जीवन की त्रासदी क्या है?

मेरे जीवन की त्रासदी यह नहीं है कि मैं बेइमान या कुटिल हूं। मेरी त्रासदी यह भी नहीं है कि मैं जानबूझ कर आसुरी सम्पद अपने में विकसित करना चाहता हूं। मेरी त्रासदी यह है कि मैं सही आचार-विचार-व्यवहार जानता हूं, पर फिर भी वह सब नहीं करता जो करना चाहिये।

मुझे मालुम है कि ईर्ष्या विनाश का कारण है। मैं फिर भी ईर्ष्या करता हूं। मुझे यह ज्ञात है कि आसुरी सम्पद का एक भाव भी अन्य सभी को मेरे में जगह दिला देता है। मसलन यह हो ही नहीं सकता कि मैं काम और क्रोध से ग्रस्त होऊं, पर मुझमे ईर्ष्या न हो। या मुझमें ईर्ष्या हो, पर काम-क्रोध-मोह-लोभ आदि न हो। आसुरी सम्पद पूरे लॉट में मिलती है। आप फुटकर में भी लें तो पूरा का पूरा कन्साइनमेण्ट आपको मिलना ही है।

मुझे मालुम है कि गलत क्या है। फिर भी मेरे कोई प्रयास नहीं होते – मैं उनसे दूर होने का कोई यत्न नहीं करता – अथवा करता भी हूं, तो आधे मन से। यह त्रासदी नहीं तो क्या है?

इसी तरह मुझे मालुम है कि सही क्या है और मेरे आत्मिक विकास में क्या सहायक है। पर वह करने का कोई सार्थक और सधा हुआ प्रयास नहीं करता। मैं इधर उधर की गतिविधियों में अपनी ऊर्जा का क्षरण करता हूं। ईश्वर से मुझे मानव जन्म, उच्च कुल, विद्या और धन की पर्याप्त उपलब्धता और पर्याप्त अभाव मिले हैं। इससे अधिक कृपा क्या हो सकती है। पर मैं अपना जीवन मुठ्ठी में से झरते रेत की भांति क्षरित होते देखता हूं। इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है।

मेरे जीवन की त्रासदी यह नहीं है कि मैं बेइमान या कुटिल हूं। मेरी त्रासदी यह भी नहीं है कि मैं जानबूझ कर आसुरी सम्पद अपने में विकसित करना चाहता हूं। मेरी त्रासदी यह है कि मैं सही आचार-विचार-व्यवहार जानता हूं, पर फिर भी वह सब नहीं करता जो करना चाहिये।

इस दशा में इस बात से कोई ढाढ़स नहीं मिलता कि लाखों करोड़ों मुझ जैसे हैं।

जो समझ में आता है – और हाथ की लकीरों सा साफ साफ दीखता है; कि मैं कहीं कमजोर प्राणी हूं। पर्याप्त इच्छा शक्ति की कमी है मुझमें।

कहां मिलती है इच्छा शक्ति मित्र?   


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

34 thoughts on “जीवन की त्रासदी क्या है?

  1. आपको क्‍या कहें। आपकी दशा कुछ ऐसी है -नासहा मुझको न समण्झा, जी मेरा घबराय है।मैं उसे समझूँ हूँ दुश्‍मन, जो मुझे समझसय है।फिर भी कहने से रोक पाना मुश्किल हो रहा है -है वही मुश्किल, जिसे इन्‍सान मुश्किल मान ले,मन के जीते जीत है, मन के हारे हार है।

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  2. @अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी "बंधुवर मंत्र और शेर में बड़ा अंतर होता है .. मंत्र के अर्थ में बेहतर होता कि गायत्री की सूर्य – शक्ति की इन्गति होती .."यहाँ मेरा अर्थ किसी ऊर्जापूर्ण वाक्य से था.. जब भी मुझे ऊर्जा की जरूरत हुई है मुझे हमेशा इस शेर ने ऊर्जा से ओतप्रोत किया है सो मेरे लिए तो यही मंत्र है.. मंत्र का लिटरल मीनिंग यही होता होगा, शायद.. आपकी बाकी बातो से सहमत… ज्ञान जी को इच्छा शक्ति ढूंढते देखा तो लगा कि वो सब कुछ बता दूं जो मेरे कभी काम आया है|आजकल हवा में उदासियाँ छायी है, मुझे लगा कि आज मुझे मेरा हीरो पुकार रहा है इसलिए हो सकता है जल्दिया गए हो.. :) बाकी आप भी इस मंत्र को इस्तेमाल में लाये और मैं गायत्री मंत्र को ट्राई मारता हूँ.. :)शुभ रात्रि !!

