मैं, ज्ञानदत्त पाण्डेय, गाँव विक्रमपुर, जिला भदोही, उत्तरप्रदेश (भारत) में ग्रामीण जीवन जी रहा हूँ। मुख्य परिचालन प्रबंधक पद से रिटायर रेलवे अफसर। वैसे; ट्रेन के सैलून से गांव की पगडंडी की साइकिल पर उतरना रोचक है! 😊
हिन्दी ‘सेवा’ की बात ब्लॉगजगत में लोग करें तो आप भुनभुना सकते हैं। पर आपके सपोर्ट में कोई आता नहीं। पता नहीं, इतने सारे लोग हिन्दी की सेवा करना चाहते हैं। हिन्दी ब्लॉगजगत में सभी स्वार्थी/निस्वार्थी हिन्दी को चमकाने में रत हैं और हिन्दी है कि चमक ही नहीं रही। निश्चय ही हिन्दी सेवा पाखण्ड है। यह पाखण्ड चलता चला जा रहा है।
पर जब अज्ञेय जैसे महापण्डित ‘हिन्दी हितैषी’ की बात करते हैं तो मामला रोचक हो जाता है। आप उनका लिखा पढ़ें –
अज्ञेय के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने के लिए ‘आत्मनेपद’ उपयोगी ही नहीं, अनिवार्य है
क्या आप हिन्दी के हितैषी हैं?
हिन्दी के हितैषियों को बार बार प्रणाम, जिनकी हितैषणा कुछ कम होती तो हिन्दी की उन्नति कुछ अधिक हो पाई होती! हितैषीगण हिन्दी की रक्षा के नाम पर उसके चारों ओर ऐसी दीवार खड़ी कर के बैठे हैं कि वह न हिलडुल सके न बढ़ सके, न सांस ले सके, और बाहर से कुछ ग्रहण करने की बात ही दूर! बिना रास्ता देखे चला नहीं जाता तो बिना समीक्षा के साहित्य निर्माण भी नहीं हो सकता; लेकिन हितैषियों के कारण समीक्षा असम्भव हो रही है, क्योंकि जो ‘सम’ देखना चाहता है वह तो हिन्दी-द्वेषी है, विश्वास्य समर्थक नहीं है। हम ने गोरक्षा के नाम पर सारे भारतवर्ष को एक विराट पिंजरापोल बना डाला। जिसका गो धन सारे संसार में निकृष्ट कोटि का है। क्या हम हिन्दी रक्षा के नाम पर अपने साहित्य को भी एक पिंजरापोल बना डालेंगे, जिसमें उत्पादक तो असंख्य होंगे, लेकिन सभी अधभूखे, अधमरे, निस्तेज; जिसकी प्रतिभा अनुर्वर होगी और उत्पादन उपहासास्पद (यद्यपि उसपर हंसने की अनुमति किसी को न होगी!) और जिसमें हम साहित्य-नवनीत के बदले कारखानों का ‘बिना हाथ के स्पर्श से’ तैयार किया गया वनस्पति ही पाने को बाध्य होंगे।
[आत्मनेपद, अज्ञेय, लेख – हिन्दी पाठक के नाम। भारतीय ज्ञानपीठ।]
अज्ञेय को पढ़ना थोड़ा मेहनत का काम है – उसके लिये जो हिन्दी का ‘हितैषी’ नहीं है। लेकिन थोड़ा पढ़ने पर स्पष्ट हो जाता है कि वे हिन्दी की कोई महंतई नहीं कर रहे। बेबाक कह रहे हैं। उनका कहा जमता हो या न जमता हो, दरकिनार तो कतई नहीं किया जा सकता।
आप हिन्दी के ब्लॉगजगतीय (या वैसे भी) महंतगण की सादर अवहेलना कर सकते हैं – और मैने तो वैसा ही सोचा है। आप हिन्दी हितैषियों का कुटिल या मूर्खतापूर्ण खेल नजरअन्दाज कर भी हिन्दी के प्रति संवेदनयुक्त हो सकते हैं।
हिन्दी ब्लॉगजगत हिन्दी का पिंजरापोल ही है! जर्सी गायें कितनी हैं भाई?!
