दिनांक 30 जुलाई रात्रि। अपने सैलून में – जहाज का पंछी, जहाज में वापस।
दो दिन के सिकन्दराबाद प्रवास के बाद मैं अपनी रेल गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहा हूं। मुझे आम यात्री की तरह प्लेटफार्म पर अनवरत चलने वाले अनाउंसमेण्ट के बीच एक आंख अपने सामान पर और दूसरी आने जाने वाले लोगों पर नहीं रखनी है। अपने सैलून में अपने कक्ष में बैठा मैं लैपटॉप खोले लिखने का काम भी कर रहा हूं और ट्रेन में सैलून लगने का इंतजार भी। यह भी हो सकता है कि नींद की दवा असर करने लगे और बिना ट्रेन में सैलून लगने की प्रतीक्षा किये सोने भी चला जाऊं। यह भी हो सकता है कि नींद न आये तो यहां से वारंगल तक की यात्रा जागते जागते गुजार दूं। सब कुछ टेनटेटिव है, सिवाय इसके कि मैं अब वापस अपने घर की ओर लौटूंगा।
जिस गाड़ी में मेरा सैलून लगना है वह यहां से वारंगल के रास्ते मछलीपतनम जाती है। मुझे तो रात तीन-चार बजे वारंगल से इलाहाबाद जाने वाली गाड़ी पकड़नी है। लिहाजा मेरा सैलून वारंगल में कट जायेगा और दूसरी गाड़ी में जुड़ेगा। अगर सवेरे समय पर उठा तो मैं या तो रामगुण्डम पास हो रहा होऊंगा या मनचेरियल। अखबार तो मुझे बल्लारशाह में ही मिलेगा। नागपुर का छपा हितवाद।
मैने जो पैसे छोटेलाल को दिये थे यहां आते समय सब्जी-भाजी-दूध-अखबार के लिये, उसे छोड़ एक धेला खर्च नहीं हुआ है मेरा इस यात्रा में। लोग यहां से कृत्रिम मोती खरीदते हैं। मेरी पत्नीजी ने मुझे वह और साड़ी खरीदने की बात कही थी। पर उन्हे यह भी मालुम है कि मैं यह सब खरीददरी करने में निपट गंवार हूं। मुझे कोई जानकार साथी मिला भी नहीं और मैने उसकी तलाश भी नहीं की!
अब किताब खरीदी भी दुकान जा कर नहीं होती। इण्टरनेट के माध्यम से हो जाती है। वही एक शॉपिंग मुझे आती थी, उसका की चांस जाता रहा! :sad:
इस बीच मेरी गाड़ी भी रवाना हो चुकी है। नींद नहीं आ रही। मैं छोटेलाल को एक कप चाय बनाने को भी कह सकता हूं। उस आदेश पर वह कुड़बुड़ायेगा जरूर। रसोई का काम बन्द कर वह सोने की तैयारी में होगा। तय नहीं कर पा रहा कि अपने अधिकार का प्रयोग करूं या अपनी जरूरत का दमन। मेरे ख्याल से एक गिलास पानी पी कर काम चला लेना चाहिये।
गाड़ी की रफ्तार तेज हो गयी है। यह टाइपिंग बन्द करता हूं।
दिनांक 31 जुलाई सवेरे : एक दिन पहले हैदराबाद सैर का वर्णन।
रात में नींद आई और नहीं भी। वारंगल में तीन बजे एक बार नींद खुली। फिर अहसास हुआ कि घण्टे भर बाद – लगभग नींद में कि किसी दूसरी गाड़ी में सैलून लगने की शंटिंग हो रही है। उसके बाद तेज रफ्तार का अहसास। फिर एक नींद का झोंका जिसमें सपना कि मुझे एक सांप ने काटा है और मैं अपने को अस्पताल ले जा कर एण्टी-वेनम इंजेक्शन दिलवाले का प्रयास कर रहा हूं। बार बार यह अहसास हो रहा है कि काटने के बाद मुझे कोई विशेष दर्द या बेहोशी तो है नहीं। पर बार बार यह आशंका भी है कि आगे कभी जहर का असर हुआ तो?! आखिर, कुछ सांप होते होंगे जिनके काटे का असर टाइम – डिले के साथ होता हो!
