कोई लड़का घाट की सीढ़ियों पर ट्यूबलाइट का कांच फोड़ता हुआ चला गया था। कांच बिखरा था। इसी मार्ग से नंगे पैर स्नानार्थी जाते आते हैं गंगा तट पर। किसी के पैर में चुभ जाये यह कांच तो सेप्टिक हो जाये।
सवेरे घूमने जाते समय यह मैने देखा। बगल से निकल गये मैं और मेरी पत्नीजी। वापसी में पाया कि वही दशा थी। पण्डाजी बुदबुदा रहे थे लड़कों की इस कारस्तानी पर। जवाहिरलाल निस्पृह भाव से दातुन किये जा रहा था।
हम भी कोस सकते थे जवान पीढ़ी को। पर चुप चाप लौटने लगे। अचानक मुझे कोटेश्वर महादेव जी के मन्दिर के पास एक गुमटी के नीचे एक झाड़ू दिखी। बस, औजार मिल गया। पहले मैने कांच बटोरना प्रारम्भ किया, फिर पत्नीजी ने बटोरा और मैने दूर झाड़ी में ले जा कर फैंका। पांच मिनट लगे हमें यह करते हुये। अगल बगल से लोग आते जाते रहे। मन्दिर और घाट पर आर्थिक रूप से आश्रित लोग देखते रहे।
आज पर्यावरण का कोई दिन है। हमने बस यह किया।
हिन्दू धर्म में कार सेवा का प्रचलन क्यों नहीं है। वह होता तो घाट की सीढ़ियों पर झाड़ू लगाना निकृष्ट काम नहीं माना जाता! :-(

@ हिन्दू धर्म में कार सेवा का प्रचलन क्यों नहीं है।
यह प्रश्न मेरे मन में भी बराबर आता रहा। चंडीगढ़ में जब पोस्टेड थे, तब तो प्रायः रोज़ ही।
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यह मेरा पुख्ता विचार नहीं है, लेकिन हिन्दू मान्यता ने किसी के लिए कोई बंधन नहीं रखा है। जो जैसी वृत्ति और स्वभाव का होगा वैसा काम कर लेगा। किसी काम या क्रिया के लिए बाध्यता दिमाग में विकार पैदा करती होगी। शायद इसी वजह से काम करने के बारे में बताने के बजाय हिन्दू मान्यता यह बताती है कि आपका धर्म क्या है। मूल्यों को समझ लिया जाए तो किसी को भी यह बताने की जरूरत नहीं रहेगी कि कौनसा काम कौन करे। यह खुद ब खुद होता जाएगा।
इसके इतर सेवा की जो मिसाल आपने पेश की उससे हो सकता है मंदिर और घाट से कमा खा रहे लोगों को अपने धर्म का कुछ ज्ञान हो पाएगा… इसके लिए आपको और भाभीजी को साधूवाद।
एक फोटो आपका भी हो जाता तो हमें भी प्रेरणा मिलती :)
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मोबाइल फोन मेरे पास था, पत्नीजी के पास नहीं! :-(
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मुझे एक कहानी याद आ रही है जब एक मन्दिर के पुराने पुजारी ने अच्छे भले विद्वानों को छो़ड़कर एक साधारण पूजा-पाठ न जानने वाले ब्राह्मण को इसलिये नया पुजारी नियुक्त कर लिया था क्योंकि उसने रास्ते में पड़े हुये काँटों को साफ किया ताकि वे लोगों के पैरों में न चुभें। सचमुच जनकल्याण की भावना ही सच्ची ईश्वर सेवा है।
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हैपी पर्यावरण दिवस
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@ झाड़ू लगाने को हमारे यहाँ वैसे ही निकृष्ट काम माना जाता है
हमारा देश भारत भी अनन्य है। बहुत से भारतीय परिवारों में बुहारी को साक्षात लक्ष्मी माना जाता है और उसे गलती से भी पाँव नहीं लगने देते हैं।
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अखबारों में मैंने देखा फोटो छपे हुए देखा है जब कोई नेता किसी अस्पताल या स्टेशन आदि पर झाड़ू लगाने का उपक्रम करता है. उस समय एक ही जगह पर पंद्रह-बीस लोग झाड़ू लगाते दीखते हैं.
एक झाड़ू ही पर्याप्त है. घाट की सीढ़ियों पर ही नहीं बल्कि झाड़ू लगाने को हमारे यहाँ वैसे ही निकृष्ट काम माना जाता है. और आदमी तो इतने शर्मीले होते हैं कि उन्हें दुकान से झाड़ू खरीदकर घर लाने में भी असहज लगता है.
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शुभ प्रभात!
हर किसी के कमिटमैंट के बिना भी सफाई हो ही रही है। अगर आपके कहे अनुसार सेवा की भावना और फैल पाती तो संसार कितना सुन्दर होता!
सादर, …
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हिन्दू संस्कृति के एक विशिष्ठ अंग सिख पन्थ में कार सेवा प्रचलन में है। आप किसी गुरुद्वारे जाइए, वहाँ की सफाई देखिए, वहाँ कार सेवा देखिए, सभा में शबद सुनिए। सिख पंथ की सब बातों को नहीं तो कुछ को तो अपनाया जा सकता है।
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आपने झाड़ू लगा कर कुछ लोगो को बाकी लोगो को गाली देने का सुनहरा मौक़ा छीन लिया…
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शुभ कार्य, इस कार सेवा का क्या कहना।
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