[टोटके की बात पूछी थी प्रवीण शाह ने। यह पोस्ट एक टोटका है। आप हिन्दी सेवा/हिन्दीहितैषणा की बात करें। तथाकथित महंतगण और उनके चेलों को अज्ञेय जैसे तर्कसंगत और बौद्धिकता के शिखर पर अवस्थित महापण्डित से सटा दें। हिन्दी हित का चोंचला आप अपनी सामर्थ्य में टेकल नहीं कर सकते। बेहतर है अज्ञेय का आह्वान करें! 😆
बस एक दिक्कत है। हिन्दी के हितैषी पत्र-पत्रिका छाप हिन्दी पसन्द करते हैं। अज्ञेय गरिष्ठ हो जाते हैं। अत: यह भी हो सकता है कि यह पोस्ट नजरअन्दाज हो जाये! ]
Exploring village life.
Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges.
Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP.
Blog: https://gyandutt.com/
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52 thoughts on “हिन्दी हितैषणा वाया जर्सी गाय”
हमने तो बहुत पहले ही कह दिया था. “हिन्दी का दोहन करो, सेवा इसे मार देगी”. हमें क्या मालूम था कि मामला इत्ता पूराना है तब भी ज्ञानीजन सेवकों से घबराए हुए थे.
लेखक चाहे वह अज्ञेय हों या भारती, प्रेमचन्द्र हों या यशपाल विद्यार्थी हों या शिवपूजन सहाय, सभी में मानवोचित गुण-दोष थे और आगे भी जो स्वनामधन्य होंगे उनमें भी यह गुण-दोष रहेंगे। अज्ञेय नें बहुत अच्छा भी लिखा है तो बहुत कूड़ा भी। अब यह परखनें की दृष्टि मेरी है और मेरी मानसिकता को कब भाती है यह देश-काल-परिस्थिति पर निर्भर करता है। कालजयी रचना के पैमाने पर अगर वाल्मीकि कालिदास और तुलसी आज भी जीवित है तो बाकियों की कालजयता पर प्रश्न चिन्ह अवश्य उठता है। कभी-कभी शीर्ष पर पहुँचे साहित्यकार जब निज भाषा को हेय दृष्टि से देखनें लगें तो समझ लीजिये अब उसके पढ़ने-पढ़ानें के दिन समाप्त हुए। भाषा के प्रति श्रद्धा विश्वास और समर्पण जैसा बंगला में मिलता है वैसा क्या हम हिन्दी भाषियों में कभी देख पाऎंगे?
मैं भी यही कहना चाहता हूं कि भाषा के प्रति समर्पण नहीं है हिन्दी वालों में। बिल्कुल वैसे जैसे लोगों का गाय के प्रति नहीं है या गंगा के प्रति नहीं है। हिन्दी का प्रयोग जोड़-तोड़/पर्सनल एडवांसमेण्ट के लिये ज्यादा हो रहा है। शायद समस्या हिन्दी/गंगा/गाय को ले कर नहीं – मानवीय मूल्यों को ले कर है। ये तो घर के बाहर के प्रतीक हैं। घर में भी देखें तो माई-बाबू की वैसी ही उपेक्षा हो रही है, जैसी इनकी! 😥
@ भाषा के प्रति श्रद्धा विश्वास और समर्पण जैसा बंगला में मिलता है वैसा क्या हम हिन्दी भाषियों में कभी देख पाऎंगे?
— कारण स्पष्ट है कि बंग्ला उनकी वर्नाकुलर है, जरा हिन्दी देखिये, घर में और, विश्वविद्यालय में और, बजार में और, लेखन में और, ..!
हिन्दी के साठ थ यह त्रासदी है कि इसका क्षेत्र जितना ही व्यापक दिखता है, यथार्थ में उतना ही बंटा हुआ है विविध देशभाषाओं में। ये स्वायत्त भी हैं, स्वत्व चेतना इनकी मांग को बढ़ावा दे रही है, आगे यह प्रवृत्ति मुखर होगी। इसे हम गलत भी नहीं कह सकते।
मेरे ख्याल से वर्नाकुलर तक की बात नहीं है। हिन्दी भाषी क्षेत्र में सांस्कृतिक क्षरण का मामला है। हिन्दी को अलग नहीं – गंगा, गाय और माई-बाबू की उपेक्षा से जोड़ कर देखें!
