कल आंधी थी कछार में। आज सब यथावत हो गया था। सूर्य चटक केसरिया रंग में थे। आज थोड़ा मेक-अप के साथ चले थे यात्रा पर। चींटों को देखा तो रेत में अपनी बिल संवारने में जुट गये थे। मुझे देख शर्मा गये। बिल में यूं गये कि काफी इंतजार के बाद भी नहीं निकले।
बिल देख लगता नहीं था कि कल आंधी रेत को इधर से उधर कर गयी है। आंधी में जरूर सन्न खींचे रहे होंगे ये छोटे सैन्यकर्मी!
एक जगह दो गुबरैले लुढ़का रहे थे ढेला। पद चाप सुन वे भी चुप चाप आगत खतरे को टालने को शांत बन गये।
एक और जगह इन गुबरैलों के चलने की लकीर देखी जो एक बिल में जा कर समाप्त हो रही थी। यह लकीर लगभग 10 मीटर लम्बी थी। इतनी दूर से लुढ़का कर लाये होंगे वे अपने से पांच गुना बड़ा ढेला। बहुत कर्मठ हैं ये जीव। और डिजर्व करते हैं आंधी पर विजय!
लोग गंगापार से अपनी झोंपड़ियों की बल्लियां निकाल कर ला रहे थे। सिर पर लादे वे दिखे कछार में अपने घर की ओर जाते। खेती का यह सीजन वाइण्ड-अप करते लोग!
इस पार भी खेत की मेड़ बनाने के लिये प्रयोग किया जाने वाला सरपत उखाड़ रहे थे लोग। मेरी पत्नीजी ने पूछा – क्या करेंगे इसका। बताया कि गाय की चरनी का छप्पर छाने में इस्तेमाल करेंगे।
वे अपनी गतिविधि वाइण्ड-अप कर रहे थे, पर कच्ची शराब बनाने वाले सदा की तरह आपने काम में लगे थे। अपनी बस्ती से शराब के प्लास्टिक के डिब्बे घाट पर लाते पाया उन्हे। नाव इंतजार कर रही थी डिब्बे उस पार ले जाने को!
कहीं यथावत, कहीं वाइण्ड-अप!
प्रेरक ब्लॉगिंग।
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आदमी हो या जन्तु, सब अपने अपने जीवनयापन की जुगाड़ में लगे रहते हैं। बस देखने वाली के पास नज़र और कैमरा चाहिए:)
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जीवन यापन सही है, पर मैं यह कहना चाहता हूं कि विपदा या दैवी आपदा पर जो हताशा मनुष्य दिखाता है, वह इन जीवों में नजर नहीं आती। और इस मामले में वे हमारे गुरु हुये!
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@ विपदा या दैवी आपदा पर जो हताशा मनुष्य दिखाता है, वह इन जीवों में नजर नहीं आती। और इस मामले में वे हमारे गुरु हुये!
सहमत।
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ये छोटे बड़े जीव जंतु हमें कितना कुछ दे जाते हैं,कितना कुछ सिखा जाते हैं….
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कच्ची शराब सब को पता हे बस इन का सरकार को नही पता, पुलिस वालो को नही पता. बाकी लेख पढ कर गरीब की जिन्दगी का अहसास बाखुबी होता हे कैसे जीता हे एक कर्म जोगी गरीब
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भाटिया जी, इनमें से बहुत से प्रसन्न रहते हैं। बात करने पर मैं महसूस करता हूं कि प्रसन्नता के मामले में उनसे गरीब ही हूं मैं!
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