यह श्री गोपालकृष्ण विश्वनाथ की उनकी कैलीफोर्निया यात्रा के दौरान हुये ऑब्जर्वेशन्स पर आर्धारित तीसरी अतिथि पोस्ट है:
सफ़ाई और कचरे का निस्तारण (garbage disposal)
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एक और बात आप वहाँ (कैलीफोर्निया) पहुँचते ही नोटिस करेंगे और वह है वहाँ का साफ़ वातावरण।
रास्ते में कहीं भी कूड़ा-कचरा देखने को नहीं मिलेगा।
जरा देखिए इस तसवीर को। यह है घर से बाहर निकलकर रास्ते और कोलोनी का एक दृश्य।
इतना साफ़ कैसे रखते हैं ? मैने कोई सफ़ाई कर्मचारी सड़क को साफ़ करते हुए देखा नहीं।
इसका राज है वहाँ के नागरिकों का सहयोग। हर परिवार को म्युनिसिपैलिटी से तीन किस्म के डिब्बे दिये जाते हैं।
यह डिब्बे अलग रंग के होते हैं। एक में रसोई से निकला कूड़ा (organic waste); दूसरे में प्लास्टिक का कूड़ा जो recyle हो सकता है और तीसरा बाग/बगीचे से पैदा हुआ कूड़ा (जैसे सूखे पत्ते, टूटी हुई टहनियाँ वगैरह)। (चित्र देखिए)
हर बृहस्पतिवार को ये डिब्बे सुबह सुबह घर के सामने रास्ते के एक छोर पर रखे जाते हैं और सफ़ाई कर्मचारी (बस एक ही आदमी) अपने ट्रक में आता है और उन्हे खाली करके डिब्बों को वहीं छोड जाता है। चित्र में देखिए ट्रक कैसे उन डिब्बों को उठाता है। ट्रक का ड्राईवर ट्रक के बाहर निकलता ही नहीं। बस केवल आधे घंटे में कोलोनी के सभी घरों को निपटा लेता है। डिब्बे का साईज़ देखिए। एक आदमी उसमें घुस सकता है। पूरे हफ़्ते का मैल उसमें जमा हो जाता था।
सड़कें और ट्रैफ़िक
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मुख्य सड़कें इतनी चौड़ी थीं, कि पूछो मत। शायद २०० फ़ुट से भी ज्यादा । हमने ऐसी सडकें भारत में कहीं नहीं देखी। न कोई गड्डे, न कोई स्पीडब्रेकर।
कहीं कोई आबादी दिखती ही नहीं। लगता था सभी लोग या तो अपने घर के अन्दर, या कार्यालय के अन्दर या अपनी कार के अन्दर हैं। सारा शहर एक भूतों की बस्ती (Ghost Town) लगता था। भारत के शहरों का भीड़ भाड़, शोरगुल, मैल, धूल, रास्ते में चलती गाएं, दुकानें, भिखमंगे, कुत्ते, कुछ भी वहाँ देखने को नहीं मिले। यदि लोगों को देखना हो तो किसी मॉल जाना पडता था। रास्ते में चलते वक्त हम अपनी मर्जी से कहीं भी रास्ता पार नहीं कर सकते थे। केवल नियुक्त स्थानों पर ही पार कर सकते थे। भारत में तो हम बडी मुस्तैदी से, यहाँ वहाँ उछल कूद करके ट्रैफ़िक के बीच वाहनों से बचते बचते सडक पार करते हैं। वहाँ ऐसा करना jay walking कहलाता है जो जुर्म है और पुलिस हमें अन्दर कर देगी! नियुक्त स्थानों पर पैदल चलने वाले ट्रैफ़िक लाईट स्वयं चला सकते हैं। एक खंबे में स्विच दबाने से कुछ देर बाद गाडियों के लिए लाल बत्ती जलने लगती है और सभी गाडी प्यादे के लिए रुकती है।
पानी, बिजली, गैस
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आप नल का पानी बेहिचक पी सकते हैं। इतना शुद्ध होता था वहाँ का पानी।
कहीं कोई ओवरहेड (overhead tank) देखने को नहीं मिला। पानी सीधे पंप होता था घर के सभी नलों तक।
पूरे महीने में एक भी दिन, एक क्षण के लिए भी बिजली चली नहीं गई। २४ घंटे पानी और बिजली का इन्तजाम था।
घर में कोई वोल्टेज स्टेबलाइज़र (voltage stabilizer) भी नहीं दिखे।
गैस का सिलिन्डर भी देखने को नहीं मिला। गैस सीधे नलियों से रसोई घर तक पहुँचता थी। गैराज में मीटर था जिसके हिसाब से गैस का बिल चुकाना पडता था।