हिन्दी के नाम पर बार-बार खन-बहाने वाले बाबू खन-बहाया जी की हिन्दी सेवा का ये आलम है कि जो कोई हिन्दी के विलुप्त हो रहे शब्दों को अपने बोलचाल में इस्तेमाल करता है उसे वे सर्वश्रेष्ठ हिन्दीसेवी का मानपत्र दे देते हैं। सुना है आजकल झण्डू बाम फेम मुन्नी जी को उन्होंने सर्वश्रेष्ठ हिन्दीसेवी मानना शुरू किया है क्योंकि मुन्नी जी ने अपने गीतों में – मैं ‘टकसाल’ हुई तेरे लिये – कहते समय हिन्दी के विलुप्तीकरण के कगार पर खड़े शब्द ‘टकसाल’ का इस्तेमाल किया।
ये अलग बात है कि उसी गीत में ‘डार्लिंग’ और ‘फिगर’ जैसे शब्दों का भी इस्तेमाल हुआ जिसके बारे में बाबू खन-बहाया जी का कहना है कि नई पीढ़ी को आकर्षित करने के लिये ऐसे चटक मटक शब्दों का इस्तेमाल करने में कोई बुराई नहीं है बल्कि ये भी एक प्रकार की हिन्दीसेवा है जिसके कारण नई पीढ़ी को टकसाल जैसे विलुप्त हो रहे शब्द से परिचित कराने में आसानी हुई 🙂
किसी को मानपत्र देने की पात्रता केवल खन बहाया टाइप के लोगों के पास होती है, जो कि खनते-खनते पाताल से भी हिन्दी सेवी पकड़ लाने की क्षमता रखते हैं। और जहां तक मैं समझता हूँ, आप केवल गंगा जी की बालू खुलिहारने की क्षमता रखते हैं….. उसे गहरे तक खनने की नहीं 🙂
ऐसे में आप किसी को मानपत्र देने की योग्यता खुद ब खुद खो देते हैं…..यह काम खन बहाया टाइप लोगों के लिये छोड़ा जा सकता है 🙂
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. ” हम ने गोरक्षा के नाम पर सारे भारतवर्ष को एक विराट पिंजरापोल बना डाला। जिसका गो धन सारे संसार में निकृष्ट कोटि का है। क्या हम हिन्दी रक्षा के नाम पर अपने साहित्य को भी एक पिंजरापोल बना डालेंगे, जिसमें उत्पादक तो असंख्य होंगे, लेकिन सभी अधभूखे, अधमरे, निस्तेज; जिसकी प्रतिभा अनुर्वर होगी और उत्पादन उपहासास्पद (यद्यपि उसपर हंसने की अनुमति किसी को न होगी!) “
हा हा हा हा,
चाहे टोटका ही कह लीजिये पर अज्ञेय का एक बहुत ही सामयिक लेख-अंश निकाल कर लाये हैं आप, धन्यवाद इसके लिये…
वैसे क्या अब समय नहीं आ गया है कि तथाकथित हिन्दी सेवक-हितैषी इन पाखंडी महंतों की लुंगी सरेआम खोल फेंकी जाये ताकि यह किसी कोने में जा छिपने को मजबूर हो जायें… 🙂
लगता है वर्षों पुरानी पुस्तक अब आपके हाथ आयी है और अज्ञेय के दिवंगत हुए भी वर्षों बीत गए -हाँ वे प्रासंगिक अभी भी हैं ..मगर उनके हवाले से आप क्या कहना चाहते हैं ज्ञान जी ? प्रकारांतर से यह कि असली हिन्दी हितैष्णा बस आपमें है और बाकी सब लल्लू पंजू 🙂
जरा अज्ञेय की इन्ही पंक्तियों को फिर पढ़िए और हिन्दी के सहज स्तर पर मनन कीजिये ..अगर यही लेख अरविन्द मिश्र ने लिखा होता जो शायद लिख भी लेते ऐसा ..तो यह बुराई शुरू होती कि बड़ा क्लिष्ट लेख है ..और शब्दों को सूक्ष्मदर्शी/चिमटी से देख उठाना पड़ सकता है (यह आपने ही कह रखा है ) ..दरअसल हम ब्लॉगर एक तरह की ग्रंथि से ग्रस्त है –मेरा लेखन /मेरा ब्लॉग सबसे बेहतर है …पते की बात तो केवल हमीं लिखते है और पढ़ते हैं बाकी सब कचरा माल है,पियोर गोबर …
मुझे लगता है इस ग्रंथि से स्वनामधन्य ब्लॉगर मुक्त हों तभी बात बनेगी ….
अज्ञेय ने बहुत कुछ कहा है ….हमें लगता है, लोगों को जिस तरह वे लिख रहे हैं हिन्दी की सेवा ही कर रहे है उन्हें बेरोकटोक करने दिया जाय …..उन्ही की सेवा सुश्रुषा से हिन्दी फल फूल रही है …..हाय या हा हिन्दी करने का समय अब नहीं रहा !