सवेरे उठने की जल्दी नहीं थी, और दिखाई भी नहीं मैने। अब नाश्ते के बाद कम्प्यूटर ले कर बैठा हूं तो इण्टरनेट गायब है। साढ़े नौ बज रहे हैं। पौने बारह बजे नागपुर आयेगा – तब शायद इण्टरनेट चले। मन में तय करता हूं कि उसमें क्या क्या देखना है। मजे की बात है कि कल असगर वज़ाहत का ईरान और अज़रबैजान का ट्रेवेलॉग – चलते तो अच्छा था पढ़ रहा था। उसमें अज़रबैजान (काकेशिया – कोहे काफ) की सुन्दरियों का जिक्र है। अज़रबैजान की ये सुन्दरियां लम्बे कद की (इतना लम्बा कि बुरा न लगे), बाल काले कि काले से भी काले और शरीर का हर भाग अनुपात में कि चाल ढ़ाल में राजसी ठसक वाली हैं – इन सुन्दरियों को इण्टरनेट पर खोजना है। अब देखें न कि छप्पन साल की उम्र होने को आई, और अगर वज़ाहत को न पढ़ता तो कोह-ए-काफ का पता ही न चलता!
यूं, अगर सिकन्दराबाद न आया होता और अपने साथ दक्षिण मध्य रेलवे के ट्रेफिक इंस्पेक्टर श्री राजी राजा रेड्डी के साथ अकेले न घूमा होता तो मुझे तेलंगाना के विषय में तेलंगाइट्स में इतनी गहरी हो गयी भावना का पता भी न चलता। रेड्डी सिकन्दराबाद के पास रंगारेड्डी जिले के हैं। उम्र चौव्वन साल। गुण्टकल और सिकन्दराबाद रेल मण्डलों में यार्ड में काम किया है। उसके बाद दक्षिण मध्य रेलवे के जोनल कार्यालय में वर्क-स्टडी निरीक्षक के रूप में। इस समय ट्रेफिक योजना का काम देखते हैं। मेरे साथ उन्हे बतौर प्रोटोकॉल निरीक्षक के रूप में नियुक्त किया गया मेरे सिकन्दराबाद प्रवास के दौरान। वे तेलंगाना प्रांत की अवधारणा के प्रबल समर्थक है। पिछले पचास साठ सालों में आन्ध्र वालों के तेलंगाना पर अत्याचार और सौतेले व्यवहार को उन्होने बारम्बार बताया। इतना बताया कि आन्ध्र वालों की बजाय अंग्रेज और सालार जंग बेहतर शासक लगें। उनके अनुसार तेलंगाना को सुनियोजित तरीके से लूटा है आन्ध्र के नेताओं ने। पानी, जमीन और धन का आन्ध्र के पक्ष में दोहन किया। रेड्डी बीच बीच में कुछ आंकड़े भी दे रहे थे, जो मैं लिखने या बाद में वैरीफाई करने के मूड में नहीं था। पर तेलंगाना मुद्दे पर उनका समर्थन मैने बार बार किया। मेरे पास कोई अन्य तर्क रखने का न चांस था, न मेरे पास तर्क थे!
तेलंगाना पर उनकी सोच में आन्ध्र के प्रति वैसी तल्खी थी, जैसे कारगिल युद्ध के समय भारत में पाकिस्तान (या बेहतर कहें तो पाकिस्तान में भारत) के प्रति होती होगी। भारत के राजनेताओं का इससे बेहतर उदाहरण क्या हो सकता है काइंयापन का! अपने ही देश में इस तरह का द्वेष पनपने का अवसर और कारण उत्पन्न कराया उन्होने!
दो घण्टे कार में बैठे बैठे मैने हैदराबाद का भ्रमण किया। उसमें जितना देखा और श्री रेड्डी के भाषण के माध्यम से जितना जाना, वही मैं अपने पर्यटन के नाम पर कह सकता हूं।
हुसैन सागर के बन्ध रोड और नेकलेस रोड पर कार में ही घूमा। एक जगह उतर कर सड़क पार करने के यत्न में तेज रफ्तार ट्रेफिक से मेरी विकेट गिरते गिरते बची! कार के ड्राइवर ने उतर कर अपने सधे हाथों से यातायात रोकते हुये मेरे लिये रास्ता बनाया। एक दो चित्र लेने के चक्कर में इतनी मशक्कत!
