नैनीताल के हॉलीडे होम के स्यूट में यह रूम हीटर मुंह में चमक रहा है, फिर भी अच्छी लग रही है उसकी पीली रोशनी! मानो गांव में कौड़ा बरा हो और धुंआ खतम हो गया हो। बची हो शुद्ध आंच। मेरी पत्नीजी साथ में होतीं तो जरूर कहतीं – यह है स्नॉबरी – शहरी परिवेश में जबरी ग्रामीण प्रतीक ढूंढ़ने की आदत।
इस सरदी में घर में दो सिगड़ी खरीदनी है, तापने को। पुराने घर में फायरप्लेस तुपवा दिया गया है। उसकी चिमनी मात्र मेहराब सी जिन्दा है। लौटेंगे सिगड़ी की ओर। क्या मैं पर्यावरण को पुष्ट करूंगा? नहीं जी। अपनी खब्तियत को पुष्ट करूंगा। और यह मेरी जेब पर भी भारी पड़ेगा। लकड़ी और कोयला बहुत मंहगा है।
हम जमीन से उखड़े की यह खब्तियत है। और मजे की बात है कि हम पानी पी पी कर कोसते हैं अरुनधत्ती या मेधा पाटकर को, जब वे इसी तरह की खब्तियत (?) दिखाते हैं।।
मैं अपनी गरीब के प्रति करुणा को टटोलता हूं। वह जेनुइन है। पर जब जिन्दल और वेदान्त वाले गरीब की जमीन हड़प कर उसे उसके नैसर्गिक जीवन से बेदखल करते हैं, तो मैं विकास के नाम पर चुप रहता हूं। यह हिपोक्रेसी है न?
डाक्टर ने टेलीफोन पर मेरा हाल ले कर दवाई दी है मुझे। यहां नैनीताल में बेचारे होस्ट ले आये हैं दवा। ले कर सोना है। पर यह क्या अण्ड-बण्ड लिख रहा हूं। ![]()
सब जा चुके हैं। अपने स्यूट को भीतर से बन्द भी मुझे करना है।
खिड़की से दिखता है नैनी झील में झिलमिलाती रोशनियों का नर्तन। – मेरे गांव में तालाब में इतना पानी होता था कि हाथी बुड़ जाये। अब जिन्दा है गांव का ताल या पट गया?
एक भ्रमित की गड्डमड्ड सोच। गड्डमड्ड खोज।
मेरा, एक आम भारतीय की तरह, व्यक्तित्व दोफाड हो गया है। अधकचरा पढ़ा है। मीडिया ने अधकचरा परोसा है। मां-बाप सांस्कृतिक ट्रांजीशन के दौरान जो मूल्य दे पाये, उनमें कहीं न कहीं भटकाव जरूर है। भारत का जीवन धर्म प्रधान है पर उसके मूल में हैं कर्मकाण्ड। मॉडर्न पढ़ाई के प्रभाव में कर्मकाण्ड नकारने की प्रवृत्ति रही तो कहीं कहीं धर्म भी फिसल गया हाथ से।
पर यह आधुनिक प्रश्नोप्निषद पचपन साल की उम्र में परेशान क्यों करता है? क्यों कि पचपन की उम्र इन प्रश्नों से दो चार होने की हो रही है शायद!

POST KI HEADING SE UNDER BRAKET WORDOMIT KAREN…..BAS YAHI GALTI HAI…PRANAM.
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