ओह! मैने तो विनय पत्रिका नहीं पढ़ी। अब पढ़ा जाये या नहीं?! तुलसी को दिवंगत हुये शताब्दियां गुजर गयीं!
बकिया, हिन्दी सेवा तो लोग हचक के कर रहे हैं। कौनो हाथ तो पकड़ा नहीं उनका! 😆
अज्ञेय के लेखन को पढ़ लेने मात्र से आप के अंदर आलोचक की आत्मा प्रवेश कर गई लगती है। वर्ना आप पिंजरपोल का वर्णन कर रहे होते। गाँव जाते वहाँ ट्रेक्टरों से होती खेती देखते। गाँव में कहीं बैलगाड़ी दिखाई नहीं देती। गौपुत्र सारे एक लाइन में गाँव से ताड़े जाते दिखाते। तब बताया जाता कि इलाहाबाद की सड़कों पर वृषभ पंक्तियाँ क्यों इधर उधर मुहँ मारती दिखाई देती हैं। गौ-सेषा तो बहुत हो चुकी, वहाँ शायद अब स्कोप नहीं रहा। अब जरा हिन्दी सेवा तो करने दीजिए।
बिना हलचल स्वास्थ्य प्राप्त ही नहीं हो सकता। सजा कर रख दिये जीवित प्राणी को, कुछ ही दिनों में कृशकाय हो जायेगा। सब बाहर निकलें, प्रयोगों के खेल खेलें, नये शब्दों के खेल खेलें, मनोरंजन भी मिलेगा और स्वास्थ्य भी।
हमने तो बहुत पहले ही कह दिया था. “हिन्दी का दोहन करो, सेवा इसे मार देगी”. हमें क्या मालूम था कि मामला इत्ता पूराना है तब भी ज्ञानीजन सेवकों से घबराए हुए थे.
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इन सेवकों से शिवजी के गण भी घबरायें, ज्ञानीजन किस खेत की मूली हैं!
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लेखक चाहे वह अज्ञेय हों या भारती, प्रेमचन्द्र हों या यशपाल विद्यार्थी हों या शिवपूजन सहाय, सभी में मानवोचित गुण-दोष थे और आगे भी जो स्वनामधन्य होंगे उनमें भी यह गुण-दोष रहेंगे। अज्ञेय नें बहुत अच्छा भी लिखा है तो बहुत कूड़ा भी। अब यह परखनें की दृष्टि मेरी है और मेरी मानसिकता को कब भाती है यह देश-काल-परिस्थिति पर निर्भर करता है। कालजयी रचना के पैमाने पर अगर वाल्मीकि कालिदास और तुलसी आज भी जीवित है तो बाकियों की कालजयता पर प्रश्न चिन्ह अवश्य उठता है। कभी-कभी शीर्ष पर पहुँचे साहित्यकार जब निज भाषा को हेय दृष्टि से देखनें लगें तो समझ लीजिये अब उसके पढ़ने-पढ़ानें के दिन समाप्त हुए। भाषा के प्रति श्रद्धा विश्वास और समर्पण जैसा बंगला में मिलता है वैसा क्या हम हिन्दी भाषियों में कभी देख पाऎंगे?
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मैं भी यही कहना चाहता हूं कि भाषा के प्रति समर्पण नहीं है हिन्दी वालों में। बिल्कुल वैसे जैसे लोगों का गाय के प्रति नहीं है या गंगा के प्रति नहीं है। हिन्दी का प्रयोग जोड़-तोड़/पर्सनल एडवांसमेण्ट के लिये ज्यादा हो रहा है। शायद समस्या हिन्दी/गंगा/गाय को ले कर नहीं – मानवीय मूल्यों को ले कर है। ये तो घर के बाहर के प्रतीक हैं। घर में भी देखें तो माई-बाबू की वैसी ही उपेक्षा हो रही है, जैसी इनकी! 😥
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@ भाषा के प्रति श्रद्धा विश्वास और समर्पण जैसा बंगला में मिलता है वैसा क्या हम हिन्दी भाषियों में कभी देख पाऎंगे?
— कारण स्पष्ट है कि बंग्ला उनकी वर्नाकुलर है, जरा हिन्दी देखिये, घर में और, विश्वविद्यालय में और, बजार में और, लेखन में और, ..!
