मोहम्मद यूसुफ धुनकर

मेरे मोहल्ले के पास जहां खंडहर है और जहां दीवार पर लिखा रहता है “देखो गधा पेशाब कर रहा है”; वहां साल में नौ महीने जानी पहचानी गंघ आती है पेशाब की। बाकी तीन महीने साफ सफाई कर डेरा लगाते हैं रुई धुनकर। नई और पुरानी रुई धुन कर सिलते हैं रजाई।

मैं रुई धुन रहे जवान की फोटो खींच चुका तो पास ही बैठा अधेड़ पूछ बैठा – क्या करेंगे फोटो का? उसे बताना कठिन था कि ब्लॉग क्या होता है। मैने कहा – यूं ही, अपने शौक के लिये ले रहा हूं। कम्प्यूटर में रहेगी फोटो। … अश्वत्थामा हत: जैसा सत्य!

यहीं मुहल्ले में रहते हैं क्या?

मेरे हां कहने पर वह अश्वस्त दिखा। इस चिरकुट मुहल्ले में कोई खतरनाक जीव रह नहीं सकता!

फिर बताया उसने – दिन में सात-आठ रजाई बना लेते हैं। एक रजाई चार-पांच सौ की। मैने मोटा हिसाब लगाया कि महीने में दस पंद्रह हजार की आमदनी। ठंड में खुले में डेरा जमाये लोग इतना कमायें तो कुछ ज्यादा नहीं है।

कमाई हो रही है? यह पूछते ही वह पुन: सावधान हो गया। नहीं, ज्यादा नहीं। दिसम्बर-जनवरी तक रहेंगे वे और कमाई तेज ठंड पड़ने पर आखीर में ही होगी। उसके अनुसार अच्छी कमाई तब होती है जब ठंड शुरू होते ही कस कर पड़े।

नाम क्या है आपका? अब तक वह मेरे निरापद जीव होने के प्रति आश्वस्त सा हो लिया था। बोला – मोहम्मद यूसुफ। फिर खुद ही बोला – समस्तीपुर से यहां डेरा डालने पर कमाई बस यूं ही है।

समस्तीपुर, बिहार से यहां खुले में डेरा डाले हैं मोहम्मद यूसुफ और उनका लड़का। कड़ाकेदार जाड़ा और कोहरा झेलेंगे अपने तम्बू में। बड़ी गरीबी है भारत में जी। बड़ी गरीबी!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

10 thoughts on “मोहम्मद यूसुफ धुनकर

  1. चलिए सर जी हमरे समस्तीपुर वाले से मिले तब आपको पता चलिए गया कि "बड़ी गरीबी है भारत में जी। बड़ी गरीबी!" एतना दिन से हम कहते थे त बिसवासे नहीं करते थे।एगो कहाबतो याद आ गया। हमरे तरफ़ बोला जाता है —‘जाने धुनिया धुनें के बेला !’और ई सब ह्स्तोद्योग के राह में त तरह-तरह के नयका तेकनीक आ रहा है त कह सकते हैं कि ‘गए माघ उनतीस दिन बांकी !’

    Like

  2. आजकल सिन्थेटिक ऊन के बने कंबल बिक रहे हैं।हमने कोरिया से १९९३ में खरीदा जब वह भारत में उपलब्ध नहीं था।हेम पान्डेय से सहमत।अवश्य कोई मल्टिनैशनल कंपनी कोई सस्ता विकल्प लेकर आएगा ।लेकिन गरीबी, आदमी को versatile बना देता है।यह लोग हम white collared babus जैसे नहीं हैं। art of survival जानते हैं ।कुछ और काम करेंगे और अपना निर्वाह करेंगे

    Like

  3. पाण्डेय साहब,इतनी कमाई की सुन पढ़कर कईयों की जीभ लपलपाने लगी होगी। आलू, टमाटर तक बेचने से न माने बड़े लोग, कोई काम छोड़ना नहीं है उन्होंने किसी के लिये।

    Like

  4. महाराणा प्रताप के कई अनुयाया 'गाडिया लुहार' के नाम से खानाबदोश जिन्‍दगी जीते हैं। मोहम्‍म्‍द युसूफ और उनके बेटे जैसे लोग, 'मौसम के गाडिया लुहार' हैं।

    Like

  5. भाई मोहम्मद युसूफ ! जितना कमाई करना हो कर लो , हो सकता है साल दो साल में कोई मल्टीनेशनल कंपनी तुम्हारे धंधे में आ जाए |

    Like

  6. वैसे पहले रुई धुनने के लिए पहले लोग घर घर आते थे अपने उस लम्बे चौड़े औजार के साथ. ठांय ठांय करती. अब दीखते नहीं.

    Like

  7. जीवकोपार्जन हेतु देश में ही प्रवासी जीवन। जहाँ जहाँ भी संभावनायें, वहाँ वहाँ पहुँचते उनके बसेरे। कई और मुहम्मद युसुफ जो मेहनत पर नहीं जीना चाहते, अपराध की ओर मुड़ जाते हैं, वह भी अपनी भौगोलिकता से परे।

    Like

Leave a reply to भारतीय नागरिक - Indian Citizen Cancel reply

Discover more from मानसिक हलचल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Design a site like this with WordPress.com
Get started