उसे गंगा किनारे देखा है। उम्र बहुत ज्यादा नहीं लगती – पच्चीस से ज्यादा न होगी। बाल काले हैं। दिमाग सरका हुआ है – पगली। एक जैकेट, अन्दर स्वेटर, नीचे सलवार-घाघरा नुमा कुछ वस्त्र पहने है। गंगा किनारे बीनती है कागज, घास फूस, लकड़ी। तट के पास एक इन्दारा (कुआं) है। उसकी जगत (चबूतरे) पर बैठकर एक माचिस निकाल जलाने का यत्न करती है। आठ दस तीलियां बरबाद होती हैं। बोलती है – माचिस पोला। हाव-भाव और बोलने के एक्सेण्ट से दक्षिण भारतीय लगती है।
एक छुट्टी के दिन कोहरा मध्य बारह बजे छटा। मैं यूं ही गंगा तट पर चला गया। इंदारे की जगत पर वह बैठी थी। आस पास चार पांच लोग बैठे, खड़े थे। उन्हे वह लय में गाना सा सुना रही थी। अपना शरीर और हाथ यूं लहरा रही थी मानो किसी पुराने युग की फिल्मी नायिका किसी सीन को फिल्मा रही हो। सुनने वाले दाद भी दे रहे थे!
उसकी आवाज दमदार और मधुर थी। जो गा रही थी – उसका मैं कोई अर्थ नहीं निकल सका। शायद तेळुगू भाषी कुछ समझ पायें। उसके गायन को आप नीचे लगाये वीडियो के माध्यम से देखें और सुनें। बहुत छोटा सा वीडियो है।
अगले दिन मेरी पत्नीजी साथ में थीं। उन्होने उससे पूछा – क्या नाम है, कहां से आई है, अपना पता मालुम है?
उसके कथन में बहुत स्पष्टता नहीं है। मम्मी, दांड़ी, आंध्रा, हैदराबाद, पासपोर्ट, केराला, भाई बुलाया जैसे शब्द बोलती है। ज्यादा पूछने पर तेज सिर झटकती है। आशय लगता है – बहुत सवाल न करो। यह जरूर बोलती है – भूख लगा।
मेरी पत्नीजी घर से चार पीस ब्रेड-मक्खन मंगवाती हैं। उसके दायें हाथ में चोट है। कुछ सूजा भी है। उसके एक पैर में मोजा है और दूसर नंगा। पहनने के लिये घर से एक जोड़ी चप्पल मंगा कर दिये जाते हैं। पास के मन्दिर की गुमटी से एक माचिस और तीन पैकेट बिस्कुट ले कर उसे देते हैं हम। मेरे द्वारा पास से फोटो लेने पर वह मेरी पत्नी से आपत्ति करती है। सो उसके चेहरे का फोटो मैं नहीं दे रहा।
मेरे गुमसुम हो जाने पर पत्नी जी कहती हैं – अब ज्यादा न सोचो। ज्यादा कुछ कर नहीं सकोगे। सो ज्यादा दिमाग में रखने का क्या लाभ? घर वापस आ जाते हैं हम।
कितना दर्द है दुनियां में। भगवान नें हमें कितना आराम से रखा है, और फिर भी हम असंतुष्ट हैं। इस पगली को देखें। कैसे आयी यहां पर, किसने किया धोखा, किसने दिया वह शॉक कि वह विक्षिप्त हो गई?
मैं एक जोर से सांस लेता हूं – बस!