हिन्दी के सा
ठथ यह त्रासदी है कि इसका क्षेत्र जितना ही व्यापक दिखता है, यथार्थ में उतना ही बंटा हुआ है विविध देशभाषाओं में। ये स्वायत्त भी हैं, स्वत्व चेतना इनकी मांग को बढ़ावा दे रही है, आगे यह प्रवृत्ति मुखर होगी। इसे हम गलत भी नहीं कह सकते।LikeLike
मेरे ख्याल से वर्नाकुलर तक की बात नहीं है। हिन्दी भाषी क्षेत्र में सांस्कृतिक क्षरण का मामला है। हिन्दी को अलग नहीं – गंगा, गाय और माई-बाबू की उपेक्षा से जोड़ कर देखें!
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हिन्दी के नाम पर बार-बार खन-बहाने वाले बाबू खन-बहाया जी की हिन्दी सेवा का ये आलम है कि जो कोई हिन्दी के विलुप्त हो रहे शब्दों को अपने बोलचाल में इस्तेमाल करता है उसे वे सर्वश्रेष्ठ हिन्दीसेवी का मानपत्र दे देते हैं। सुना है आजकल झण्डू बाम फेम मुन्नी जी को उन्होंने सर्वश्रेष्ठ हिन्दीसेवी मानना शुरू किया है क्योंकि मुन्नी जी ने अपने गीतों में – मैं ‘टकसाल’ हुई तेरे लिये – कहते समय हिन्दी के विलुप्तीकरण के कगार पर खड़े शब्द ‘टकसाल’ का इस्तेमाल किया।
ये अलग बात है कि उसी गीत में ‘डार्लिंग’ और ‘फिगर’ जैसे शब्दों का भी इस्तेमाल हुआ जिसके बारे में बाबू खन-बहाया जी का कहना है कि नई पीढ़ी को आकर्षित करने के लिये ऐसे चटक मटक शब्दों का इस्तेमाल करने में कोई बुराई नहीं है बल्कि ये भी एक प्रकार की हिन्दीसेवा है जिसके कारण नई पीढ़ी को टकसाल जैसे विलुप्त हो रहे शब्द से परिचित कराने में आसानी हुई 🙂
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हिन्दी सेवा पर क्या मानपत्र दें, अरविन्द मिश्र जी तो लाल-पीले हुये जा रहे हैं! उन्हे ही दे दें!
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किसी को मानपत्र देने की पात्रता केवल खन बहाया टाइप के लोगों के पास होती है, जो कि खनते-खनते पाताल से भी हिन्दी सेवी पकड़ लाने की क्षमता रखते हैं। और जहां तक मैं समझता हूँ, आप केवल गंगा जी की बालू खुलिहारने की क्षमता रखते हैं….. उसे गहरे तक खनने की नहीं 🙂
ऐसे में आप किसी को मानपत्र देने की योग्यता खुद ब खुद खो देते हैं…..यह काम खन बहाया टाइप लोगों के लिये छोड़ा जा सकता है 🙂
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khan bahaya type…….sambhav ho to …………doosre..tisre tarike se samjhayen…….
pranam.
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यह परमानेण्ट टोटका है, फिर कभी आयेगा ही किसी प्रोवोकेशन पर इस ब्लॉग में! 😆
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” हम ने गोरक्षा के नाम पर सारे भारतवर्ष को एक विराट पिंजरापोल बना डाला। जिसका गो धन सारे संसार में निकृष्ट कोटि का है। क्या हम हिन्दी रक्षा के नाम पर अपने साहित्य को भी एक पिंजरापोल बना डालेंगे, जिसमें उत्पादक तो असंख्य होंगे, लेकिन सभी अधभूखे, अधमरे, निस्तेज; जिसकी प्रतिभा अनुर्वर होगी और उत्पादन उपहासास्पद (यद्यपि उसपर हंसने की अनुमति किसी को न होगी!) “
हा हा हा हा,
चाहे टोटका ही कह लीजिये पर अज्ञेय का एक बहुत ही सामयिक लेख-अंश निकाल कर लाये हैं आप, धन्यवाद इसके लिये…
वैसे क्या अब समय नहीं आ गया है कि तथाकथित हिन्दी सेवक-हितैषी इन पाखंडी महंतों की लुंगी सरेआम खोल फेंकी जाये ताकि यह किसी कोने में जा छिपने को मजबूर हो जायें… 🙂
…
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हिन्दी हितैषी बहुमत में हैं! 😦
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लगता है वर्षों पुरानी पुस्तक अब आपके हाथ आयी है और अज्ञेय के दिवंगत हुए भी वर्षों बीत गए -हाँ वे प्रासंगिक अभी भी हैं ..मगर उनके हवाले से आप क्या कहना चाहते हैं ज्ञान जी ? प्रकारांतर से यह कि असली हिन्दी हितैष्णा बस आपमें है और बाकी सब लल्लू पंजू 🙂
जरा अज्ञेय की इन्ही पंक्तियों को फिर पढ़िए और हिन्दी के सहज स्तर पर मनन कीजिये ..अगर यही लेख अरविन्द मिश्र ने लिखा होता जो शायद लिख भी लेते ऐसा ..तो यह बुराई शुरू होती कि बड़ा क्लिष्ट लेख है ..और शब्दों को सूक्ष्मदर्शी/चिमटी से देख उठाना पड़ सकता है (यह आपने ही कह रखा है ) ..दरअसल हम ब्लॉगर एक तरह की ग्रंथि से ग्रस्त है –मेरा लेखन /मेरा ब्लॉग सबसे बेहतर है …पते की बात तो केवल हमीं लिखते है और पढ़ते हैं बाकी सब कचरा माल है,पियोर गोबर …
मुझे लगता है इस ग्रंथि से स्वनामधन्य ब्लॉगर मुक्त हों तभी बात बनेगी ….
