हाँकोगे तो हाँफोगे

DSC01793 (Small) विवाह के तुरन्त बाद ही मुझे एक विशेष सलाह दी गयी:

’हाँकोगे तो हाँफोगे’

गूढ़ मन्त्र समझ में आने में समय लगता है| हर बार विचार करने में एक नया आयाम सामने आता है। कुछ मन्त्र तो सिद्ध करने में जीवन निकल जाते हैं।

praveen यह पोस्ट श्री प्रवीण पाण्डेय की बुधवासरीय अतिथि पोस्ट है। प्रवीण जी ने वरिष्ठ मण्डल वाणिज्य प्रबन्धक, बेंगळुरू (दक्षिण पश्चिम रेलवे) के रूप में नया पदभार लिया है।

अभी कुछ दिन पहले प्रशिक्षण के दौरान ग्राहक सेवा पर चर्चा हुयी। ग्राहक की अपेक्षाओं और अनुभव में जो अन्तर होता है वही असंतुष्टि का कारण बनता है। बहुत आवश्यक है कि अपेक्षाओं को सरल व मापे जाने वाला बनायें। अच्छा यह होगा कि वादों को सरल रखें। सरल रखने से न केवल आदेशों का सम्प्रेषण व क्रियान्वयन व्यवस्थित होता है अपितु ग्राहकों की अपेक्षायें भी भ्रमित नहीं होती हैं। यदि आप हाँकेंगे तो उन मानदण्डों को पाने के लिये लगातार दौड़ते रहेंगे।

घर में भी कई ग्राहक हैं जिनकी असंतुष्टि जीवन की शान्ति के लिये घातक है। उनसे भी वादे सरल रखें और निभायें, शायद विवाहोत्तर सलाह का यही आशय रहा होगा।


और यह है प्रवीण पाण्डेय की रचित ओजस्वी कविता:

DSC01802 (Small) मैं उत्कट आशावादी हूँ।

मत छोड़ समस्या बीच बढ़ो,
रुक जाओ तो, थोड़ा ठहरो,
माना प्रयत्न करने पर भी,
श्रम, साधन का निष्कर्ष नहीं,
यदि है कठोर तम, व्याप्त निशा,
कुछ नहीं सूझती पंथ दिशा ।
बन कर अंगद-पद डटा हुआ, मैं सृष्टि-कर्म प्रतिभागी हूँ।
मैं उत्कट आशावादी हूँ।।१।।

सूखे राखों के ढेरों से,
पा ऊष्मा और अँधेरों से,
पाता व्यापकता, बढ़ जाता,
दिनकर सम्मुख भी जलने का,
आवेश नहीं छोड़ा मन ने,
आँखों में ध्येय लगा रमने,
है कर्म-आग, फिर कहाँ त्याग, मैं निष्कर्षों का आदी हूँ।
मैं उत्कट आशावादी हूँ।।२।।

पत्ते टूटेंगे पेड़ों से,
निश्चय द्रुतवेग थपेड़ों से,
आहत भी आज किनारे हैं,
सब कालचक्र के मारे हैं,
क्यों चित्र यही मन में आता,
जीवन गति को ठहरा जाता,
व्यवधानों में जलता रहता, मैं दिशा-दीप का वादी हूँ।
मैं उत्कट आशावादी हूँ।।३।।

कर लो हिसाब अब, इस जग में,
क्या खोया, क्या पाया हमने,
जीवन पाया, संसाधन सब,
जल, खिली धूप, विस्तार वृहद,
यदि खोयी, कुछ मन की तृष्णा,
श्रम, समय और कोई स्वप्न घना,
हर दिन लाये जीवन-अंकुर, मैं नित प्रभात-अनुरागी हूँ।
मैं उत्कट आशावादी हूँ।।४।।

भ्रम धीरे-धीरे खा लेगा,
थकता है मन, बहका देगा,
मन-आच्छादित, नैराश्य तजो,
उठ जोर, जरा हुंकार भरो,
धरती, अम्बर के मध्य व्यक्त,
कर गये देव तुझको प्रदत्त,
मैं लगा सदा अपनी धुन में, प्रेरित छन्दों का रागी हूँ।
मैं उत्कट आशावादी हूँ।।५।।

जब किया जलधि-मंथन-प्रयत्न,
तब निकले गर्भित सभी रत्न,
हाथों में सुख की खान लिये,
अन्तरतम का सम्मान लिये,
स्वेदयुक्त सुत के आने की,
विजय-माल फिर पहनाने की,
आस मही को, क्यों न हो, मैं शाश्वत कर्म-प्रमादी हूँ।
मैं उत्कट आशावादी हूँ।।६।।

जीवन के इस चिन्तन-पथ को,
मत ठहराओ, गति रहने दो,
चलने तो दो, संवाद सतत,
यदि निकले भी निष्कर्ष पृथक,
नित चरैवेति जो कहता है,
अपने ही हृद में रहता है,
वह दीनबन्धु, संग चला झूमता, मैं बहका बैरागी हूँ।
मैं उत्कट आशावादी हूँ।।७।।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

28 thoughts on “हाँकोगे तो हाँफोगे

  1. सरलता से ही संवाद और क्रिया की सफलता निश्चित होती है। शंकर भले दार्शनिकता गढ़ें लेकिन भज गोविन्दम तो कहना ही पड़ेगा। _________निष्कर्षों का आदीकर्म प्रमादी….इतना जीवट सबमें नहीं होता बन्धु!

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  2. ’हाँकोगे तो हाँफोगे’ जी हाँ, बिल्कुल सही बात है। २३ अक्टूबर से आजतक मैं लगातार ‘पहले हाँकने और फिर हाँफने’ वालों को देख रहाँ हूँ।इसीलिए मैं बिल्कुल चुप रहा हूँ और बिना हाँफे सबको पढ़ रहा हूँ। वाह…!

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