हुसैन सागर का पानी पीने लायक नहीं है। इसमें मूसी नदी का पानी आ कर मिलता है। मूसी नदी जो हैदराबाद में घूमती है और उसपर हैदराबाद में 150 से ज्यादा पुल हैं। यह नदी नदी कम नाला ज्यादा बन गई है।
हुसैन सागर में एक दो जलाशयों का पानी भी छोड़ा जाता है। उनका जिक्र करते समय आन्ध्र का पानी के मामले में तेलंगाना से सौतेला व्यवहार का उदाहरण देने का मौका नहीं छोड़ा रेड्डी गारू ने।
मूसी नदी देखते समय मेरे मन में इन्दौर की खान नदी, उज्जैन की क्षिप्रा और वाराणसी की वरुणा याद आ गयी! ये सभी भी नाला बन चुकी हैं या नाला बनने को उन्मुख हैं! हां, मूसी नदी के एक ओर नारियल के घने वृक्ष बहुत मन मोहक लगे। चलती कार से उनका सही सही चित्र नहीं ले पाया मैं।
सालारजंग म्यूजियम की इमारत का एक चक्कर कार में बैठे बैठे लगाया, बहुत कुछ वैसे जैसे गणपति ने अपने माता-पिता का लगा कर यह मान लिया था कि उन्होने दुनियां का अनुभव कर लिया! न समय था, न भाव कि अन्दर जा कर देखूं कि दुनियां के कोने कोने से निज़ाम सालारजंग क्या क्या लाये थे इस म्यूजियम के लिये।
चार मीनार इलाके को ध्यान से देखा – मानो चान्दनी चौक, दरियागंज या मूरी मार्किट हो। मुस्लिम महिलायें बुरके और हिज़ाब में खरीददारी कर रही थीं। बहुत कुछ एथनिक दृष्य। लगा कि शहर है तो अपनी पूरी गन्ध और सांसों के साथ यहीं है। एक नौजवान अपनी बुर्कानशीन बीबी का हाथ पकड़े चल रहा था। कार में बैठे बैठे मैने उसका हाथ थामे चित्र लेने का भरसक यत्न किया। असफल! चारमीनार के पास चार पांच मिनट को कार से उतरा और उसके बाद हैदराबाद पर्यटन को इति कर वापसी का रास्ता पकड़ा!
वापसी में एक जगह मैने एक महिला मोची को देखा फुटपाथ पर। पहली बार एक महिला मोची! एक चप्पल की मरम्मत करते हुये। इससे पहले कि चित्र लेता कार मोड़ पर आगे बढ़ गई थी।
आगे सुल्तान बाजार था। उसके ऊपर से मेट्रो गुजरने वाली है। बकौल रेड्डी आन्ध्रा वालों ने योजना बनाई है मेट्रो ऊपर से ले जाने की जिससे धरातल पर बसे इस बाजार का अस्तित्व संकट में आ जाये। बेचारे तेलंगाना वाले जो सुल्तान बाजार के छोटे दुकानदार हैं, उनके पास चारा नहीं विरोध करने के अलावा – मेट्रो जमीन के नीचे ले कर जायें या फिर न ले कर जायें। तेलंगाना वालों के पेट पर लात मारना ठीक नहीं! हर मामला तेलंगाना-आन्ध्रा से जुड़ गया है!
एक चीज मैने ध्यान दी – तेजी से बताने के चक्कर में, या तेलंगाना मुद्दे की सनसनी में रेड्डी गारू हिन्दी से सीधे तेलुगू में सरक आ रहे थे और यह फिक्र नहीं कर रहे थे कि अगले को समझ नहीं आ रहा होगा। कुल मिला कर सरल और प्रिय व्यक्तित्व वाले राजी राजा रेड्डी! उनसे बिछुड़ते समय मन भर आया। मैने उन्हे गले लगाया और उन्होने नीचे झुक कर प्रणाम किया – शायद ब्राह्मण मान कर या शायद अफसर मान कर!
