मैं उनकी देशज भाषा समझ रहा था, पर उनका हास्य मेरे पल्ले नहीं पड़ रहा था। पास के केवट थे वे। सवेरे के निपटान के बाद गंगा किनारे बैठे सुरती दबा रहे थे होठ के नीचे। निषादघाट पर एक किनारे बंधी नाव के पास बैठे थे। यह नाव माल्या प्वाइण्ट से देशी शराब ट्रांसपोर्ट का भी काम करती है।
वे उन्मुक्त भाव से हंस रहे थे और मैं अपनी ठुड्डी सहला रहा था – आखिर इसमें हंसने की बात क्या है? बड़ा कॉंस्टीपेटेड समझदान है हमारा – लोगों के सरल हास्य तक नहीं पंहुंच पाता। मैं उनसे बात करने का प्रयास करता हूं – यह नाव आपकी है? पहले वे चुप हो जाते हैं फिर एक जवाब देता है – नहीं, पर हमारे पास भी है, अभी झूरे (सूखे) में है। जब सब्जी होगी तो उस पार से लाने के काम आयेगी।
कब बोओगे? अभी तो गंगा उफान पर हैं?
महिन्ना भर में।
महिन्ना उनके लिये एक टेनटेटिव टाइम फ्रेम है। मैं जबरी उसे अक्तूबर के अंत से जोड़ने की बात करता हूं तो एक यूं ही जबाब देता है – हां।
जितना बोना चाहें, कोई दिक्कत नहीं। इस पार जगह कम हो तो गंगा उस पार जा कर हम ही बो लेते हैं। सबके लिये काफी जगह होगी रेत में। सब्जी बोने में रेत के बंटवारे में कोई दिक्कत नहीं। गंगा जब मिट्टी बिछा देती हैं और गेहूं बोने की बात होती है, तब जमीन बंटवारे में झगड़ा हो सकता है। इस बार वैसी कोई बात नहीं है।
अच्छा, जब बोयेंगे तब मिला जायेगा। आपके नाम क्या हैं?
अवधेश। दूसरा कहता है चिरंजीलाल।
मैं उन्हें नमस्कार कहता हूं तो वे बड़े अदब से प्रत्युत्तर देते हैं। मुझे सुखानुभूति होती है कि मैं उन लोगों से संप्रेषण कर पाया। अन्यथा सरकारी माहौल में तो मिलना ही न होता!
बघौड़ी
कुछ दूर पर गंगाजल के प्रवाह को लगता है कोई बड़ी चीज अवरोध दे रही है। हमारे निषादघाट के मित्र सनसनी में हैं। एक बंधी नाव खोलने का प्रयास करते हैं। उनमें से एक पतवार समेट कर हाथ में ले चुका है। वे बार बार उसी घुमड़ रहे जल को देखते जा रहे हैं। अचानक एक कहता है – “बघौड़िया त नाही बा हो!” (अरे बघौड़ी तो है ही नहीं!)![]()
वे नाव ले कर जाने का विचार छोड़ अपने अपने निपटान के लोटे ले घर की तरफ लौटने लगते हैं। »»
बघौड़ी क्या है? पूछने पर अवधेश बताते हैं – लोहे की होती है, नाव बांधने के काम आती है। मैं समझ जाता हूं – लंगर! उसको रेत में धंसा कर किनारे पर नाव स्थिर की जाती है। मेरा शब्द ज्ञान बढ़ता है।
वह बड़ी चीज क्या होगी? मैं कयास ही लगा सकता हूं – एक बड़ी मछली जिसे बघौड़ी को बतौर हार्पून प्रयोग कर पकड़ना चाहते हों वे लोग? या फिर भटक कर डूबी कोई नाव?
गंगा निषादघाट पर गहरी हो गयी हैं। अवधेश जी ने बताया कि उन लोगों ने घाट के बीस हाथ दूर थाह लेने की कोशिश की, पर मिली नहीं। और थाह लेने वाला बांस वास्तव में काफी लम्बा था।
अपडेट – शाम के समय हमें बघौड़ी दिख गयी। एक नाव उसी के सहारे लंगर डाले थी किनारे:

'रेत के बंटवारे में कोई दिक्कत नहीं' कहीं तो बंटवारे में दिक्कत नहीं है ! थाह लेने वाले बॉस को शायद 'लग्गी' भी कहते हैं. और अथाह के लिए भोजपुरी में 'लग्गी नहीं लगना' एक कहावत भी होती है.
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जब आपसाधारण इंसान से मुलाकात करते हैं तो भी कुछ असाधारण खोज ही लाते हैं…लंगर को बघौड़ी भी कहा जाता है …आप ही बता सकते हैं ..!!
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बहुत सुंदर लिखा आप ने, जय गंगा मईया कितनो को खाना देती है… कितनो के पाप धोती है, कितनो से पाप करवाती है…बघौड़ी,शव्द का हमे भी पता चला.धन्यवाद
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देसी भारत गंगा किनारे वाले को जानना अच्छा लगता है.
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बड़ा अच्छा लगा आप के भोर के अनुभवों को पढ़ते हुए.
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बघौड़ी, एक नया शब्द मिला। लंगर का समानार्थी। इस का विकास कैसे हुआ यह तो शायद वडनेरकर जी ही बता पाएँगे।
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Aaj post se itar kuch tippani:Maine kahin suna ya padha ki Rishikesh se Varanasi Tak cruise sewa shuru ho rahi hai.To man main vichar aaiya ki Gyandutt ji se behtar iske baare main jankari kaun de sakta hai.
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ज्ञान जी आपका संवाद बहुत ही अच्छा है और वो भी उन लोगों से जिनके पास लोग जान पसंद नहीं करते हैं, आप एक अलग ही तरीके की दुनिया से परिचित करवा रहे हैं।
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आपके कमेंट का इन्तजार किये अपनी पोस्ट पर…मगर अब उलझन देख//// मन खट्टावा सा गया.
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मुझे डर है कि किसी दिन सब मिल कर खदेड़े न आपको..कि घूमना भी मुश्किल हो जाये..बहुते अंगुल करते हो आप हर बात में…तनि देख कर भी भांपा जाये तो गहराई मिले… :)अब जरा उ इलाहाबद समेलन की रिपोत त दिजियेगा कि उ कौनो और के जिम्मे,,
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