सदियों से कागज, सभ्यताओं के विकास का वाहक बना हुआ है । विचारों के आदान-प्रदान में व सूचनाओं के संवहन में कागज एक सशक्त माध्यम रहा है। समाचार पत्र, पुस्तकें, पत्रिकायें और ग्रन्थ किसी भी सभ्य समाज के आभूषण समझे जाते हैं। यही कारण है कि किसी देश में प्रति व्यक्ति कागज का उपयोग उस देश की साक्षरता दर का प्रतीक है। साक्षरता की पंक्ति में 105 वें स्थान पर खड़े अपने देश में यह उपयोग 7 किलो प्रति व्यक्ति है, वैश्विक औसत 70 किलो व अमेरिका का आँकड़ा 350 किलो है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार साक्षरता व संचार की समस्त आवश्यकताओं की संपूर्ति के लिये यह आँकड़ा 30-40 किलो होना चाहिये।
मेरे वाणिज्यिक नियन्त्रक बाला जी ने कार्बन क्रेडिट पर ब्लॉग-पोस्ट को अंग्रेजी में अनुवाद कर के पढ़ा और तब गणना करके यह बताया कि हम सब अपने नियंत्रण कक्ष की गतिविधियों में 37 वृक्ष तो केवल Morning Position के लिये ही काट डालते हैं । यद्यपि मैं अपनी Morning Position तो पहले ही बन्द कर चुका था पर सन्तोष नहीं हुआ और सप्ताहान्त में इण्टरनेट खंगाला । तथ्य आते गये, पोस्ट बनती गयी। पता नहीं कि विषय को समेट पाया हूँ कि नहीं ।
प्रवीण के अनुसार उनके रेल मण्डल में लगभग १००७ पेज कागज विभिन्न शाखाओं की सवेरे की पोजीशन बनाने में लग जाते हैं। अर्थात ३६७५५५ कागज प्रतिवर्ष। इसमें दस प्रतिशत बरबादी जोड़ लें और यह मान कर चलें कि १७ पेड़ लगते हैं एक टन कागज बनाने को (या यूं समझें कि एक पेड़ से ११३०० कागज की शीटें); तो साल भर की जरूरत में बीस साल की उम्र के सैतीस पेड़ लग जाते हैं!
देश में साक्षरता और उसकी गुणवत्ता को विकसित देशों के समतुल्य लाने के लिये कागज चाहिये। कागज के लिये पेड़ों की बलि। पेड़ों की बलि से पर्यावरण का विनाश और अन्ततः सभ्यताओं का पतन। विकास से पतन की इस कहानी से प्रथम दृष्ट्या मैं भी असहमत था पर तथ्यों को खंगालने पर जो सामने आया, वह प्रस्तुत है।
1 टन कागज के लिये 17 वयस्क (20 वर्ष से बड़े) पेड़ काटने पड़ते हैं। कहने के लिये तो कागज उत्पादन का एक तिहाई ही नये पेड़ों से आता है पर शेष दो तिहाई के लिये जो पुनरावर्तित (Recycled) कागज व पेड़ों के अवशिष्ट (Residues) का उपयोग होता है उनका भी मूल स्रोत पेड़ ही हैं। इस दृष्टि से अमेरिका में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 5 वृक्ष लगाये जाते हैं जो कि उनके कागज के उपयोग के अनुरूप है। भारत में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष यदि 1 वृक्ष ही लगाये तब भी हम केवल अपनी कागजीय आवश्यकताओं की ही पूर्ति कर पायेंगे। अन्य कार्यों के लिये कितने वृक्ष और लगाने पड़ेंगे उसके लिये न तो आँकड़े उपलब्ध है और न ही इस पर किसी स्तर पर विचार ही होता होगा।
पिछले 3 वर्षों में UNEP के कार्यक्रम के अन्तर्गत भारत में 2.5 अरब वृक्ष लगे और इस उपलब्धि पर हम इतराये फिरते हैं। इसमें कितने कागजी हैं यह कह पाना कठिन है पर पिछले 3 वर्षों में उत्तर प्रदेश के सरकारी कर्मचारी कई बार अपनी नौकरी बचाने के लिये दिन रात पेड़ गिनते फिर रहे थे। आँकड़े सत्य मान लेने पर भी प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष तीन चौथाई पेड़ भी नहीं हुआ। पेड़ बहुत तेजी से कट रहे हैं, आगे आने वाली पीढ़ी जी सकी तो और पेड़ लगा लेगी। सबका रोल तो कट कर निकलने तक रह गया है क्योंकि बात करेंगे तो पकड़े जायेंगे।
देश के बारे में देश के भाग्यविधाता समझें, मैं अपने परिवेश में झाँक कर देखता हूँ। रेलवे में प्रतिदिन सुबह सुबह morning position देखने का उपक्रम होता है । इसमें पिछले दिन की सारी सूचनायें व आने वाले दिन की योजना रहती है। केवल बंगलुरु मंडल में, इस कार्य के लिये वर्षभर में 37 पेड़ काट डाले जाते हैं। अपने अपने कार्यालयों में देखें तो ऐसे सैकड़ों पेड़ों की शव यात्रा में हम प्रत्यक्ष रूप से सम्मलित हैं। फाईलों आदि का भार नापें तो पता चलेगा कि आपकी मेज से प्रतिदिन दो कटे पेड़ गुजर जाते होंगे। भारी भारी फाईलें हमारे पर्यावरणीय दायित्वों के सम्मुख ठहाका मारती हुयी प्रतीत होती हैं।