अज्ञेय ने बहुत कुछ कहा है ….हमें लगता है, लोगों को जिस तरह वे लिख रहे हैं हिन्दी की सेवा ही कर रहे है उन्हें बेरोकटोक करने दिया जाय …..उन्ही की सेवा सुश्रुषा से हिन्दी फल फूल रही है …..हाय या हा हिन्दी करने का समय अब नहीं रहा !
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ओह! मैने तो विनय पत्रिका नहीं पढ़ी। अब पढ़ा जाये या नहीं?! तुलसी को दिवंगत हुये शताब्दियां गुजर गयीं!
बकिया, हिन्दी सेवा तो लोग हचक के कर रहे हैं। कौनो हाथ तो पकड़ा नहीं उनका! 😆
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यह नारा कैसा रहेगा?
चलो करें हम हिंदी सेवा
मिलता जाए चिंदी मेवा
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बहुत सही, हिन्दी सेवा जो होनी है, नारों से होनी है। 🙂
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अज्ञेय के लेखन को पढ़ लेने मात्र से आप के अंदर आलोचक की आत्मा प्रवेश कर गई लगती है। वर्ना आप पिंजरपोल का वर्णन कर रहे होते। गाँव जाते वहाँ ट्रेक्टरों से होती खेती देखते। गाँव में कहीं बैलगाड़ी दिखाई नहीं देती। गौपुत्र सारे एक लाइन में गाँव से ताड़े जाते दिखाते। तब बताया जाता कि इलाहाबाद की सड़कों पर वृषभ पंक्तियाँ क्यों इधर उधर मुहँ मारती दिखाई देती हैं। गौ-सेषा तो बहुत हो चुकी, वहाँ शायद अब स्कोप नहीं रहा। अब जरा हिन्दी सेवा तो करने दीजिए।
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भारत में गौ सेवा होती है, गंगा सेवा होती है, हिन्दी सेवा होती है। और भी सेवायें होती होंगी।
पर जिसकी भी सेवा हो रही है, वह सूख रहा है! 😆
हिन्दी सेवक जुझारू हैं। पूरी बेशर्मी से हिन्दीसेवा करते हैं।
मेरी अनुमति की जरूरत कहां! मैं तो आलोचना नहीं, मात्र रिपोर्टिंग कर रहा हूं। 🙂
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“जिसकी भी सेवा हो रही है, वह सूख रहा है” – exactly.
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बिना हलचल स्वास्थ्य प्राप्त ही नहीं हो सकता। सजा कर रख दिये जीवित प्राणी को, कुछ ही दिनों में कृशकाय हो जायेगा। सब बाहर निकलें, प्रयोगों के खेल खेलें, नये शब्दों के खेल खेलें, मनोरंजन भी मिलेगा और स्वास्थ्य भी।
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भदेसियत के प्रयोगों से उदर बढ़ता है। ऊर्जा कुन्द होती है! 🙂
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आपके अनुमान पुष्टि की प्रबल संभावना है.
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हां। लगता है!
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@जर्सी गायें कितनी हैं भाई?
What about a Boston Brahmin?
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निर्यतित ब्राह्मण बहुत सक्षम हो जाता है! 😆
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