मैम भक्त मेमने और मैं

teacher_clipart_3 प्रवीण पाण्डेय को अपने बैंगळुरु स्थानान्तरण पर कुछ नये कार्य संभालने पड़े। बच्चों को पढ़ाना एक कार्य था। देखें, उन्होने कैसे किया। यह उनकी अतिथि पोस्ट है। 

मुझे अपना भी याद है – जब अपने बच्चे को मैने विज्ञान पढ़ाया तो बच्चे का कमेण्ट था – यह समझ में तो बेहतर आया; पर इसे ऐसे पढ़ाया नहीं जाता। मुझे भी लगा कि मैं पूर्णकालिक पढ़ा नहीं सकता था और जैसे पढ़ा रहा था, वैसे शायद कोर्स पूरा भी न होता समय पर! :-(

नयी जगह में स्थानान्तरण होने से स्थानपरक कुछ कार्य छूट जाते हैं और कुछ नये कार्य न चाहते हुये भी आपकी झोली में आ गिरते हैं। बालक और बिटिया का बीच सत्र में नये स्कूल में प्रवेश दिलाने से उन पर पढ़ाई का विशेष बोझ आ पड़ा है । इसका दोषी मुझे माना गया क्योंकि स्थानान्तरण मेरा हुआ था (यद्यपि मैनें विवाह के पले बता दिया था कि स्थानान्तरण मेरी नौकरी का अंग है, दोष नहीं)। पर वैवाहिक जीवन में बहस की विचित्र सीमायें हैं, हारने पर कम और जीतने पर हानि की अधिक संभावनायें हैं। अतः अपना ही दोष मानते हुये और सबको हुयी असुविधाओं की अतिरिक्त नैतिक जिम्मेदारी लेते हुये मैनें बालक को सारे विषय पढ़ाने का निर्णय स्वीकार कर लिया।

दोष जितना था, दण्ड उससे अधिक मिला। प्रारब्ध भी स्तब्ध। तर्क यह कि नया घर सजाने में गृहिणी को अतिरिक्त समय देना पड़ता है, अतः अधिक दण्ड भी स्वीकार कर लिया। अच्छा था कि उन्हे देश और समाज की अन्य समस्यायें याद नहीं आयीं, नहीं तो उनका भी उद्गम मेरे स्थानान्तरण से जोड़ दिया जाता। खेत रहने से अच्छा था कि खेत जोता जाये तो मैं भी बैल बन गया।

Kids
यह चित्र प्रवीण की पोस्ट से कॉण्ट्रेरियन है। गांव में अरहर के खेत के पास से गुजरते स्कूल से आते बच्चे। चलते वाहन से मोबाइल से खींचा गया चित्र। उनकी पढ़ाई कैसे होती होगी?

किताब खोली तो समझ में आया कि जिस कार्य को हम केवल अतिरिक्त समय के रूप में ले रहे थे, उसमें ज्ञान समझना और समझाना भी शामिल है। लगा कि यदि परिश्रम से कार्य को नहीं किया तो किसी भी समय आईआईटी जनित आत्मविश्वास के परखच्चे उड़ जायेंगे। यत्न से कार्यालय की मोटी मोटी फाइलों में गोता लगाने के बाद जितना मस्तिष्क शेष रहा उसे कक्षा ४ की किताबों के हवाले कर दिया। निश्चय हुआ कि पहले गृहकार्य होगा और उसके बाद पुराने पाठ्यक्रम पर दृष्टि फेरी जायेगी पर गृहकार्य होते होते दृष्टि बोझिल होने लगी।

बालक को कुछ युक्तियाँ सिखाने का प्रयास किया तो ’मैम ने तो दूसरे तरीके से बताया है और वही सिखाइये’, यह सुनकर मैमभक्त शिष्य के गर्व पर हर्ष हुआ और इस गुण के सम्मुख अपना ज्ञान तुच्छ लगने लगा। ऐसे चालीस पचास बच्चों को जो मैम आठ घंटे सम्हाल कर रखती हैं उनको और उनकी क्षमताओं को नमन। मैने किसी तरह जल्दी जल्दी प्रश्नों के उत्तर बताकर कार्य की इतिश्री कर ली।

दिन भर पूर्ण रूप से खंगाले जाने के बाद सोने चला तो पुनः मन भारी हो गया (पता नही सोने के पहले ही यह भारी क्यों होता है)। इसलिये नहीं कि दिमाग का फिचकुर निकल गया था। वरन इसलिये कि इतना प्रयास करने के बाद भी बालक के सारे प्रश्नों को विस्तार से उत्तर नहीं दे पाया। बीच बीच में उसकी उत्सुकता व उत्साह को टहला दिया या भ्रमित कर दिया। हम बच्चों को डाँट डाँट कर कितना सीमित कर देते हैं। उड़ान भरने के पहले ही अपनी सुविधा के लिये उसके कल्पनाओं के पंख कतर देते हैं। हम क्यों उनके जीवन का आकार बनाने बैठे हैं।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

