हिमालय पिघलेगा या नहीं, पचौरी जी १.६ किमी के लिये वाहन का प्रयोग कर रहे हैं, भैया आप पोस्ट-पेड़ हो या प्रि-पेड़ हो, सी एफ एल लगाइये, बिजली और पानी बहुमूल्य है, आई एम डूइंग माइ बिट व्हॉट अबाउट यू, कार्बन क्रेडिट इत्यादि।
दिनभर में ४-५ बार तो इस तथ्य से सामना हो जाता है कि कहीं न कहीं बहुत गड़बड़ है, नहीं तो टीवी चैनल पर सभी लोग ज्ञानवाचन में काहे लगे हुये हैं। चटपटे समाचार छोड़कर ’पृथ्वी को किससे खतरा है !’, इसपर २ घंटे तक दर्शकों को झिलाने वाले चर्चित समाचार चैनलों के मालिकों के हृदय में भी कहीं न कहीं पर्यावरण के बारे में टीस है। मौसम बदले न बदले पर माहौल बदल रहा है। इस विषय पर बड़े बड़े सेमिनारों में भावनात्मक व्याख्यानों से श्रोताओं को भावुक किया जा रहा है। इसी तरह के एक सेमिनार से लौटने के बाद अपने घर में स्विचबोर्ड पर हाथ लगाते समय ऐसा अनुभव हो रहा था जैसे कि कोई जघन्य अपराध करने जा रहा हूँ।
असमंजस की स्थिति में सभी हैं। कितना त्याग करें कि पृथ्वी क्रोध करना बन्द कर दे। जब इतनी दाँय मची है तो कुछ न कुछ तो करना पड़ेगा। मुझ अज्ञानी को दो तथ्य तो समझ में आ गये। पहला, बिजली बचाओ और दूसरा, पेड़ बचाओ। निश्चय किया कि एक पूरा दिन इन दो तथ्यों को जिया जाये। २४ घंटे में जहाँ तक सम्भव हो इन दोनों को बचाना है बिना जीवनचर्या को बदले हुये।
बिजली बचाने का अर्थ है कि दिन के समय का भरपूर उपयोग और रात्रि के समय को आराम। इण्टरनेट पर सूर्योदय का समय पता किया और एलार्म लगा दिया। बिना कोई लाइट जलाये प्राकृतिक प्रकाश में स्नानदि किया। बिना गीज़र के ताजे जल से स्नान में थोड़ी ठंड अवश्य लगी पर अस्तित्व चैतन्य हो गया और आलस्य भाग गया। जिस खिड़की से प्रकाश आ रहा था उसके पास बैठ कर थोड़ा स्वाध्याय किया। कॉर्डलेस फोन का उपयोग न करते हुये फिक्स्ड फोन से रेलवे की वाणिज्यिक सेहत के बारे में जानकारी ली। शेष जानकारी पेपर पर छापने की जगह ईमेल करने को कह दिया। अब प्रश्न आया कि डेक्सटॉप चलाया जाये कि विन्डो मोबाइल पर ईमेल व ब्लॉग देखा जाये। सारा कार्य विन्डो मोबाइल पर हो तो गया और डेस्कटॉप की तुलना में १% भी उर्जा व्यय नहीं हुयी पर २.८” की स्क्रीन पर असुविधा हुयी और थोड़ा समय अधिक लगा। मन हुआ कि एचटीसी के ४.३” के एचडी२ का या एपेल के १०” के आईपैड का उपयोग किया जाये पर श्रीमतीजी के आग्नेय नेत्र याद आ गये (ग्लोबल वार्मिंग तो झेली जा सकती है पर लोकल वार्मिंग कष्टकारी है)।
फ्रिज में संरक्षित भोजन को माइक्रोवेव में गरम करने की जगह अल्पाहार ताजा बनवाया और लकड़ी की डाइनिंग टेबल की जगह भूमि पर बैठकर ग्रहण किया। यद्यपि कार्यालय १ किमी की दूरी पर है पर पैदल या साइकिल पर पहुँचने से वर्षों से संचित अधिकारीतत्व घुल जाने का खतरा था अतः एक सहयोगी अधिकारी के साथ वाहन में जाकर पचौरी जी जैसी आत्मग्लानि को कम करने का प्रयास किया।
