जवाहिरलाल को दो गर्म कपड़े दिये गये। एक जैकेट और दूसरा स्वेटर।
ये देने के लिये हम इंतजार कर रहे थे। पैर के कांच लगने की तकलीफ से जवाहिरलाल लंगड़ा कर चल रहा था। दूर वैतरणी नाले के पास आता दिखा। उसे अपने नियत स्थान पर आने में देर हुई। वह सूखी पत्तियां और बेलें ले कर आया – अलाव बनाने को। उसने ईंधन जमीन पर पटका तो मेरी पत्नीजी ने उसे गर्म कपड़े देते समय स्माल टॉक की – “यह जैकेट का कलर आपकी लुंगी से मैच करता है”।
जवाहिरलाल ऐसे मुस्कराया गर्म कपड़े लेते समय, मानो आन्द्रे अगासी बिम्बलडन की शील्ड ग्रहण कर रहा हो। हमें आशा बंधी कि अब वह सर्दी में नंगे बदन नहीं घूमा करेगा।
पर अगले दिन वह आगे से बटन खुले एप्रन नुमा कोई कुरता पहने था। और उसके अगले दिन से वही नंगे बदन दिखने लगा। बस अलाव जला कर बैठता है। अलाव के कारण आस पास लोग आग तापने जम जाते हैं। पण्डाजी ने बताया कि वह ऐसे ही रहेगा – अर्धनग्न। मैं अन्दाज भर लगाता हूं कि उन जैकेट-स्वेटर डिस्पोज कर कितनी शराब पा गया होगा वह। शायद न भी डिस्पोज किया हो।
मैने अलाव के पास उसे देख उसके व्यक्तित्व पर टिप्पणी की – अघोरी लगता है।
पण्डाजी ने मानो शब्द लपक लिया। “अघोरियै तो है। पहले कभी बंगाल गया था वहां का जादू सीखने। जान गया था। तान्त्रिक बन गया था । फिर किसी और बड़े तांत्रिक ने इसका गला बांध (?) दिया। अब साफ साफ नहीं बोल पाता तो वे तान्त्रिक मन्त्र स्पष्ट उच्चारित नहीं कर सकता।”
जवाहिरलाल यह स्मित मुस्कान के साथ सुन रहा था – मानो हामी भर रहा हो।
पण्डाजी ने आगे बताया – यह खटिया पर नहीं सोता। जमीन पर इधर उधर सो जाता है। कुकुर बिलार आस पास रहते हैं। एक बार तो कोई पगलाया कुकुर बहुत जगह काटा था इस को। कोई इलाज नहीं कराया। जब मन आता है जग जाता है। कभी कभी आटा सान कर इसी अलाव में बाटी सेंक लेता है। और कभी मन न हो तो पिसान को पानी में घोर (आटा पानी में घोल) यूंही निगल जाता है।
“अघोरियै तो है। आदमियों के बीच में अघोरी।”
मैं जवाहिरलाल को यूं देखने लगा जैसे मेरे सामने कुछ अजूबा हो रहा हो। और जवाहिरलाल निर्लिप्त भाव से अलाव की आग कुरेदने लगा था। — यह एक आदमी है, हां आदमी, जिसे मैं प्रभावित करने का कोई दम्भ नहीं पाल सकता!
[अघोरी [संज्ञा पु.] (हि.) १. औघड़। अघोर मत का अनुयायी। २. घृणित व्यक्ति। सर्व भक्षी। घिनौने पदार्थों का व्यवहार करने वाला।]

ज्ञान जी,गंगाजी के किनारे ..अद्भुत सभ्यता, एक अनोखा युग हमारे समानांतर चलता रहता है…आपको पढता रहता हूं तो उस युग से परस्पर संवाद स्थापित होता रहता है…वर्ना इस पाषाण दुनिया में सब कुछ अधूरा सा मिल ही जाता है। अघोरी ..उसी युग की एक अबूझ पहेली सा लगा…और अबूझ ही अच्छा लगा …
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और लगता है.. ये बुद्धत्व को प्राप्त है…
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मुजे तो मस्त लगा जवाहरलाल.. अपने पुरखे.. (आदिम) कुछ एसे ही रहे होगें…
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शराब आदमी को अघोरी बना ही देती है …!!
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मन का मंथन करता यह मानसिक हलचल ब्लॉग ।
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फिर तो ऐसे अघोरी हिंदुस्तान में लाखों की तादाद में होंगे.शराब को छोड़ दें तो जवाहिरलाल सम्पूर्ण मिनिमलिस्ट लाइफ जी रहे हैं.
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कभी कभी दिमाग कुंद हो जाता है -कुछ समझ में ही नहीं आता की क्या लिखें !आज फिर जवाहर प्रसंग पढ़ कुछ ऐसा ही हो गया -संवेदना काठ मार गयी !
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बह्त बढ़िया कैरेक्तर लगा यह जवाहिरलाल
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जवाहिर और कोई नहीं हमारा स्वरूप ही तो है. बन्दिशों, लोकलाज और दिखावे के आवरण के कारण हम जवाहिर नहीं बन पाते वर्ना शायद —
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" आदमियों के बीच में अघोरी " || इस अघोरी में दुनिया के लिए कोई ' घोरियत ' तो नहीं दिखलायी पड़ती |
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