प्री-मानसूनस्य प्रथमे प्राते:


प्री-मानसून के प्रथम प्रात: में कालिदास को याद करता हूं। मोहन राकेश को भी याद करता हूं। क्यों? ब्लॉग़ पर कारण बताने की बाध्यता नहीं है। वैसे भी यह साहित्यिक ब्लॉग नहीं है।

कल शाम आंधी आई और ओले पड़े। जिसके गांव में बंटाई पर खेती दे रखी गई है, वह तुरंत फोन लगा कर पूछने लगा कि अनाज खलिहान में भर दिया गया है कि नहीं बोरे में। घर की बिजली सूंघती रहती है आंधी को। टप्प से गुल हो गयी। रात अर्ध निद्रा में बीती। पर सवेरा होते ही गंगा तट पर था मैं।

बहुत शानदार हवा चल रही थी। आसमान में एक ओर बादल थे। जब तक मैं गंगाजल के समीप पंहुचता, बारिश होने लगी। हवा को पीठ दिखाता खड़ा हो गया। अगर उसे देखता तो बारिश की बून्दें  चश्मा भिगो देतीं। एक बड़ा दौंगरा आया और सींच गया मुझे। सर्दी सी लगने लगी। चाय कहां मिलेगी बस्ती से डेढ़ किलोमीटर दूर! लिहाजा रेत में चूल्हा बनाया अपनी संटी से, उस पर भगौना चढ़ाया और दो कप चाय बनाई – साथ में मेरा बेटा चल रहा था बतौर मेरे बॉडीगार्ड!

रेत में चाय बनाई - दो कप!

चाय की गर्माहट (?!) ले आगे बढ़े हम। एक टिटिहरी बहुत जोर से टिंटिंयाते हुये आसमान में उड़ी। हमसे क्या डरती है? हमसे तो दफ्तर में कर्मचारी भी न डरते!

आसमान में उड़ी टिटिहरी - बादलों के समीप!

आज सवेरे सामान्यत: गंगाजी के कछार में घूमने वाले नहीं थे। रेत गीली थी और चलने में तकलीफ नहीं थी। वरन उस पर जो बारिश की बून्दों के निशान थे, उनको पैर से मिटाना अच्छा नहीं लग रहा था। गंगाजी के पानी में सामान्य से ज्यादा लहरें थीं। दूर एक डोंगी जा रही थी । लहरों के खिलाफ और धीरे धीरे।

वापसी में सोच रहा था, रात में नींद न ले पाने पर अगर आज गंगातट की सैर न करता तो कितना वंचित रह जाता पी-मानसून के प्रथम प्रात की अनुभूति से।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

48 thoughts on “प्री-मानसूनस्य प्रथमे प्राते:

  1. बर्तन बनाकर पीने वाली चाय का आनन्द मधुर था, जब ठण्डी हवा बहती है, चहास जगती है।

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    1. अनुराग जी तो टिप्पणी में कहते हैं कि ब्लॉगरों के लिये भी एक कप बनानी थी – वे भी तो सैर पर साथ होते हैं – वर्चुअली!

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  2. “वैसे भी यह साहित्यिक ब्लॉग नहीं है।” ये बहुत अच्छी बात है.
    “हमसे तो दफ्तर में कर्मचारी भी न डरते!” – कई बार आपको पढते हुए लगता है कि हमारी बात लिख दी है आपने.

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  3. दिल्ली का 44 डि. और कहां वहां ठंड.. आह :)

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  4. ज्ञान भाई साहब आप ‘ गंगा किनारे ‘ पुस्तक कब प्रकाशित करवा रहे हैं ?
    आपके कई आलेख पड़ते गंगा माई के दर्शन और सामीप्य का आभास हो जाता है
    वैसे कभी गंगा जी को देखा ही नहीं …अफ़सोस …और आप रोजाना वहीं ..
    सुखद संयोग है ..
    – लावण्या

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  5. पी-मानसून के प्रथम प्रात की अनुभूति-चलिये आपने एन्जॉय किया तो अच्छा लगा. चाय तो लगता है रेत पर बड़ी स्वादिष्ट बनी होगी….मीन मेख का कहाँ सवाल है उसमें?

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