उपाय 10% या 20% बचत करने में नहीं, हमें अपने कार्य करने की पद्धतियों में आमूलचूल परिवर्तन करना पड़ेगा। सक्षम और समर्थ कागज का उपयोग जितना चाहे बढ़ा सकते हैं और जितना चाहे घटा भी सकते हैं । आधुनिक संचार माध्यमों व सूचना क्रान्ति का उपयोग कर हम कागज को उन गरीबों को साक्षर बनाने के लिये बचा सकते हैं जो चाह कर भी कम्प्यूटर और मोबाइल नहीं खरीद सकते हैं।
निर्णय कीजिये कि अपनी कार्यप्रणाली बदलनी है या निर्धनों को शाश्वत निरक्षर रखना है या शिक्षार्थ पर्यावरण की बलि देनी है। भविष्य आपको मनमानी कर लेने देगा, वह समय बहुत पहले ही निकल चुका है।
जैसा गंगा विषयक लिखने का मुझे पैशन हो गया है, वैसा प्रवीण को पर्यावरण/कागज/बिजली का प्रयोग आदि पर पोस्ट गेरने का पैशन हो गया है।
मजेदार है – यह पैशनवा (जिसे साहित्यकार लोग जुनून बोलते हैं) ही ब्लॉगिंग की जान है।
लोग कह सकते हैं कि प्रवीण मुझसे बेहतर लिखते हैं। ऐसे में मुझे क्या करना चाहिये? जान-बूझ कर उनकी पोस्ट में घुचुड़-मुचुड़ कर कुछ खराब कर देना चाहिये। सलाह वाण्टेड।

Gyan ji, Nice post !Kindly let us know the useful tips for saving paper, apart from using computer.
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सार्थक लेखन
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हम आजकल कागज का प्रयोग बिल्कुल ही नहीं कर रहे हैं। जो भी लिखते हैं इस कम्प्यूटर पर ही लिखते हैं। साहित्य भेजने के लिए भी ई.मेल का ही प्रयोग करते हैं।
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बाँस का उपयोग बढ़ने से भी लाभ होगा. बाँस तेजी से उगते है. कागज के कितने अनुकुल है पता नहीं. आजकल फैशन के चलते ही सही ऑफिस में कागज का उपयोग बहुत कम हो गया है. मुझे अच्छा लग रहा है. :)
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vikalp bahut seemit hain. ya to hum aadat badal len ya khud ke bure dinon ke zaldi aane ka rasta taiyar karen. aapke aur praveen jaise passion sabko hon.
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आज तो इस आलेख का नशा छा गया है मुझ पर. ट्विटर,फेसबुक,बज़ सब पे शेयर किया है इसे. प्रवीण जी..आंकड़ों का क्या मोहक और उपयोगी प्रयोग किया है आपने..! ऊपर वडनेरकर जी के शब्द और अरविन्द जी के शब्द भी मेरी टिप्पणी में जोड़ लीजिए. शानदार और संवेदनशील लेखन. उत्कृष्ट लेखन की यह परिपाटी तो ज्ञानदत्त जी ने ही शुरू किया है..प्रवीण जी इसमें चार-चाँद लगा रहे हैं….! कितनी जरूरी है ये पोस्ट…और कितनी आकर्षक और महत्वपूर्ण भी…! आप दोनों जनों को बधाई और आभारी हूँ…इस पोस्ट को बारम्बार पढकर..!
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हम मनुष्य धरती पर हर वस्तु कम कर रहे हैं सिर्फ अपने सिवा। न जाने कहाँ रुकेगा यह सिलसिला?
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आज कल मोबाइल का इस्तेमाल बहुत हो रहा है और प्रचारित किया जा रहा है की ये कागज को बचाता है पर इसका एक स्याह पहलू है कि इनसे निकलने वाली किरणे चिडियों को ख़त्म कर रही है और वृक्षों के पनपने में पक्षियों की विशेष भूमिका है. सच तो ये है कि विकास का हर कदम पर्यावरण को नुकसान पंहुचा रहा है.
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Gyan ji,One of my Professor has this signature in his email.."No trees were killed in the sending of this message. However, a large number of electrons were terribly inconvenienced"
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हमारे ऑफिस में कागजों का कम से कम इस्तेमाल होता है.. शुरू में जब बॉस मोबाइल के बिल के पीछे प्रिंट ले लेते थे तो हम उन्हें कंजूस कहते थे.. बाद में उनसे जाना कि वे कागज़ बचा रहे है.. पर्यावरण की रक्षा के लिए.. बस तभी से हमने भी प्रेरणा ले ली.. कागजों का कम से कम इस्तेमाल करने के लिए..ब्लॉग्गिंग की जान वाकई एक पेशन है.. वैसे गंगा को एक बार इलाहबाद से देखने की तलब भी आप ही के ब्लॉग से लगी है..और हाँ सलाह वांटेड पर हम यही कहेंगे कि एक साझा ब्लॉग शुरू करवा दीजिये.. आप तो इस मामले में अनुभवी है.. :)
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