बेनामी ब्रैगिंग (bragging – डींग मारना) करते हैं। छद्म नामधारी बूंकते हैं विद्वता। कोई ऑब्स्क्योर व्यक्ति रविरतलामी को कहते हैं मरियल सा आदमी। साहस ही साहस पटा पड़ा है हिन्दी ब्लॉग जगत में। यह सियारों और कायरों की जमीन नहीं है। (हम जैसे जो हैं; वे) बेहतर है कि वे छोड़ जायें, बन्द कर लें दुकान।

सुबुक सुबुक वादी ब्लॉगिंग होती है एक छोर पर और स्पैक्ट्रम के दूसरे छोर पर है साहसवादी ब्लॉगिंग। दो छोर और जो बीच में रहे सो कायर!
साहसी लोगों के झुण्ड के झुण्ड हैं। कौन कहता है कि सिंहों के लेंहड़े नही होते। यहां आओ और देखो। ढेला उठाओ और दो शेर निकलेंगे उसके नीचे – कम से कम। साहस के लिये चरित्र फरित्र नहीं चाहिये। की-बोर्ड की ताकत चाहिये। टाइगर कागज से बनते हैं। सिंह की-बोर्ड से बनते हैं।
मैं सोचता था कि ब्लॉगिंग अपने में सतत सुधार का प्रतिबिंब है। जब आप अपने आप को दर्शाते हैं तो सतत अपना पर्सोना भी सुधारते हैं। यह – आप जो भी हैं – आपको बेहतर बनाती है। यह आपको बेहतर समय प्रबन्धन सिखाती है। यह आपको बेहतर संप्रेषण सिखाती है। यह आपका अपना कण्टेण्ट बेहतर बनाती है; संकुचित से उदार बनाती है। अन्यथा कितना साहस ठेलेंगे आप?
साहस के लिये चरित्र फरित्र नहीं चाहिये। की-बोर्ड की ताकत चाहिये। टाइगर कागज से बनते हैं। सिंह की-बोर्ड से बनते हैं।
पर मैं कितना गलत सोचता था। कितनी व्यर्थ की सोच है मेरी।
और मैं सोचता था कि मेरे कर्मचारी जब मुझसे नेतृत्व की अपेक्षा करते हैं, जब वे मेरे निर्णयों में अपनी और संस्थान की बेहतरी देखते हैं तो मुझमें नेतृत्व और निर्णय लेने के साहस की भी कुछ मात्रा देखते होंगे। पर ब्लॉगजगत की मानें तो उनका साबका एक कवर तलाशते फटीचर कायर से है। लगता है कि कितना अच्छा है कि मेरे सहकर्मी मेरा ब्लॉग नहीं पढ़ते। अन्यथा वे मेरे बारेमें पूअर इमेज बनाते या फिर हिन्दी ब्लॉगजगत के बारे में। :-)
सैड! यहां साहस की पाठशाला नहीं है। मैं साहस कहां से सीखूं डियर? कौन हैं करेज फेक्ल्टी के डीन? मुझे नहीं मालुम था कि ब्लॉग वीर लोग मुझे आइना दिखा मेरी कायरता मुझे दिखायेंगे। लेकिन क्या खूब दिखाया जी!
हर कायर (?!) अपने को टिप्पणी बन्द कर कवर करता है। या फिर एक टिप्पणी नीति से कवर करता है। मैने बहुत पहले से कर रखा है। अब तक उस नीति के आधार पर कोई टिप्पणी मुझे हटानी नहीं पड़ी (डा. अमर कुमार इसे पढ़ें – और मैने उनकी एक भी टिप्पणी नहीं हटाई है!)। पर क्या पता कोई मौका आ ही जाये। :-)
असल में यह और इस तरह की पोस्टें इण्टेलेक्चुअल बुलशिटिंग है। इन सब को पुष्ट करने वाले तत्व टिप्पणियों में है। टिल्ल से मुद्दे पर चाय के प्याले में उबाल लाना और उनपर टिप्पणियों का पुराने गोबर की तरह फूलना बुलशिटिंग है। आजकल यह ज्यादा ही होने लगा है। कब यह खत्म होगा और कब लोग संयत पोस्टें रचने लगेंगे?