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  3. पर मैं अपना जीवन मुठ्ठी में से झरते रेत की भांति क्षरित होते देखता हूं। इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है।रेत सा झरता जीवन त्रासदी?सिर्फ़ इस लिए कि मानव जन्म, उच्च कुल, विद्या और धन की पर्याप्त उपलब्धता और पर्याप्त अभाव मिले हैं। मतलब अगर ये सब न होता तो जीवन का रेत सा झरना ठीक था?त्रासदी ये नहीं कि आप कमजोर प्राणी हैँ( आप का अपना आंकलन), त्रासदी ये है कि आप अब भी खुद को अपनी समस्त ताकतों और कमजोरियों के साथ ऐक्सेप्ट नहीं कर पाये हैं, यानी की अभी भी किशोरावस्था चल रही है।

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  4. देव ,बात शुरू करूँगा हिमांशु भाई के दो पोस्ट पहले के टीप – वाक्य से —'' आप जब अपने से बतियाते होंगे, कितना खूबसूरत होता होगा वह ! स्वगत, पर जीवनगत ! व्यक्तिमत्ता के ऊंचे शिखर को छूता हुआ घोर निर्वैयक्तिक ! '' आपके इस आत्मावलोकन के क्षितिज की व्यापकता का प्रमाण अलग से क्या दिया जाय !'' त्रासदी '' पढ़ कर हम उपराम होते है , विरेचन होता है हमारा , ''कैथारसिस'' होता है , यह त्रासदियों का करुणात्मक-लोकास्रयी धर्म है !अतः '' नही तो लिखिये न.. अपना पैशन खत्म मत करिये.. :) '' – जैसी बात से मेरा इत्तेफाक नहीं है .. मैं कहूँगा की लिखिए , अरण्य-रोदन नहीं है यह , जाग्रत – मनीषा का स्व-चिंतन है यह !जहां स्व की स्फीति स्वेतर है ! .मैं व्यक्तिगत तौर से बहुत लाभान्वित हो रहा हूँ , आपकी इन पोस्टों से .. सबसे ज्यादा आज हुआ ..जैसे , आपके शब्दों का संबोध्य मैं ही हूँ ! ( खुद के इतराने का मौक़ा क्यों जाने दूँ …. :) ………. ) .@ जो समझ में आता है – और हाथ की लकीरों सा साफ साफ दीखता है; कि मैं कहीं कमजोर प्राणी हूं। पर्याप्त इच्छा शक्ति की कमी है मुझमें। —— इसे स्वीकारने के लिए जिस दुर्लभ इच्छा-शक्ति की जरूरत होती है , वह आपमें है , अब आगे मुझे इसकी कोई कमी नहीं दिख रही है ! @ कहां मिलती है इच्छा शक्ति मित्र?——— कुछ ऐसा ही मैं भी मांग रहा हूँ , पर कहाँ मिलता है ! अब लग रहा है 'निर्वेद' से ही मिलेगी यह शक्ति !यह साधना एकांत ही मांगती है शायद ! साधना आभ्यंतर की पर बाह्य से निरपेक्ष नहीं ! पक्का है फूटेगा सुरुज का सोता ! '' विकसता सुख का नवल प्रभात '' ! ……………………………………………………………………………………………………………………………………….@ Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) बंधुवर मंत्र और शेर में बड़ा अंतर होता है .. मंत्र के अर्थ में बेहतर होता कि गायत्री की सूर्य – शक्ति की इन्गति होती …………………@ नही तो कुछ पढिये.. काफ़ी दिनो से आपने किसी किताब के बारे मे नही लिखा..अरे यह सब जीवन की जिस किताब से आ रहा है , वह किताबी पढ़ाई से अलग मायने रखती है मित्र ! 'बुक रिव्यू' तो कहीं भी मिल जायेगी ! ……… यह भाव – संघति तो अन्यत्र-दुर्लभ है न ! .@ sanjay kumarहर बुरे काम पे टोका है किसीने मुझको एक आवाज़ तेरी जबसे मेरे साथ हुई…———– नोट कर लिया है कागज़ पर और भी कि लेखक नीरज और सौजन्य से संजय कुमार .. सुक्रिया मित्र !

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  5. ये टेम्पलेट कुछ जमा नहीं. शायद ये उजला ज्यादा है और इसका पोस्ट बार कुछ कम चौड़ा है.साइडबार को कुछ संकरा कर दिया जाये तो…जीवन प्रतीत्य समुत्पाद है. ज्यादा कुछ कहूँगा तो मन कचोटेगा कि अपना कुछ नहीं कहता हूँ.

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  6. रोग की सही पहचान ही निदान की ओर पहला सही क़दम है। सलाह तो बिना माँगे भी देने को आतुर रहते हैं हम लोग,फिर आपने तो माँग ली है।मैं अगर सही सोच रहा हूँ तो आप प्रकट स्वकथन (लाउड थिंकिंग)कर रहे हैं इस पोस्ट में:यह आपका मोनोलॉग है। यानी सलाह किससे माँगी आपने? अपने आप से। तो फिर सलाह कौन देगा इच्छाशक्ति के बारे में?बस यहाँ नहीं मानने वाले हम,सलाह ज़रूर देंगे।अपने एक पुराने गीत की पंक्तियाँ याद आ गयीं,वही दोहराता हूँ:रोग ही उपचार सा है,दोष ही परिहार सा है,छोड़ कर माया प्रपञ्चों को बना था वीतरागी,देखता हूँ ईश्वर को – जो स्वयम् संसार सा है ।रोग ही उपचार सा है…

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