वृक्षारोपण ॥ बाटी प्रकृति है


Shivanand Trees  Shivanand


पण्डित शिवानन्द दुबे

मेरे श्वसुर जी ने पौधे लगाये थे लगभग १५ वर्ष पहले। वे अब वृक्ष बन गये हैं। इस बार जब मैने देखा तो लगा कि वे धरती को स्वच्छ बनाने में अपना योगदान कर गये थे।

असल में एक व्यक्ति के पर्यावरण को योगदान को इससे आंका जाना चाहिये कि उसने अपने जीवन में कितने स्टोमैटा कोशिकाओं को पनपाया। बढ़ती कार्बन डाइ आक्साइड के जमाने में पेड़ पौधों की पत्तियों के पृष्ठ भाग में पाये जाने वाली यह कोशिकायें बहुत महत्वपूर्ण हैं। और पण्डित शिवानन्द दुबे अपने आने वाली पीढ़ियों के लिये भी पुण्य दे गये हैं।

वे नहीं हैं। उनके गये एक दशक से ऊपर हो गया। पर ये वृक्ष उनके हरे भरे हस्ताक्षर हैं! क्या वे पर्यावरणवादी थे? हां, अपनी तरह के!

खेती में उन्होने अनेक प्रकार से प्रयोग किये। उस सब के बारे में तो उनकी बिटिया जी बेहतर लिख सकती हैं।

बाटी प्रकृति है:  

Baatee टॉर्च की रोशनी बनती बाटी

इन्ही पेड़ों की छाया में रात में बाटी बनी थी। बाटी, चोखा और अरहर की दाल। भोजन में स्वाद का क्या कहना! यह अवसर तीन साल बाद मिला था। फिर जाने कब मिले।

पर यह “फिर जाने कब मिले” की सोचने लगें तो किसी भी आनन्द का खमीरीकरण हो जाये!

अमृतलाल वेगड़ जी के शब्दों में कहूं तो बाटी प्रकृति है, रोटी संस्कृति और पूड़ी विकृति! रात में खुले आसमान में सप्तर्षि तारामण्डल निहारते बाटी की प्रकृति का आनन्द लिया गया!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

35 thoughts on “वृक्षारोपण ॥ बाटी प्रकृति है

  1. अभूतपूर्व, अनुपम, अद्वितीय वृक्षारोपण अब सम्भवः-
    प्रत्येक व्यक्ति/समूह अपनी रुचियों, चिकित्सात्मक/ज्योतिषीय स्थितियों, इच्छाओं एवं उदद्ेश्यों के अनुरूप विशेषीकृत(कस्ट्माइडज़्ड) वृक्षारोपण कर सकता है अथवा विभिन्न विषयों में विषय-आधारित वन स्थापित करके अपनी भूमि पर अपनी राष्ट्रीय/वैश्विक पहचान बना सकता है, इच्छुक जनप्रतिनिधि एवं अन्य नागरिक/ग्रामीण सम्पर्क करें- सुमित (09425605432मार्गदर्शक)

    Like

  2. कृष्णमोहन मिश्र के प्रस्ताव पर गम्भीरता से सोचने की जरूरत है। मानसून की दस्तक होने को है। आम के पेड़ों पर फल लगे हुए हैं जो अब विदा लेने को हैं। सप्तर्षिमण्डल अब बादलों में छुपा करेगा। ऐसी ही किसी शाम को महफिल लग जाय। कट चाय वाले प्रस्ताव में आम्शिक संशोधन से अब अखण्ड बाटी और दाल-चोखा का आनन्द लेते हुए ब्लॉगिंग की बातें।वाह! मजा आ जाएगा। अनुमति हो तो ताजा हवाओं को खींच कर लाऊँ उधर। कार्यक्रम शहर से सटे किसी ग्रामीण वातावरण में हो, इसका जुगाड़ है।

    Like

  3. यूं तो मैं भोजनभट्ट नहीं हूं. पर लिट्टी चोखा का नाम सुनकर मेरा भी मन लटपटा जाता है. और जब अहरे पर पकी अरहर की दाल भी हो तब तो पूछना ही क्या? उहो, बगैचे में. भाई वाह! ऐश है आपका!:)

    Liked by 1 person

  4. वृक्षारोपण शब्द रूढ़ हो चुका है, लेकिन इसे पौधारोपण कहना चाहिए। शहर में जगह नहीं और देहातों में यह प्रवृत्ति ढलान पर है, टेंसन लेना नहीं चाहते । एक पौधे को जिला कर जवान बनाना तप है। थोड़ा sensitisation हो इसीलिए मैंने अपने ब्लॉग पर पौधों के बारे में लेख देना प्रारम्भ किया। लिट्टी चोखा के साथ दाल के आवश्यकता नहीं है यह भी बताइए। इससे 'प्राकृतिक' स्वाद 'सांस्कृतिक' हो जाता है, मतलब की dilute हो जाता है।यहाँ आना हमेशा एक सुखद अनुभव होता है। जैसे अपने गाँव के खलिहान के पाकड़ पेड़ों की छाया में आ गए हों।

    Liked by 1 person

आपकी टिप्पणी के लिये खांचा:

Discover more from मानसिक हलचल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Design a site like this with WordPress.com
Get started