यह कहना कि अंग्रेजी में भी ऐसा जम के हुआ है, आपको कोई तमगा नहीं प्रस्तावित करता। कायरता और साहस वर्तमान स्तर की हिन्दी ब्लॉग बहस से कहीं ज्यादा गम्भीर मुद्दे हैं। वे महानता, नेतृत्व और व्यक्तित्व निखार के मुद्दे हैं। वे यहां तय नहीं हो सकते। इन सब से बेहतर तो निशान्त मिश्र लिख रहे हैं हिन्दी जेन ब्लॉग में; जिसमें वास्तव में कायरता उन्मूलन और साहस जगाने वाली बातें होती हैं।
अन्यथा आप लिखते/ठेलते रहें, लोग जैकारा-थुक्कारा लगाते रहेंगे। आप ज्यादा ढीठ रहे तो बने भी रहेंगे ब्लॉगरी में, शायद सरगना के रूप में भी! पर आपके ब्लॉग की कीमत वही होगी – बुलशिट! ।
मैने पाया है कि मेरा ब्लॉग इण्टरनेट एक्प्लोरर में कायर हो जा रहा था। खुलता नहीं था। मैने इसे साहसिक बनाने के लिये टेम्प्लेट डी-नोवो बनाने का अ-कायर कार्य किया। पता नहीं, अब चलता है या नहीं इण्टरनेट एक्प्लोरर में। क्या आप बतायेंगे? मेरे कम्प्यूटर्स पर तो चल रहा है।

ये रही आपकी इस कंट्रोवर्सियल पोस्ट पर पचासवीं टिपण्णी…डा. अनुराग ने जो लिख दिया उसमें बिना कोई शब्द काटे या जोड़े वो की वो बात ही आपको कहना चाहता हूँ…मेरे मन की बात डाक्टर साहब पहले लिख गए क्या करूँ…विचलित न हों वो भी छोटी मोती बातों से…छोडिये चिंता… आर्य पुत्र उठाईये गांडीव और चलाइये तीर…फिर से.नीरज
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क्या बात हो रही है कुछ समझ नहीं आया ..शायद अल्पज्ञानी हूँ
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@ गिरिजेश राव आर्य ! यहाँ भी लॆठड़ंा – शैली :)
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क्या बात है जी, मैंने तो सिर्फ 'दो बांके' को याद किया था और देख रहा हूँ बांके ही बांके निकल रहे हैं…यानि की 'मल्टीपल बांकेस' :) गिरिजेश जी, 'दो बांके' कहानी आप ही के शहर लखनउ की है….ये अलग बात है कि आजकल 'थ्री इडियटस' का जोर है :) आपकी टिप्पणी मुझे कुछ तल्ख लग रही है लेकिन सच्चाई के करीब है। मैं इस बात से सहमत हूं कि फिजूल की केवल बतकही बढाने वाली टिप्पणीयों को प्रकाशित नहीं करना चाहिये। कुछ टिप्पणियां सिर्फ कोंचने का काम करती हैं, चोंकने का काम करती हैं, बस इससे ज्यादा उनकी अहमियत नहीं होती। लेकिन वही टिप्पणियां जब बेमतलब ही विवाद का रूप ले लेती हैं तो बकौल फुरसतिया एक तरह का चेन रिएक्शन शुरू हो जाता है और बात असल मुद्दे को छोड कुछ और ही डगर पकड लेती है। तो भईया, हम भी इस तरह की टिप्पणीयों के प्रकाशित होने पर खुश नहीं हैं, लेकिन जब बात किसी को निजी तौर पर नाखुश करने के लिये कही गई हो तो यह ब्लॉगस्वामी का भी दायित्व बनता है कि वह एसे लोगों को बेनकाब करे अन्यथा यह गंदगी और पसरेगी ही। आप जिस रास्ते जा रहे हैं, साथ मे और लोग भी हैं और कहीं रास्ते में कोई गंदगी दिख गई तो सहसा मुंह से निकल ही आयेगा…जरा बच के। बाकी तो कायर, शायर, सटायर, रिटायर सब चलते ही रहता है ब्लॉगिंग में…. 'बांके ब्लॉगिंग' इसी को कहते हैं। ब्लॉगिंग में हो रहे तमाम जूतमपैजार को देख, 'दो बांके' के कहानीकार भगवतीचरण वर्मा अपनी कहानी का सिक्वल 'बाँके ब्लॉगिंग' ही रखते :) फिलहाल यह रहा लिंक – कहानी 'दो बाँके' http://www.bhartiyapaksha.com/?p=6822