पहली बार मुझे अपने शब्दों की गरीबी महसूस हो रही है। अपने भाव मैं व्यक्त नहीं कर पा रहा। रीता भी असहज हैं – उनके अनुसार यह पगली स्वप्न में भी हॉण्ट कर रही है। बहुत गहरे में ब्लॉगिंग की इनएडेक्वेसी महसूस हो रही है।
मुझे नहीं लगता कि इस पोस्ट पर टिप्पणियां पगली की दुखद दशा का कोई निदान या समाज के लिये कोई ब्ल्यू-प्रिण्ट सुझा सकती हैं। शायद यह पोस्ट मात्र देखने-पढ़ने की चीज है। यह पोस्ट आपकी सोच को प्रोवोक कर आपके ब्लॉग पर कुछ लिखवा सके तो उसकी सार्थकता होगी। अन्यथा पगली तो अपने रास्ते जायेगी। वह रास्ता क्या होगा, किसे मालुम!

…आदरणीय ज्ञानदत्त पान्डेय जी,प्रशासन में आज भी संवेदनशील लोग हैं या यों कहूं कि कम से कम मुझे तो मिले… जब भी इस तरह के सड़क पर घूमते मानसिक रोगी के मामले में मैंने स्थानीय उपजिला अधिकारी को फोन पर बताया…तुरंत कार्यवाही हुई…इसी लिये मैं अपनी टिप्पणी में यह सब लिखने का साहस जुटा पाया।
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मानसिक रोगियों के प्रति सहानुभूति ,मदद कर हम अपने मानव होने का फ़र्ज तो निभाही सकते है ,मगर आजकल ""साहिल के तमाशाई ! हर डूबने वाले पर ,//अफ़सोस तो करते हैं ,इमदाद नहीं करते !!"
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अपडेट: मैने आज स्थानीय थानेदार से मिलने और उसे इस् आशय की दरख्वास्त देने की सोची थी, जैसा प्रवीण शाह जी ने अपनी टिप्पणी में सुझाया है। मेरे मन में दरख्वास्त का खाका भी था और यह मान कर कि थानेदार अगर कुछ न करेगा तो मैं जिला सुपरिण्टेण्डेट ऑफ पोलीस को भी कहूंगा, की सोच भी थी। पर गंगा तट पर ढूंढने पर भी वह विक्षिप्ता नहीं दिखी। खैर प्रवीण शाह जी की टिप्पणी के द्वारा ज्ञानवर्धन हुआ है। बहुत धन्यवाद। भविष्य में एडमिनिस्ट्रेटिव-लीगल सिस्टम को जांचने का विचार है। यद्यपि यह सोच अवश्य है कि यह सिस्टम हेकड़ी जताने में अधिक और वास्तविक सेवा में कम संलग्न है।
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पिछली टिप्पणी में "प्रवीण जी" से मेरा अभिप्राय प्रवीण शाह से था
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पाण्डेय जी,प्रवीण जी की बात बहुत अच्छी लगी. यदि उनके साथ यह कारगर रही है तो आपके साथ भी कारगर रहने की संभावना है. उनसे बात करके कुछ और नुक्ते भी ले लीजिये. "हम अशक्त लोग…" कहकर बचना सुविधाजनक है मगर यही हमारी अधिकाँश समस्याओं की जड़ भी है. वैसे भी आप इस तरह हाथ झाड लेने वालों में शामिल नहीं रहे हैं. गीत तो मुझे एक तेलुगु धारावाहिक के मुख्गीत जैसा लग रहा है शायद "कलिसुन्दामरा" अभी घर से दूर हूँ. बाद में धर्मपत्नी को सुनाऊंगा शायद वह बता सकेंगी.
