कोयले की संस्कृति


दामोदर नदी

कोयला शुष्क है, कठोर है रुक्ष है। जब धरती बन रही थी, तब बना कोयला। उसमें न आकृति है, न संस्कृति। उसमें प्रकृति भी नहीं है – प्रकृति का मूल है वह।

आकृति, प्रकृति और संस्कृति दिखे न दिखे, आजकल विकृति जरूर दीखती है। भेड़ियाधसान उत्खनन हो रहा है। दैत्याकार उपकरण दीखते हैं। कोयले की धूल दीखती है। सड़क के किनारे मुझे गायें दिखी नहीं। अगर होंगी भी तो सतत कोयले की धूल के कारण भैंसों में तब्दील हो गयी होंगी।

DSC03316
दामोदर नदी के किनारे एक परित्यक्त कुआँ

मैं अन्दरूनी इलाकों में नहीं गया। सड़क का साथ छोड़ा नहीं। लिहाजा दिखा भी उतना ही, जो सामान्यत दीखता है पर्यटक को। घुमक्कड़ी करने वाले को कहीं और दीखता। उसको शायद विकृति की बजाय प्रकृति और संस्कृति दीखते!

धनबाद – भारत की कोयला-राजधानी, बोकारो और फुसरो (कोयला उत्खनन का मूल) में मुझे एथेनिक गांव कहीं नजर आये। खपरैल कुछ घरों में दिखी भी, पर साथ साथ दीवारें ईंटों की थीं। उनपर रंग भी गंवई नहीं थे – केमीकल पेण्ट थे। औरतें घरों के दरवाजों दीवारों पर चित्र उकेरती हैं। वैसा कहीं पाया नहीं। लोटा-गगरी-मेटी दीखते हैं गांवों में। पर यहां अधिकतर दिखे प्लास्टिक के डिब्बे और बालटियां। हां बांस की दउरी, मोनी, डेलई जैसी चीजें नजर आईं। मुर्गियों को चिकन की दुकानों पर ले जाने के लिये बड़े आकार की झांपियां बांस की तीलियों की बनी थीं।

DSC03303
धनबाद के पहले ट्रेन की खिड़की से दिखा दृष्य

गांव और मूल संस्कृति कहीं होगी जरूर, पर कोयले की अर्थव्यवस्था ने उसे दबोच रखा है। दीखती ही नहीं! कोयला बाहर से लोगों को लाया। मेरी पत्नीजी बताती हैं कि फुसरो में उत्खनन बन्द हुआ तो लोग बस गये। ज्यादातर बाहर के लोग। इलाहाबाद या आस पास के गांवों में धोती कुरता में लोग मिल जायेंगे। यहां तो कोई एथिनिक पोषाक नजर नहीं आती। स्थानीय लोगों से बातचीत नहीं हुई, अत: कह नहीं सकता कि उनकी बोली में हिन्दी को समृद्ध करने के लिये क्या है। पर स्थापत्य, वेश, स्मारक, पुस्तकालय … इन सब के हिसाब से जगह रीती दीखती है। धनबाद में स्टेशन के आसपास कुछ सुन्दर चर्च दिखे। पर अपने अतीत में गुमसुम बैठे।

मोदी कहते हैं वाइब्रेण्ट गुजरात। वाइब्रेण्ट झारखण्ड कहां है। न भी हो तो कहां हैं भविष्य की सम्भावनायें। मेरा नाती भविष्य का नेता होगा झारखण्ड का। कैसे लायेगा यहां वाइब्रेंसी? कौन डालेगा इस सुप्त प्रकृति में संस्कृति के प्राण!

कुछ चित्र इन जगहों के –

GDP0695
धनबाद में पानी के लिये इकठ्ठा लोग

GDP0727_001
मुर्गियों के लिये बांस की बनी झांपियां

GDP0705_001
सड़क की दशा अच्छी है, फिर भी मरम्मत का काम होता है। बेहतर सड़कें, बेहतर भविष्य?

GDP0749
एक सड़क के किनारे चाय की दुकान पर खाद्य सामग्री

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

30 thoughts on “कोयले की संस्कृति

  1. ज्ञान जी जहाँ काम मिलेगा गाँव के बाहर के लोग तो आयेंगे ही । विकास का ही बाय प्रॉडक्ट समझ लीजिये इसे ।

    Like

    1. जी हां। मैं इसे गलत भी नहीं कह रहा। मैं केवल स्थिति बयान कर रहा हूं।
      यही लोग जब नेटिव हो जायेंगे और उन्हे धन्धे की जद्दोजहद के बाद समय मिलेगा, तब वे अपने रिफाइण्ड टेस्ट्स की तरफ ध्यान देंगे।

      Like

  2. निराशाजनक स्थिति है….अब तो आस बाँधने की भी हिम्मत नहीं पड़ती..कुछ सूझे तब तो आदमी आस भी बांधे…

    Like

  3. hum bhee Anoop Ji ki baat se sahmat hain .

    iss post ko pad liye hain aur madari vali post ka intazar kar rahe hain

    Like

    1. मदारी पर पोस्ट बनाने के लिये मसाला और चाहिये था। वह मिल नहीं पाया। कुछ कल्पना से ठेलना पड़ेगा! :)

      Like

      1. सर , आपकी पोस्ट पड़ने का मतलब होता है , अल्लाहाबाद को पड़ लेना , साथ ही में शिवकुटी , तेलियरगंज , मोतीलाल एन आई टी पड़ लेना .
        और मानसिक चिंतन भी कर लेना , सामजिक मुद्दों पर .

        Like

        1. आपके जैसे 100 पाठक हों जो शिवकुटी/इलाहाबाद/तेलियरगंज/मोतीलाल एन आई टी में रुचि वाले हों तो तर जाये ब्लॉग!
          लोग रुचि वाले होंगे, पर पठन की आदत नहीं है उनमें

          Like

  4. थीम को लेकर आप हमेशा से ही बहुत पेक्यूलियर रहे हैं. बार-बार थीम का बदलना मुझे तो नहीं जमता. ब्लौग का साइडबार भी उसका एक अंग प्रतीत होने लगता है जो ऐसी थीम्स में नदारद हो जाता है. मैं तो उसे नीचे तक जाकर देखने की जहमत नहीं उठाता. बेहतर हो कोई एक थीम लम्बे समय तक पकड़कर बैठ जाएँ. मेरी थीम ‘मिस्टीक’ आजमाकर देखें, उसमें बहुत कस्टमाइजेशन हैं.

    यह हैडर लाजवाब है. इसकी खासियत यह है के इसमें हर व्यक्ति कुछ न कुछ कर रहा है, जो लोग बैठे हैं वे भी कहीं कुछ देख रहे हैं. पानी से प्रेत की तरह बाहर आता व्यक्ति हैडर का केन्द्रीय पात्र है.

    Like

    1. कुछ अर्से से अपने में प्रयोग धर्मिता लेखन/पोस्ट में नहीं हो रही है। ब्लॉग उस मायने में थका चल रहा है। जो कुछ हो रहा है, वह इस तरह के थीम ट्वीक्स में हो रहा है। और यह बहुत अच्छा नहीं है। :-(
      हेडर तो मुझे ज्ञानोक्ति का ज्यादा जम रहा है! :)
      (वह मैं बदलता नहीं, अगर आपने About पेज पर टिप्पणी न की होती!)

      Like

आपकी टिप्पणी के लिये खांचा:

Discover more from मानसिक हलचल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Design a site like this with WordPress.com
Get started