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@ अमरेन्द्र जी,महोदय, साधारण समझ और शब्द शक्तियों को ध्यान में रखते हुए एक बार मेरी टिप्पणी पुन: पढ़िए। सम्भवत: आप समझने में जल्दबाजी कर गए हैं :)
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अब बात यहाँ तक पहुँच गईरचना जीइधर जो आप कह रहीं है सुसंगत नहीं लगताखैर आप को जिसे जो कहना है कहिये पर सामूहिकउपाधि अलंकरण गलत था है और रहेगा
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रात के पौने बारह बज रहे हैं। सोचता हूँ चाय पी ही लूँ….श्रीमती जी इस वक्त तो चाय बना कर देने से रहीं…खुद ही बनाना पडेगा…..कम्बख्त ये चाय की पत्ती नहीं मिल रही….उपर से रसोई गैस लुपलुपा रही है शायद खत्म होने वाली है। सामने टीवी पर लापतागंज चल रहा है। अब ऐसे में क्या तो टिप्पणी करूँ। काफी कुछ तो सब लोग लिख ही दिये हैं। हां इतना जरूर कहूंगा कि ब्लॉगिंग में कोई बात डट कर कहने का साहस कम होता जा रहा है। जो कुछ हो रहा है वह साहस नहीं चिरकुटाहस कहा जा सकता है, किसी को धमका दो, किसी को कुछ भी बोल दो, किसी को भी आँख दिखा दो….ये सब चिरकुटाहस के लक्षण हैं। फिलहाल ब्लॉगिंग अभिव्यक्ति का माध्यम न होकर लखनउ के 'दो बांके' की याद दिला रहा है। कई दौर आते रहे हैं ब्लॉगिंग में और हर दौर जिस तरह तेजी से आता है उसी तरह चला भी जाता है। रह जाता है ब्लॉगिंग का प्लेटफॉर्मजिसपर एएच व्हीलर है, टीसी है, जेबकतरा है, कुत्ता है, खानपान स्टॉल है…..और हां कहीं कहीं पर थूक खंखार भी है। जरूरत है इस ब्लॉगिंग के प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करने की….न कि प्लेटफॉर्म पर बिस्तर लगा कर सोने की…कि हमारी गाडी (विवादों वाली) आएगी तो हम इस प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल तब करेंगे। चाय की महक आ रही है, शायद उबाल आ गया है….चलूँ :)
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केवल एक प्रश्न करना चाहूंगा कि क्या शालीनता कायरता की निशानी है?
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मैं यह सोच रहा हूँ कि आप काहे ब्लॉगिंग को ह्यूमन एलीमेन्ट के रॉटन ऑर्गन्स के उपचार का मैजिक बुलेट समझे? काहे ऐसी भूल?बाकी अनूप जी कह ही दिए हैं जो मैं कहने की सोच रिया था! :)
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……………………………………………………….चुट-पुट , चट-पट , छुट-पुट ..बातें आयीं घुट घुट !!!……………………………………………………….(पूर्वोक्त) ''पंचसूक्तिम् ध्यातव्यम् ''………………………………………………………..@ गिरिजेश राव साहेब ,,,,० आप जो कह रहे हैं , क्या वह व्यापकता को वहन करता है ?० ऐसी पोस्टें 'निजी' नहीं होतीं , इनका सम्बन्ध लोकाचार में हो रही हलचलों से होता है . ये हलचलें आपको '' सहानुभूति बटोरने की कोई आवश्यकता '' से मेल खाती दिखती हैं ? ऐसा क्यों हो रहा है ?० सामयिक दायित्व का निर्वाह रवि जी , ज्ञान जी , प्रभृति बड़े ब्लोगर नहीं करेंगे तो कौन करेगा ? 'छुईमुई ' – धर्म कहाँ से दिख रहा है ? ० इतना विजड़ित क्यों हैं आर्य ?
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