कार्यालय में चार-चार किलो की फाइलों को देखकर सुबह से अर्जित उत्साह का पलीता निकल गया। मुझे फाइलों के ढेर कटे हुये पेड़ों की तरह लग रहे थे। पर्यावरण की आत्मा इन फाइलों में कैद है। एक पत्र की पाँच प्रतिलिपियाँ देख कर जब क्रोध किया तो क्लर्क महोदय ने उपदेशात्मक उत्तर दिया कि ’सर इमर्जेन्सी में जब आवश्कता पड़ती है तो इसी से निकाल कर दे देते हैं’। इसी दूरदर्शिता ने पर्यावरण का बैण्ड बजा दिया है। चार ड्राफ्टों के बाद फाइनल किये हुये उत्तर पर अंग्रेजी अपने आप को गौरवान्वित अनुभव कर रही होगी। पत्रों की फैक्स प्रतिलिपि, एडवान्स कॉपी, मूल कॉपी व वरिष्ठ अधिकारियों के द्वारा मार्क्ड कॉपी देखकर विषय भी महत्वपूर्ण लगने लगा।
मन खट्टा था पर एक बैठक में सारे प्वाइंट मोबाइल पर ही लिखकर लगभग दो पेज बचाये और मन के खट्टेपन को कम करने का प्रयास किया।
सायं प्रकाश रहते कार्यालय छोड़ दिया। सोने के पहले घर पर शेष तीन घंटे यथासम्भव बिजली बचाने का प्रयास किया और बच्चों को इस बारे में ज्ञान भी दिया।
चलिये अब सोने चलता हूँ। कल कार्बन क्रेडिट की माँग करूँगा।
दफ्तर से वापस लौटते समय सोचा कि कल प्रवीण की पोस्ट पब्लिश करनी है। वाहन में अकेले लौट रहा हूं घर। लगन का मौसम है। कई जगहों पर बिजली की जगमगाहट की गई है। एक जगह वीडियो उतारा जा रहा था दूल्हे का। औरतें परछन कर रही थीं। कितना ज्यादा प्रयोग होता है बिजली का!
वैदिक काल में शायद दिन में होता रहा होगा पाणिग्रहण संस्कार। अब भी वैसा प्रारम्भ होना चाहिये। दाम्पत्य का प्रारम्भ कुछ कार्बन क्रेडिट से तो हो!

विषय को गहराई में जाकर देखा गया है और इसकी गंभीरता और चिंता को आगे बढ़या गया है। यह रचना — — समस्या के विभिन्न पक्षों पर गंभीरती से विचार करते हुए कहीं न कहीं यह आभास भी कराती है कि अब सब कुछ बदल रहा है। लेखक ने शुरुआत कर दी है, समर्थक भी करेंगे। मैं कुछ अलग भी करता हूँ। घर की खिड़कियों – दरवाज़ों पर पर्दा ही नहीं लगाता इससे दिन भर रोशनी का अभाव नहीं रहता। अब आप कुटिल मुस्कान न दें, मेरा घर टॉप फ्लोर (10वें)पर है। मच्छर को भी लिफ्ट से आना पड़ता है। दफ़्तर के भी पर्दे खुले रहते हैं। बत्तियाँ ऑफ। बांक़ी कंप्यूटर और मोबाइल वाला प्रयोग न कर पाऊँगा। हां टिप्पणियाँ देना कम कर देने वाला सुझाव माना जा सकता है (ये मैं पंक्तियों के मध्य पढ़ रहा हूँ)।कुछ पंच लाइन संक्रामक/इनफेक्शस हैं1. स्विचबोर्ड पर हाथ लगाते समय ऐसा अनुभव हो रहा था जैसे कि कोई जघन्य अपराध करने जा रहा हूँ। 2. बिजली बचाने का अर्थ है कि दिन के समय का भरपूर उपयोग और रात्रि के समय को आराम।3. डाइनिंग टेबल की जगह भूमि पर बैठकर ग्रहण किया।4. मुझे फाइलों के ढेर कटे हुये पेड़ों की तरह लग रहे थे। पर्यावरण की आत्मा इन फाइलों में कैद है। 5. श्रीमतीजी के आग्नेय नेत्र याद आ गये (ग्लोबल वार्मिंग तो झेली जा सकती है पर लोकल वार्मिंग कष्टकारी है)।6. दाम्पत्य का प्रारम्भ कुछ कार्बन क्रेडिट से तो हो!