फ़्रिज (refrigerator) तो इतना बडा था की हमें लगा कि कोई अलमारी है। (चित्र देखिए) । दस पन्द्रह दिन का दूध, तरकारी, वगैरह उसमें भर कर रखते थे। ताजा खाना तो इन बेचारों को नसीब ही नहीं। दोनों (मियाँ बीबी) काम पर जाते थे । किसके पास समय है? हफ़्ते भर के लिए पका कर फ़्रीज़र में रख देते थे। हमें तो यह अच्छा नहीं लगा और जब तक हम थे, पत्नी रोज पकाती थी। बेचारे दामाद को तो यह ताजा पकाया खाना बैठ कर खाने की फ़ुरसत भी नहीं मिलती थी। सुबह सुबह खड़े खड़े या घर के अन्दर चलते फ़िरते ही अपना नाश्ता करता था और वह भी रोज वही मेनु (cornflakes, cereal, दूध के साथ)। शनिवार/रविवार को ही उसे हमारे साथ प्यार से बनाया गया ईड्ली/डोसा वगैरह आराम से और बडे चाव से खाने का अवसर मिलता। यह सोफ़्टवेयर वाले कमाते खूब हैं पर कभी सोचता हूँ आखिर किस के लिए। अपने कैरियर की भाग दौड में, जिन्दगी जीने का अवसर ही नहीं मिलता।
इण्टर्नेट (Internet)
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इंटर्नेट की गति तो मेरे यहाँ बेंगळूरु से चार गुणा अधिक थी। पहली बार You Tube के विडियो हम बिना buffering देख कर आनन्द उठा सकते थे। वेब साइट पर जाकर अपनी पसन्दीदा फ़िल्में चुन सकते थे और यह फ़िल्में अपने टी वी पर इंटर्नेट से direct streaming करके देख सकते थे। मात्र १० डॉलर प्रति महीने का शुल्क था इस सुविधा के लिए।
घर में सभी खिडकियों में केवल काँच का शटर था। लोहे के ग्रिल कहीं नहीं देखे। रसोई घर का चित्र देखिए। बेटी से पूछा क्या डर नहीं लगता? कोई भी अन्दर घुस सकता है? security का क्या इन्तजाम है? उसने जवाब दिया " कोई इन्तजाम नहीं. यहाँ अब तक कोई घटना नहीं घटी। सभी घर ऐसे ही हैं। यहाँ घर आराम से रहने और जीने के लिए बनते हैं, सुरक्षा के लिए नहीं। लोग घर बदलते रहते हैं और घर से उनका कोई स्थाई लगाव (attachment) नहीं होता। उन्हें अगली पीढी के लिए विरासत छोडने का खयाल ही नहीं आता।
आगे अगली किस्त में।
शुभकामनाएं
श्री विश्वनाथ जी की मेल से प्राप्त प्रति-टिप्पणिया:
@Mrs Asha Joglekar और वाणी गीतजी,
यहाँ भारत में हम मजबूर होकर बचा हुआ खाना फ़्रिज में रखते हैं क्योंकि हम यह नहीं चाहते कि खाना खराब होकर बर्बाद हो जाए। अगले दिन उसे गर्म करके या कुछ जुगाड करके उसे खाते हैं। पर अमरीका में अधिक मात्रा में पकाना और फ़्रिज में रखना पूर्वनियोजित हो गया हैं। Canned Food बहुत ही ज्यादा खाते हैं ये अमरीकी लोग।
@प्रवीण पाण्डेजी,
“कम्पोस्ट” पर आप विस्तृत “पोस्ट” “compose” करने जा रहे हैं। इन्तजार रहेगा। इस बहाने आपकी श्रीमतिजी से भी सभी मित्र परिचित हो जाएंगे। इन्तजार रहेगा
@अजीत गुप्ताजी,
flexitime की सुविधा हर एक को नसीब नहीं होता। उनके काम की विशेषता पर निर्भर होता है। जिनका काम अन्तरजाल से संबन्धित है उन्हें कभी कभी देर रात को भी तैयार रहना पडता है। Networking Web Site maintenance या networking web site programming का काम तो २४ घंटे चलता रहता है क्योंकि किसी भी समय, दुनिया के किसी भी कोने से लोग वहाँ पहुँचते हैं। “Networking” कभी भी “not working” नहीं बनना चाहिए।
@धीरु सिंह्जी, शोभाजी, अन्तर सोहिलजी, ghost buster जी, और विष्णु बैरागीजी
मामला रोचक है। क्या चीन की आबादी हमसे भी ज्यादा नहीं? बेजिंग और शैंघाई के चित्र हमने देखी थी और बहुत प्रभावित हुआ था। यहाँ भारत में भी कई ऐसी जगह मिल जाएंगे जहाँ आबादी कम है पर मैल/गन्दगी की कोई कमी नहीं। स्वच्छता और आबादी के आपसी सम्बंध पर शायद कोई अच्छा पोस्ट लिखा जा सकता है।
@पंकज उपाध्यायजी,
आपका quotation अच्छा लगा। आप सही कह रहे हैं। कई लोग इस सोफ़्टवेयर लाईन को समझ नहीं पा रहे हैं।
मेरे ससुरजी भी बार बार हमसे पूछते हैं कि यह सोफ़्टवेयर बला क्या होता है। कंप्यूटर तो समझ में आ गई। हमने समझाने की कोशिश की, टीवी और रेडियो का उदाहरण देकर। हमने कहा टीवी/रेडियो hardware होता है और टी वी प्रोग्राम software होता है। सुना है श्री लालू प्रसाद यादवजी ने भी एक बार किसी से पूछा था “यह IT/Wyti क्या होती है?”
