हिन्दी सेवा का प्रवचन

बड़ी थू-थू में-में हो रही है हिन्दी ब्लॉगरी में। जिसे देखो, उगल रहा है विष। गुटबाजी का यह कमाल है कि अश्लीलता का महिमामण्डन हो रहा है। व्यक्तिगत आक्षेप ब्लॉग साहित्य का अंग बन गया है। जिसको देखो, वही पोस्ट हटाने, टिप्पणी हटाने का लीगल नोटिस जेब में धर कर चल रहा है।

अगर हिन्दी ब्लॉगरी इस छुद्रता का पर्याय है तो भगवान बचाये।

ऐसे में हिन्दी ब्लॉगरी को बढ़ावा देने का श्री समीरलाल का अभियानात्मक प्रवचन (रिवीजन 15 फरवरी 23 – यह लिंक काम नहीं कर रहा है। यह सम्भवत: समीरलाल जी की वह टिप्पणी थी, जिसमें ब्लॉगिंग/टिप्पणी करने को “हिंदी भाषा की सेवा” से जोड़ा गया था) मुझे पसन्द नहीं आया। यह रेटोरिक (rhetoric) बहुत चलता है हिन्दी जगत में। और चवन्नी भर भी हिन्दी का नफा नहीं होता इससे। ठीक वैसे जैसे श्रीमद्भाग्वत के ढेरों प्रवचन भी हिन्दू जन मानस को धार्मिक नहीं बना पाये हैं। सत्यनारायण की कथा का कण्टेण्ट आजतक पता न चल पाया। इन कथाओं को सुनने जाने वाले अपनी छुद्र पंचायतगिरी में मशगूल रहते हैं।

कम से कम मैं तो हिन्दी सेवा की चक्करबाजी में नहीं पड़ता/लिखता। और मेरे जैसा, जिसका हिन्दी का सिंटेक्स-लेक्सिकॉन-ग्रामर अशुद्ध है; हिन्दी सेवा का भ्रम नहीं पालना चाहता समीरलाल के बरगलाने से।

हां, मुझे अपने लिये भी लगता है कि जब तब मीडिया, हिन्दी साहित्य या सेकुलरिज्म आदि पर उबल पड़ना मेरे अपने व्यक्तित्व का नकारात्मक पक्ष है। और नये साल से मुझे उससे बचना चाहिये। ऐसे ही नकार से बचने के लक्ष्य और लोग भी बना सकते हैं।

मुझे बहुत प्रसन्नता होगी जब लोग हिन्दी ब्लॉगरी को गुटबाजी, चिरकुटत्व, कोंडकेत्व आदि से मुक्त करने के लिये टिप्पणी-अभियान करें तो। अन्यथा तो यह सब बहुत जबरदस्त स्टिंक कर रहा है जी। सड़क किनारे के सार्वजनिक मूत्रालय सा – जहां लोग अपनी दमित वर्जनायें रिलीज कर रहे हैं और कोई मुन्सीपाल्टी नहीं जो सफाई करे मूत्रालय की। आपको गंध नहीं आ रही?

और मुझे लग रहा है कि चिठ्ठाचर्चा कुछ समय से जो घर्षण उत्पन्न कर रहा है, उसे देखते हुये उसे तात्कालिक रूप से गाड़ दिया जाना चाहिये। साथ साथ; भांति भांति की चिठ्ठाचर्चायें न हिन्दी की सेवा कर रही हैं न हिन्दी ब्लॉगरी की।
  
मुझे मालुम है कि मैं यह लिख बहुतों में कसमसाहट पैदा कर रहा हूं। पर मित्रों, इस पोस्ट पर मैं टिप्पणी आमन्त्रित नहीं कर रहा। :-) 


कल मेरे चाचाजी का गंगा किनारे दाह सांस्कार था। वहां मैने पाया कि आर्थिक रूप से असमर्थ कई हिन्दू अन्त्येष्टि के नाम पर चलताऊ कब्रें बना कर चले जाते हैं गंगा तट पर। ये कब्रें बाद में कुत्ते और जंगली जानवर चीथते हैं। क्या हम हिन्दी सेवा में असमर्थ अकेले-थकेले लोग इस तरह की ब्लॉग कब्रें बना रहे हैं?

कल देर शाम मैं श्मशान घाट से वापस आया। अपने चाचा जी के दाह-संस्कार के उपरान्त। घर आने पर कुछ एक पोस्टें देखीं तो उक्त विचार बहुत तीव्रता से उभरे। शायद मन में बहुत पहले से हों, पर श्मशान के प्रभाव नें उन्हे व्यक्त करने लायक बना दिया हो। जो भी हो, जो है, सो है। 


अपडेट –

8:00 बजे – समीर लाल जी का अनुरोध है कि मैं उनका कथ्य भी जोड़ लूं,। वह मैं करने जा रहा हूं, पर लगभग दो घण्टे इन्तजार करें – मेरी सवेरे की ट्रेन संचालन की व्यस्तता खत्म कर लूं!