16 thoughts on “मैम भक्त मेमने और मैं

  1. बच्चों को पढ़ाने के लिए अभ्यास चाहिए। अभ्यास के लिए बदली या ठीक परीक्षा का समय गलत है। अभ्यास तब भी कीजिए जब थोड़ी फुरसत खुद को ही नहीं बच्चों को भी हो।घूघूती बासूती

    Like

  2. बच्चों के अलावा थोड़े बड़ों को भी पढ़ाने में बड़ी मुश्किल आती है. वो भी जब तब आप अपने तरीके से पढ़ाना चाहें. नया अनुभव है जल्दी ही पोस्ट डालता हूँ इस पर.

    Like

  3. शायद ये सभी माँ बाप के साथ होता है वाकई पढाना बहुत मुश्किल है और आजकल के बच्चों को पढाना तो और भी मुश्किल। धन्यवाद्

    Like

  4. सचमुच बच्चो को पढाना टेढ़ी खीर है . पहले तो उनका पढ़ने के लिए मन बनाना पड़ता है …. मई परिवार में बड़ा था और मुझसे छोटे चार भाई बहिन हैं उनको को पढ़ाने की जिम्मेदारी मेरी थी . जब उनको पढ़ाने के लिए मै समय नहीं निकाल पता था तो मुझे मम्मी पापा की दन्त भी झेलना पड़ती थी . आह वे दिन जब कोचिंग का कहीं नामो निशान भी न था . वास्तव मै शिक्षक कैसे क्लास झेलते होंगे ..

    Like

  5. बच्चों के लिए एक बात तो सार्वभौम है कि मास्टर लोग ही सही होते हैं, मां-बाप का क्या है वे तो यूं ही बीच-बीच में मास्टर-मास्टर खेल लेते हैं, जब कभी समय मिल गया तो.

    Like

  6. ऐसे चालीस पचास बच्चों को जो मैम आठ घंटे सम्हाल कर रखती हैं उनको और उनकी क्षमताओं को नमन। -यह नमन जमाने पहले कर हथियार डाल चुका हूँ..दर्द समझ आसानी से आ गया.

    Like

  7. बच्चों को पढाने के मामले में मेरी भी हालत कुछ कुछ प्रवीण जीँ जैसी ही हो जाती है। ज्यादा बोझिल होने लगता हूं तो नेट पर ज्योग्राफी पढाने लगता हूँ मय ज्यॉग्राफिकल इमेज सर्च के जरिये कि टुण्ड्रा में इस तरह के पेड होते हैं, टैगा में इस तरह के। किताब में आये शब्द इमेज की शक्ल में दिखा कुछ बच्चों को बहला देता हू कुछ खुद भी बहल जाता हूँ और थोडी देर बाद फिर उनकी बोझिल किताबों में गोंजने लगता हूँ। लेकिन टुणड्रा और टैगा के चक्कर में मेरी भी कुछ जानकारी दुरूस्त हो गई है वरना क्लास में तो मेरी टीचर हमेशा एक कैलेण्डर वाला मैप ले पूरी क्लास को समझा देती थी कि ये जो वाईट एरिया है वो टुण्ड्रा है। शायद पचास बच्चों को एक साथ संभालने का राज भी यही है कि – ये जो वाईट एरिया है न…बच्चे समझें या न समझें…इनकी बला से। ऑफिस से आने के बाद यह पढाना सचमुच काफी बोझिल लगता है। अरहर के खेत के बगल से निकलते बच्चों को देख मुझे मेरे गांव के बच्चे याद आते हैं कि हम यहां शहरों में किस तरह उन्हें ठीकठाक स्कूल भेजने के लिये उनके कपडे लत्ते तैयार करते रहते हैं, जूते तैयार करते हैं, हांफते हुए टिफिन तैयार करते है और तब जाकर वह स्कूल जा पाते हैं। उधर गांव में तो कोई बच्चा पता चला कि अभी यहीं तो खेल रहा था, कहां गया..झोला नहीं दिख रहा….तब तो स्कूल गया होगा। गांव बच्चे खाते पीते खेलते हुए हाथ से मुंह पोंछते हुए स्कूल पहुंच जाते हैं। मैं इन गंवई बच्चों को ज्यादा किस्मत वाला मानता हूं जो बचपन को एंन्जॉय कर पाते हैं। शहरी बच्चे इस मामले में कम खुशकिस्मत हैं।

    Like

आपकी टिप्पणी के लिये खांचा:

Discover more from मानसिक हलचल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Design a site like this with WordPress.com
Get started