@रश्मि रवीजाजी,
आप ठीक कह रही हैं। Weekends का पूरा मजा लेते हैं यह अमरीकी लोग। आपने कहा “जबकि यहाँ सातों दिन काम करने में ही लोग तारीफ़ समझते हैं.” पर हमारे यहाँ कुछ लोग तो सातों दिन आराम चाहते हैं।
@रंजनाजी, e pandit जी, मनोज कुमार जी, प्रवीण त्रिवेदीजी, विनोद शुक्लाजी
टिप्प्णी के लिए धन्यवाद
cmpershad jee,
आखिर कितना segregation कर सकते हैं? कोई सीमा तो होनी चाहिए। नहीं तो घर के सामने केवल डिब्बे ही डिब्बे नज़र आएंगे। शायद जो recycle हो सकते हैं या जिसे dry waste कहा जा सकता हैं ,उसके लिए एक ही डिब्बा नियुक्त होता है।
कभी कभी तो हम भी सोच में पडते थे कि फ़लाँ कूडा किस डिब्बे में डाला जाए।
@राज भाटिया जी,
आप की बात से सहमत हूँ। ज्ञानजी भी यही कह रहे हैं। आबादी को हमें एक बहाना नहीं बनाना चाहिए।
@डॉक्टर महेश सिन्हाजी,
“यहाँ तो लोग कचरे का डब्बा भी गायब कर दें”
यह आपने मज़ेदार बात कही। हाँ आपका यह भी बात सही है कि भारत में लोहे का ग्रिल से भी हमें सुरक्षा की कोई गारन्टी नहीं। आजकल अमरीकी लोगों को चोरों से डर नहीं लगता। आतंकवाद का डर है। कभी कभी कुछ लोग paranoid behaviour का प्रदर्शन करते हैं।
@अनिताजी,
मैं तो वापस आ गया हूँ। केवल एक महीने के लिए वहाँ गया था। आप बेंगळूरु आई थीं।
इस बार आप हमसे बच निकले। अब आगे कोई बहाना नहीं चलेगा। अगली बार जब आप बेंगळूरु आएंगे, आशा है आप से मुलाकात होती।
@भारतीय नागरिक जी,
आप से सहमत हूँ। उन लोगों की अच्छाईयोंको हमें अपनाना चाहिए। उनका work culture प्रशंसनीय है। किसी भी काम में गुणवत्ता पर जोर देते हैं। समय का भी पूरा खयाल रखते हैं। Schedules उनके लिए sacred होते हैं जिसे वे बहुत seriously लेते हैं।
@अभिषेक ओझा जी,
न्यू यॉर्क तो बिलकुल अलग है। उससे कोई comparison व्यर्थ है। इस बार हम वहाँ जा नहीं सके। अगली बार जाएंगे।
@स्मार्ट इन्डियन्जी,
अगली बार हम international licence लेकर जाएंगे। पर बेटी और दामाद कहते हैं की मुझे वहाँ कार नहीं चलानी चाहिए। वे तो यह मानते हैं की भारत का chaotic Traffic का हम इतने आदि हो चुके हैं कि हम orderly traffic से adjust नहीं कर पाएंगे!