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ऑफिस में यूज एन्ड थ्रो वाले थर्माकोल के कप पानी या चाय पीने के लिये रखे रहते हैं। कभी कभी एकाध लीक कर जाता है। सो भाई लोग दो दो खाली कप एक के अंदर एक ठूंसकर बैठाते हैं और तब उसमें चाय लेते हैं, इस आशंका में कि एक कप लीक हो तो दूसरा तो है ही उसे थामने के लिये। इस आशंका के चलते ही नाहक एक कप वेस्ट हो जाता है। 'आशंका' बहन,अब तुम क्यो पर्यावरण को नुकसान पहुंचवा रही हो। आपका भाई 'यथार्थ' तो पहले ही पर्यावरण की वाट लगा चुका है :)
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अपने भर इतना भी हर आदमी यदि कर ले अपने दिनचर्या में तो कम नहीं होगा…बूँद बूँद से घड़ा भरता है,यह केवल कहावत नहीं… साधुवाद,इस सोच को व्यापकता देने के लिए…
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hamari convenience hi hamari band baja rahi hai…aur hame khabar hi nahi hai
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बड़ी उपयोगी पोस्ट | संकल्प तो यही होना चाहिए |जन-जन सुधरे तभी श्रेष्ठ संकल्प पूर्ण होते है | आभार !
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कल मेरे दोस्त ने कहा 'जिंदगी भर जिस बात को लेकर गाली देते रहो और एक दिन खुद वही करो… इससे बुरा क्या हो सकता है !' ये बात पाणिग्रहण संस्कार से ही सम्बंधित थी. अब ऐसे लोगों से दोस्ती और ऐसे ब्लॉग के पाठक ! तो फिर बुराई से बचना तो पड़ेगा ही.
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देखा बार बार कहने से असर तो होता है. लोग नाहक कहते है धरती को बचाने के विज्ञापन ढकोसला है.
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आपने तो फिर भी मोबाइल पर अपनी समस्या का समाधान कर लिया.. मगर लोग अक्सर पेपरलेस ऑफिस की बात करते हैं और मुझे उसमे पर्यावरण की अधिक क्षति दिखती है.. एक तो उर्जा अधिक नष्ट होता है और दूसरा जिस मशीन पर हम अपना काम करते हैं उसमे किस किस तरह के पार्ट्स लगते हैं यह कौन नहीं जानता है??
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दिनभर में ४-५ बार तो इस तथ्य से सामना हो जाता है कि कहीं न कहीं बहुत गड़बड़ है, नहीं तो टीवी चैनल पर सभी लोग ज्ञानवाचन में काहे लगे हुये हैं। चटपटे समाचार छोड़कर ’पृथ्वी को किससे खतरा है !’…यह केवल निजी चैनलों की देन है कि प्रलय आने वाली है,बाकी हमारे प्रिय दूरदर्शन पर तो सदैव खमोशी ही है..
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हम भी यही कोशिश कर रहे हैं, पर क्या अकेला चना भाड़ फ़ोड़ सकता है, अगर किसी को बोलने की कोशिश भी करो तो उसी क्लर्क जैसा कोई उत्तर मिल जाता है।यह भी हो सकता है कि लोगों को समझाना एक कला है और वह कला हमें पता ही न हो :)
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