उस शाम सीधे घाट पर जाने की बजाय हम तिरछे दूर तक चले गये। किनारे पर एक नाव रेत में औंधी पड़ी थी। मैने उसका फोटो लिया। अचानक शराब की तेज गंध आई। समझ में आ गया कि उस नाव के नीचे रखी है देसी शराब। लगा कि वहां हमारे लिये कुछ खास नहीं है। वापस आने लगे। तभी किनारे अपना जवाहिरलाल (उर्फ मंगल उर्फ सनिचरा) दिखा। उसी लुंगी में और उतना ही शैगी।
उलटी नाव, शराब और सनिचरा – मैं इनमें समीकरण तलाशने लगा। आस-पास महुआ के पेड़ नहीं हैं – बाहर देहात से ही लाना होता होगा! इनसे निर्लिप्त गंगा शान्त भाव से बह रही थीं। पंण्डित नरेन्द्र शर्मा/भूपेन हजारिका के गंगा वाले गीत में इस पक्ष का जिक्र है जी?!
गंगा के कछार की अर्थव्यवस्था मानस पटल पर आ गई। इलाहाबाद से आगे – जिगिना-गैपुरा-बिरोही-बिंध्याचल के इलाके के कछार में एक ही फसल होती है। गंगाजी की कृपा से बहुत ज्यादा मेहनत नहीं मांगती वह फसल। पर उसके अलावा रोजगार हैं नहीं। समय की इफरात। गरीबी। लोगों में दिमाग की कमी नहीं – लिहाजा खुराफाती और अपराधी दिमाग। आप यह न कहें कि मैं एक क्षेत्र की अनाधिकार आलोचना कर रहा हूं। मैं उस क्षेत्र का हूं – लिहाजा आलोचना का कुछ हक भी है।
जब श्री धीरू सिंह अपनी टिप्पणी मे कहते हैं –
हमारे यहाँ तो गंगा जी के किनारे रात में जाना बहुत वीरता का काम है।
तब समझ आता है! गंगा शठ और सज्जन – सब को सम भाव से लेती हैं।
- कल अपनी इसी लुंगी में और उघार बदन टुन्न सनिचरा उन्मत्त नाच रहा था। उसका कमर मटकाना उतना ही मस्त और उतना ही श्लील था, जितना फलानी सावन्त और ढिमाकी शकीरादेवी करती होंगी! और आपने सही अन्दाज लगाया, मुझे टिकट के पैसे नहीं खर्चने पड़े यह लाइव देखने के लिये!
- घोस्ट बस्टर जी ने कहा कि मैं फोटो कंजूस रिजॉल्यूशन की लगाता हूं। अब वह गोधूलि वाली फोटो डाक्यूमेण्ट साइज में देख लें। आइकॉन पर क्लिक कर फोटो डाउनलोड कर सकते हैं:

यह टिप्पणी बस इस पंक्ति पर objection के लिए:"उसका कमर मटकाना उतना ही मस्त और उतना ही अश्लील था, जितना फलानी सावन्त और ढिमाकी शकीरादेवी .."शकीरा के हम मुरीद हैं। उनकी शान में गुस्ताखी होने पर हम objection करेंगे।
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आप मुझे लालच दे रहे है.. गंगा को इस नज़र से देखने का..
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गंगा और दारू दोनों तारनहार!
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ये तो सब गंगा माई का असर है. शुभकामनाएं.रामराम.
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आपका गंगा प्रेम देखकर बहुत अच्छा लगता है, जब भी हम उज्जैन में होते हैं तो क्षिप्रा किनारे जरुर जाते हैं और सन्ध्या आरती में भी शामिल होते हैं।
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ऊ लाइव से ज़्यादा मस्त तो ना होगी देसीवैसे आप अभी भी कंजूसी 'दिखा' रहे :-)640 के बदले कम से कम 1000 तो होना ही चाही
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दिवस का अवसान ,हर हर गंगे ,अमृत कलश -यह संकेत है किस दुनिया के ! गंगे तव दर्शनात मुक्तिः !
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गंगा की निर्लिप्तता का कारण आपकी संवेदित दृष्टि भी तो हो सकती है …गंगा किनारे वाली ही तो करेंगे कुछ गंगा का भला भी ..यही सोच उसे निश्चिंत कर जाती होगी ..!!
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सतीश जी की टिप्पणी के बाद लगता ही नहीं कि कुछ शेष रह गया । सच में हम आपके इस चरित्र को देख लहालोट हो रहे हैं । आभार ।
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क्या कहूं- ज्ञान की गंगा या गंगा का ज्ञान
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