गति और स्थिरता

clock गति में भय है । कई लोग बहुत ही असहज हो जाते हैं यदि जीवन में घटनायें तेजी से घटने लगती हैं। हम लोग शायद यह नहीं समझ पाते कि हम कहाँ पहुँचेंगे। अज्ञात का भय ही हमें असहज कर देता है। हमें लगता है कि इतना तेज चलने से हम कहीं गिर न पड़ें। व्यवधानों का भय हमें गति में आने से रोकता रहता है। प्रकृति के सानिध्य में रहने वालों को गति सदैव भयावह लगती है क्योंकि प्रकृति में गति आने का अर्थ है कुछ न कुछ विनाश।

praveen यह पोस्ट श्री प्रवीण पाण्डेय की बुधवासरीय अतिथि पोस्ट है।

गति में रोमांच भी है। रोमांच इतना कि वह हमारी दैनिक आदतों का हिस्सा बनने लगता है। किसी मल्टीनेशनल के अधिकारी के लिये एक दिन बिना कार्य के बैठे रहना रोमांचहीनता की पराकाष्ठा है। जिन्हें लगता है कि पृथ्वी का भार उनके ऊपर है यदि वे बिना कार्य के गति विहीन हो जाते हैं तो वे अपने आपको निरर्थक मानने लगते हैं। सभी क्षेत्रों में ट्वेन्टी ट्वेन्टी की मानसिकता घुसती जा रही है। सात दिनों में सौन्दर्य प्राप्त करने वालों के लिये गति का महत्व भी है और रोमांच भी।

वहीं जीवन में यदि स्थिरता आने लगती है तो वह काटने को दौड़ती है। वह भी हमें असहज करती है। सब कुछ रुका रुका सा लगता है। विकास की कतार में हम अपने आप को अन्तिम व्यक्ति के रूप में देखने लगते हैं।

वही स्थिरता शान्ति भी देती है। उस शान्ति में जीवन की भागदौड़ से दूर हम अपने आप को ढूढ़ निकालते हैं जो कि सभी खोजों से अधिक महत्वपूर्ण है।

साइकिल चलाने वाले जानते हैं कि गति में रहेंगे तो साम्य में रहेंगे। सड़क अच्छी हो, गाड़ी दुरुस्त हो और सारथी कुशल तभी गति में आनन्द है।

मन के आयाम जीवन के आयाम बन जाते हैं। गति या तो प्रगति में पर्णित होती है या दुर्गति का कारण बनती है।

मुझे तो जीवन के महत्वपूर्ण निर्णयों के बारे में विचार घंटों चुपचाप और एकान्त बैठने के बाद आये हैं  रुककर सुस्ताने की कला हमें सीखनी पड़ेगी।


ज्ञानदत्त पाण्डेय का कथ्य: स्वामी चिन्मयानन्द हमारे विजिटिंग फेकेल्टी हुआ करते थे, बिट्स पिलानी में। उन्होने हमें एक ह्यूमैनिटीज के इलेक्टिव विषय में पढ़ाया था। उनकी एक छोटी पुस्तिका थी -  Hasten Slowly (जल्दी करो – धीरे से)। वह पुस्तक मुझे ढूंढनी पड़ेगी। पर उसकी मूल भावना यह थी कि अगर आप साधना-पथ पर तेज प्रगति करना चाहते हैं, तो व्यर्थ की गतिविधियों से नहीं, सोच विचार कर किये गये निश्चित कार्य से ही वह सम्भव है।

स्वामीजी ने हमें केनोप्निषद, भजगोविन्दम और भगवद्गीता के कई अध्याय पढ़ाये थे। जब मैने प्रवीण के उक्त आलेख को पढ़ा तो मुझे उनकी याद आ गयी। और यह भी याद आ गया कि कितने सत-पुरुषों का सम्पर्क मिल पाया है इस जीवन में।

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कल निशाचर जी ने टिप्पणी की कि उनकी नीलगाय वाली पोस्ट पर उनकी कई टिप्पणियां मिटा दी गयी हैं। मुझे भी अजीब लगा। मैने उनकी सभी टिप्पणियां पोस्ट में समाहित कर दीं। अब दो सम्भावनायें लगती हैं – किसी ने शरारतन मेरा पासवर्ड हैक किया हो। या फिर यह भी सम्भव है कि लम्बे साइज की टिप्पणियां ब्लॉगर गायब कर दे रहा हो। ब्लॉग पर जो टिप्पणियां गायब हैं, वे काफी बड़ी बड़ी थीं और जब मैने उन्हे टिप्पणी के रूप में पोस्ट करना चाहा तो एरर मैसेज मिला -  Your HTML cannot be accepted: Must be at most 4,096 characters. शायद ब्लॉगर ने पहले पब्लिश कर दिया हो और बाद में नियम बदल दिया हो। बहरहाल जो भी हो, है रहस्यमय। और यह आपसी मनमुटाव बना सकता है।  


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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