सभी मित्रों को धन्यवाद। बस कुछ ही दिनों में ज्ञानजी को चौथी किस्त भेजूँगा। ज्ञानजीने मुझे यहाँ जगह दी उसके लिए आभारी हूँ।
शुभकामनएं
जी विश्वनाथ

भारत मै अगर लोग जागरुक हो तो हमारा देश भी ऎसा ही बन सकता है, आबादी की बात कोई मायने नही रखती, @ (पंकज उपाध्याय) "यह सोफ़्टवेयर वाले कमाते खूब हैं शायद आप उन भारतियो की बात कर रहे हि जो नये नये यहां आते है, ओर उन कि आदते भी भारत जेसी ही होती है, वो १८,२० घंटे काम करते है, शनि इतवार को भीकि शायद बास खुश हो जाये, लेकिन जो लोग यहा जन्मे है वो ऎसा नही सोचते, वो इन लोगो की तरह से ही मस्ती से काम करते है, ओर बास कोई बडी चीज नही इन लोगो के लिये, बहुत फ़र्क है सोच का भी
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आदरणीय विश्वनाथ जी की अमेरिका प्रवास स्मृतियों का पूरा आनन्द ले रहा हूं.——————-अपने देश की सभी समस्याओं की जिम्मेदारी जनसंख्या पर डालने से सहमत नहीं हूं. वो भी हमारी अपनी निर्मित की गयी समस्या है. कहीं से इम्पोर्ट होकर तो नहीं आये लोग.हजारों वर्षों से लुटते पिटते रहे हैं हम. कहीं कुछ तो गड़बड़ रही होगी चरित्र/विचारधारा/कर्म (या उसके अभाव) में.
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@निशांत मिश्राजी,डिब्बे केवल बृहस्पतिवार को सुबह सुबह कुछ समय के लिए वहाँ रखे जाते थे।ट्रक जाने के बाद उन्हें गैराज में या घर के पीछे रखते थे।@आशीष श्रीवासतवजी,काश सब की जिन्दगी आप की जिन्दगी जैसी होती।मेरा दामाद तो कभी रात के दो बजे तक कंप्यूटर से लगा रहता था!फ़िर सुबह सुबह उठकर दफ़्तर जाना पढ़ता था।हाँ, कम से कम, शनिवार और रविवार को उसे पूरी राहत मिलती थी।इन्हीं दो दिनों घर में एक सुखी परिवार का माहौल रहता थासोमवार से लेकर शुक्रवार तक हम दो (पत्नि और मैं) अकेले एक five star जेल के कैदी बन कर रहते थे।बाहर अकेले कहीं जा भी नहीं सकते थे सिवाय टहलने के।अन्य मित्रों की टिप्पणी के उत्तर कल लिखूँगा।
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बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!आभार, आंच पर विशेष प्रस्तुति, आचार्य परशुराम राय, द्वारा “मनोज” पर, पधारिए! अलाउद्दीन के शासनकाल में सस्ता भारत-2, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
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रुचिकर अनुभव। अगली कड़ी का इन्तजार है।
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`यह डिब्बे अलग रंग के होते हैं"हमने तो अखबार और प्लास्टिक एक ही डब्बे में गिरते हुए देखा है…. शायद वहां के लोग कलरब्लाइंड हैं :)
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यहाँ रहते तो यह सब कल्पना में भी ठीक ठीक नहीं आ पाता…सब स्वप्नवत लगता है…
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रोचक ….एक हफ्ते का बासी खाना …इन लोगों की पाचन क्षमता से ईर्ष्या हो रही है ..
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चौबीसों घंटे बिजली, वोल्टेज स्टेबलाइज़र की अनुपस्थिति, गैस पाइप लाइन तो मुंबई में भी है पर गंदगी का ये आलम है कि कोई गाँव भी यहाँ से कई गुणा साफ़ होगा….और वजह वही है, जनसँख्या और अशिक्षा…जबतक इनमे सुधार नहीं होगा….एक साफ़-सुथरे शहर का सपना बस सपना ही बना रहेगा.वहाँ के लोग पांच दिन तो बहुत काम करते हैं..खाने-पीने तक कि सुध नहीं रहती पर वीकेंड्स पर सारी कसर पूरी कर लेते हैं, घूमना, कैम्पिंग, पिकनिक…जबकि यहाँ सातों दिन काम करने में ही लोग तारीफ़ समझते हैं.
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आबादी कम हो तो हम भी अपने देश में इन सभी सुविधाओं का लाभ उठा सकते हैं।प्रणाम स्वीकार करें
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