाषा की सामर्थ्य दुर्लभ है । सहमत हूँ इस बात से पूर्णतः – “हमारे पास तीन सौ शब्द नियमित ठेलने की आजादी हिन्दी के महन्तों की किरपा से नहीं है। वह आजादी स्वत मरेगी, जब मात्र ठेलोअर (theloer – pusher) रह जायेंगे, कम्यूनिकेटर (communicator – सम्प्रेषक) नहीं बचेंगे।”धन्यवाद ।

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  6. हाँ हाँ हिन्दी तो मती सिखाओ जी!बिल्खुल खुल कर सच्ची बात कही !!100% सहमत ( आखिर प्रोबबिलिटी में 100% से ऊपर क्या?)बहुत करीने से धोया आपने!!पर पता नहीं चल पाया थे कौन साहब??बकिया सुबह के चार बजे इतना वैचारिक क्रोध ठीक नहीं!!

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