हम चाहें या न चाहें, सीमाओं के साथ जीना होता है।
गंगा किनारे घूमने जाते हैं। बड़े सूक्ष्म तरीके से लोग गंगा के साथ छेड़ छाड़ करते हैं। अच्छा नहीं लगता पर फिर भी परिवर्तन देखते चले जाने का मन होता है।
अचानक हम देखते हैं कि कोई घाट पर सीधे अतिक्रमण कर रहा है। एक व्यक्ति अपने घर से पाइप बिछा घर का मैला पानी घाट की सीढ़ियों पर फैलाने का इन्तजाम करा रहा है। घाट की सीढियों के एक हिस्से को वह व्यक्तिगत कोर्टयार्ड के रूप में हड़पने का निर्माण भी कर रहा है! यह वह बहुत तेजी से करता है, जिससे कोई कुछ कहने-करने योग्य ही न रहे – फेट एकम्प्ली – fait accompli!
वह आदमी सवेरे मिलता नहीं। अवैध निर्माण कराने के बाद यहां रहने आयेगा।
मैं अन्दर ही अन्दर उबलता हूं। पर मेरी पत्नीजी तो वहां मन्दिर पर आश्रित रहने वालों को खरी-खोटी सुनाती हैं। वे लोग चुपचाप सुनते हैं। निश्चय ही वे मन्दिर और घाट को अपने स्वार्थ लिये दोहन करने वाले लोग हैं। उस अतिक्रमण करने वाले की बिरादरी के। ऐसे लोगों के कारण भारत में अधिकांश मन्दिरों-घाटों का यही हाल है। इसी कारण से वे गटरहाउस लगने लगते हैं।
मैं अनुमान लगाता हूं कि पत्नीजी आहत हैं। शाम को वे सिर दर्द की शिकायत करती हैं। मुझसे समाज सुधार, एन.जी.ओ. आदि के बारे में पूछती हैं। मुझ पर झल्लाती भी हैं कि मैं पुलीस-प्रशासन के अफसरों से मेलजोल-तालमेल क्यों नहीं रखता। शुरू से अब तक वैगन-डिब्बे गिनते गिनते कौन सा बड़ा काम कर लिया है?
मुझे भी लगता है कि सामाजिक एक्टिविज्म आसान काम नहीं है। एक दो लोगों को फोन करता हूं तो वे कहते हैं – मायावती-मुलायम छाप की सरकार है, ज्यादा उम्मीद नहीं है। पता नहीं, जब उन्हे मुझसे काम कराना होता है तो उन्हे पूरी उम्मीद होती है। लगता है कि उनकी उम्मीद की अवहेलना होनी चाहिये भविष्य में (इस यूपोरियन चरित्र से वितृष्णा होती है। बहुत बूंकता है, बहुत नेम-ड्रॉपिंग करता है। पर काम के समय हगने लगता है!)।
हम लोग जाली सफाई वाला काम करा पाये – ऐसा फोन पर बताया श्री आद्याप्रसाद जी ने। उससे कुछ प्रसन्नता हुई। कमसे कम नगरपालिका के सफाई कर्मी को तो वे पकड़ पाये। थानेदार को पकड़ना आसान नहीं। एक व्यक्ति व्यंग कसते हैं कि उनकी मुठ्ठी अगर गर्म कर दी गयी हो तो वे और पकड़ नहीं आते! मैं प्रतिक्रिया नहीं देता – अगर सारा तन्त्र भ्रष्ट मान लूं तो कुछ हो ही न पायेगा!
अब भी मुझे आशा है। देखते हैं क्या होता है। हममें ही कृष्ण हैं, हममें ही अर्जुन और हममें ही हैं बर्बरीक!
मेरी हलचल का वर्डप्रेस ब्लॉग डुप्लीकेट पोस्ट पर गूगल की नीति के चलते नहीं चला। इधर ब्लॉगस्पॉट के अपने फायदे या मोह हैं! शायद डिस्कस (DisQus) इतना खराब विकल्प नहीं है। टिप्पणियां मॉडरेट करते समय बिना अतिरिक्त प्रयास के प्रतिक्रिया लिख देना बड़ी सुविधा की बात है।
कुछ दिनों से लग रहा है कि टिप्पणी का आकर्षण गौण है, सम्भाषण महत्वपूर्ण है। बहुत से लोग मुझे एकाकी रहने वाला घोंघा मानते हैं। अनिता कुमार जी ने तो कहा भी था –
पिछले तीन सालों में मैं ने आप को टिप्पणियों के उत्तर देना तो दूर एक्नोलेज करते भी कम ही देखा है। आप से टिप्पणियों के बदले कोई प्रतिक्रिया पाना सिर्फ़ कुछ गिने चुने लोगों का अधिकार था।

बड़ा काम तो आप कर रहे हैं ।
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अतिक्रमण का जवाब एक दिन गंगा खुद दे देगी, जब बहा ले जाएगी इन्हें अपने साथ.
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बकौल 'काशी की अस्सी' – सेन्हुर पोत कर जगह कब्जियाना सबसे सरल इन्वेस्टमेंट है और वैसा ही कुछ यहां भी दिख रहा है…माध्यम अलग है बस।
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बहुत अच्छी प्रस्तुति।इसे 08.05.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह 06 बजे) में शामिल किया गया है।http://chitthacharcha.blogspot.com/
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'अगर सारा तन्त्र भ्रष्ट मान लूं तो कुछ हो ही न पायेगा' – सारा नहीं तो लगभग सारा कहना गलत नहीं होगा. कुछ करने की चाह रखने वाला यदि सामान्य व्यक्ति है तो एक दिन हार थक कर बैठ जाएगा.
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@ … अगर सारा तन्त्र भ्रष्ट मान लूं तो कुछ हो ही न पायेगा!—— सहमत हूँ आपसे …@ … बर्बरीक! / पढ़ते ही याद आ गया , अपने ब्लॉग का एक गद्य – टुकडा — '' … ज्यादा बोलने पर महाभारत के पात्र 'बर्बरीक' जैसा गला कटवाना पड़ता है , और फिर भी महाभारत देखने की इच्छा शेष रह जाती है ! धन्य है नियति ! '' @ जाली की सफाई हो गई। कगरियाकर बहता जल अनुशासित हो गया।——— सफाई के बाद बहने का अनुशासन आ ही जाता है ! अनुशासन में बहाव यानी लय – बद्ध स्वच्छंदता ! [इतर-उक्ति भाव में ] .आभार
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जिन्हे हराम की खाने की आदत हो वो ही ऎसी हरकते करते है, दुसरो का माल , धन हडपना ओर सुबह शाम माला जपना…भाभी जी को बोले खाम्खां मै सर ना खपाये
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हमारा नियन्त्रण केवल स्वयम् तक सीमित है। यदि हम कुछ नहीं कर पाऍं तो दूसरों से कोई अपेक्षा करने का अधिकार हमें नहीं रह जाता।हम कीमत चुकाने को तैयार नहीं जबकि 'देअर इज नो फ्री लंच।'स्वर्ग देखने के लिए खुद को ही मरना होता है।
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आपकी इन गम्भीर बातों से असहमति जता भी कैसे सकते हैं?——–पड़ोसी की गई क्या?गूगल आपका एकाउंट डिसेबल कर दे तो आप क्या करोगे?
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उम्मीद पे दुनिया कायम है अलख जगाये रखिये
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