यह है श्री समीरलाल से ई-मेल एक्स्चेंज:

7:11 प्रात: समीर लाल – 

चाचा जी को श्रृद्धांजलि!!
शमशान वैराग्य एवं दर्शन स्पष्टरुप से दृष्टिगोचर है.
मूत्रालय की दीवार को ही जयगुरु देव ने सबसे मुफीद जगह पाया था अपने इस संदेश के लिए: ’हम बदलेंगे, युग बदलेगा’. याद आया..आपके हमारे बचपन की बात है. :)
फूलों की वादी में फिनायल फैलाने का कोई औचित्य नहीं-ऐसा मेरा मानना है मगर युग से युग से वही होता आया है. फिनायल की जरुरत मूत्रालय को है और वो ही उससे वंचित देखा गया है तो सड़ांध स्वाभाविक है. लोग फिर आदी भी हो जाते हैं उस सड़ांध में जीने के. मेरी कोशिश मात्र उस तरह जीने की आदत को रोकने की है मगर लोग साथ न जुड़ेंगे तो मेरी एक बोतल फिनायल से क्या होगा?
फिर भी, जब तक बोतल चूकेगी नहीं, वादा है, मैं छिड़काव जारी रखूँगा.
यही मेरा प्यार है, इसमें मैं हिसाब किताब नहीं करता और न ही इतना गहरा विश्लेष्ण मुझे मेरे कृत्य से रोकता है:
मुझसे किसी ने पूछा
तुम सबको टिप्पणियाँ देते रहते हो,
तुम्हें क्या मिलता है..
मैंने हंस कर कहा:
देना लेना तो व्यापार है..
जो देकर कुछ न मांगे
वो ही तो प्यार हैं.
आईये, साथ जुड़िये..इस संदेश को विस्तार दिजिये..इसे अपने हस्ताक्षर बनाईये. कम से कम आपसे तो यह आशा कर ही सकता हूँ…
आपके गंगा सफाई अभियान की संरचना भी तो कुछ इसी तरह की सोच का नतीजा था.

7:18 ज्ञानदत्त पाण्डेय –

Thanks Sameerjee,
Nice. Will put it in post. But include something for:

मुझे बहुत प्रसन्नता होगी जब लोग हिन्दी ब्लॉगरी को गुटबाजी, चिरकुटत्व, कोंडकेत्व आदि से मुक्त करने के लिये टिप्पणी-अभियान करें तो।

Won’t you? Waiting for that input.

7:21 समीरलाल –

वो अगला कदम होगा पहले पेड तो ठीक से लगे फिर कीड़े भगाने की दवा का छिड़काव ब्बी किय जायेगा. गुड़ाई के समयकीट नाशक नहीं डाले जाते..उस समय वही उर्वरता का कारक होते है..उन्हें उसके बाद भगाया जाता है.

7:26 समीरलाल –

वैसे ज्ञान जी की इस बात से पूर्णतः सहमत हूँ कि हिन्दी ब्लॉगरी को गुटबाजी, चिरकुटत्व, कोंडकेत्व से मुक्त होना चाहिये..चिट्ठाचर्चा जैसा विराट मंच मात्र चंद लोगों के द्वारा अपने आप को सिद्ध करने के लिए अपनी महत्ता खो दे, या यूँ कहें कि खो चुका है…बहुत खेद का विषय है. यह कैसी महत्वाकांक्षा इतने विशाल अभियान में. शायद सब समझें और इस महत्ता का सम्मान करें. मात्र अपनी व्यक्तिगत कुंठाओं के निराकरण के लिए ऐसे मंचों का इस्तेमाल कब इसकी महत्ता को लौटा पायेगा, यहसोचने का विषय है.
इसमें ज्ञान जी के साथ हूँ।

7:28 समीरलाल –

जो ज्यादा लगे, एडिट कर दिजियेगा निश्चिंत हो कर..अच्छा लगेगा मुझे!! :)

7:50 ज्ञानदत्त पाण्डेय –

मैं इसे इन्हे जोड़ दूंगा – अभी सवेरे की ट्रेन संचालन की खटराग निपटलूं!
यह आशय पोस्ट पर लगा दिया है।

8:04 समीरलाल –

:) मुझमें अपराध बोध आ बैठा है कि मैने आपको तकलीफ दी..खैर, उससे मैं निपट लूंगा.आप ट्र्नों से निपटिये.!! :)


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

2 thoughts on “हिन्दी सेवा का प्रवचन

  1. ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम|
    what is the meaning of thus shaloka???

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    1. In whatever way people approach Me, even so do I reward them.

      This is a verse in the 4th chapter of Bhagwat Geeta. People of different level of learning, evolution and dedication approach the god in their own way and god assures that he interacts them accordingly. No one is denied his grace!

      Like

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