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प्रवीणजी,लगता है आपने हमें गलत समझा।हमने कुछ भी "जस्टिफ़ाई" नहीं किया था।हम केवल ज्ञानजी को सांत्वना दे रहे थे कि वह लड़की पागलपन के कारण "अचेत" है, और हम उसे देखकर जो पीड़ा अनुभव कर रहे हैं, कम से कम उस पीडा से वह मुक्त है। उसका यदि इलाज हो सकता है तो बहुत ही अच्छा।आपने कानूनी कार्यवाही बताई। इस सूचना के लिए धन्य वाद। पर हमें संदेह है कि पुलिस/न्यायालय/मैजिस्ट्रेट इसकी मदद कर सकते हैं। वे केवल इसे एक "मामला" समझकर कानूनी तरीके से "निपटा" सकते हैं। क्या इस लड़की का इलाज कर सकते हैं? मुझे लगता है कि लड़की का इलाज असफ़ल होने के कारण ही वह यहाँ पडी है। उसका परिवार भी तो होगा? जब वे कुछ नहीं कर सके तो शायद कोई समाज सेवक या धार्मिक संस्था से इस लड़की की मदद की जा सकती है। हम और ज्ञानजी जैसे साधारण व्यक्ति इन लोगों को देखकर दु:खी होने के सिवा ज्यादा कुछ नहीं कर सकते।आपकी राय प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद।जी विश्वनाथ, जे पी नगर, बेंगळूरु
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गिलहरियों का अपना महत्त्व होता है। हर कोई वीर बजरंगी नहीं हो सकता। प्रवीण शाह सही कह रहे हैं लेकिन थाने जाने की कल्पना ही कँपा जाती है।… संवेदनाएँ जीवित रहनीं चाहिए। हो सकता है पगली की मदद न कर पाएँ लेकिन इस उटपटाँग दुनिया से पगलाए ठीक ठाक लोगों की मदद को आगे आ जाएँगे -अगर संवेदना जीवित है।.. लावण्या जी की बात भी ध्यान देने योग्य है। 'सर्थकता' को 'सार्थकता' कर दीजिए। ये ध्यानरत कृष्ण हाशिए पर क्यों डाल दिए गए हैं? ….. दाहिने कर दीजिए न !
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Gyan bhai sahab & Rita bhabhi ji ,I was touched to read about this mentally disabled young girl. I hope, you help her & 1 small thing that bothered me is please follow up as to what she dis with the Match box that you gave her [ because a mentally handicapped person may set FIRE , some where, unintentionally ] Your GANGA KINARE posts should come as a BOOK — warmest rgds – Lavanya
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विश्वनाथ जी से सहमत्…… आप की संवेदनशीलता देख कर अच्छा लगा
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प्रवीण जी, यहां मैंने उस मानसिक रूप से अक्षम लडकी के जीवन के पहलू को केवल एक नजरिये से देखने की कोशिश की है। रहा सवाल कि ऐसे लोग ज्यादातर ठीक हो जाते हैं तो यह बात तो काफी हद तक सच है। मैंने खुद ही दो-तीन लोगों को एक बुरे दौर से गुजरते और फिर ठीक होकर सामान्य जिंदगी जीते देखा है। लेकिन, मामले का दूसरा पहलू यह है कि इस लडकी के लिये आप के द्वारा बताये गये विधि नियमों को पालन करना… मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना, उसे फॉलो अप रखना आदि एक सामान्य गृहस्थ के लिये काफी पेचीदगी भरा काम हो सकता है….और ऐसे मे तो और दूरूह कि जब सामान्य जिंदगीयां खुद ही जीवन की आपाधापी में चाक होती जा रही हों। आप कह सकते हैं कि फिर केवल झूठी सहानुभूति जताने की क्या आवश्यकता है…केवल कुछ खाद्य पदार्थ दे देना और हालचाल पूछ कर सहानुभूति जताना ठीक नहीं। लेकिन यहां मेरा मानना है कि इस तरह के क्रियाकलाप हमें उस इंसानियत के अंश को महसूस करवाते हैं जिसकी कि अब दिनोंदिन कमी सी होती जा रही है….करूणा…दया आदि के कुछ अंश यदि अब भी इस जमाने में हम महसूस कर पाते हैं तो इसे एक तरह का पॉजिटिव अप्रोच ही समझा जाय। बाकी तो कुछ बातें प्रैक्टिकली उतना सहज नहीं हो पातीं….आप ने इस तरह के लोगों की मदद की यह जान अच्छा लगा।
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