सिकन्दराबाद सफाई के मामले में बेहतर है उत्तर भारत से। पर यातायात को यहां भी तोड़ते देखा लोगों को। क्रासिंग पर यातायात रुकते ही फुटपाथ तक पर चले आते दुपहिया वाहन देखे। सड़क पर और डिवाइडर पर गाय-बैल भी दिखे। कुल मिला कर यह महानगर था, दक्खिन में था, पर मुझ छोटे शहर के यूपोरियन को अटपटा नहीं लगा!
अब जाने कब मौका मिले हैदराबाद जाने का!

ये हुआ जानदार यात्रा वृतांत…आनन्द आ गया. छोटे लाल से मांग ही लेना था चाय. :)
फोटो मस्त आये हैं.
LikeLike
यात्रा शायद जानदार न रही हो, वृतांत मेरी नॉर्मल पोस्ट से तिगुना लम्बा है! :lol:
LikeLike
धुरंधर धाँसू ब्लागिंग ….कितनी बातें ,कितनी जानकारियाँ ….कोहेकाफ की सुंदरियां भी …जन्नत की सैर …
सैलून नाई का भी और रेल के उच्च अधिकारी का भी -यह शब्द साम्य क्यों ? प्रकाश डालें !
LikeLike
Etymological Dictionary में काफी प्रयोग दीखते हैं सैलून के। बाकी, मैं भाषाविद नहीं जो प्रकाश डाल सकूं। :)
LikeLike
ultimate, man prasann kar diya aapne, ek bar fir…..bas ek baat khatki vo ye ki kya aapne is se pahle वज़ाहत sahab ko nahi padha, unke natak ya upanyas?
jin lahore vekhya nai vo janmya hi nai jaise natak se lekar kaisi aagi lagai jaisa kathank padhne se aap chuk kaise gaye unki?….
LikeLike
हां यह तो है संजीत, असगर वज़ाहत को मैने फुटकर पत्रिकाओं में ही पढ़ा था पहले। नाटक और उपन्यास कभी नहीं पढ़े उनके। अब देखता हूं!
LikeLike
बढिया यात्रा वृत्तांत है।
सैलून पढ़कर मुझे लगा कि सिकन्दराबाद में भी कोई पोल्सन टाइप, बीस रूपये की जलेबी वाला शख्स तो नहीं मिल गया :)
हवाई यात्रा को टालकर किताब पढ़ने को प्राथमिकता देने से पता चलता है कि आप कितने बड़े कि.की. हैं :)
LikeLike
मैने सैलून शब्द का प्रयोग किया चूंकि आम बोल चाल में यह प्रयोग करते हैं। अन्यथा रेलवे में हम कैरिज (Carriage) का ही प्रयोग करते हैं। उसमें जलेबी मंगाने के लिये बहुत यत्न करने होंगे। सामान्य खाना तो बन जाता है! :)
किताबें हाल में बहुत खरीदी-पढ़ीं। लगता है यह काम कुछ ज्यादा कुशलता से करने लगा हूं। :)
LikeLike
sahi hai…….ye aapke naap se bari hai………….to thori si naap bari ki jai dadda……………
pranam.
LikeLike
कभी लगता है कि पोस्ट टुकडों में बांट देता तो तीन बार का काम चल जाता! :)
LikeLike
जब-जब आप सेलून पर (या से) पोस्ट लिखते हैं तो आपके शिखर के एकांत वाली पोस्ट याद आती है|
“अज़रबैजान की ये सुन्दरियां—- ”
ओह! तो आपके अंदर भी दिल बसता ही नही अपितु धडकता भी है!! सुकून मिला जानकार| वरना मैं तो सोच रहा था कि आप भी वृषभ लग्न वाले मुझ जातक की तरह ही लगे रहते होंगे २४ बाई ७ काम में| :)
LikeLike
इन अजरबैजान / कोह-ए-काफ की सुन्दरियों को खोज नहीं पाया नेट पर। अज़रबैजान के राष्ट्रपति की पत्नी मेहरीबान लैला अलीयेवा का चित्र जरूर दिखा। वे वास्तव में सुन्दर हैं। पर कोह-ए-काफ की सुन्दरियों की कल्पना की तरह नहीं। या शायद हों भी! बाल काले से भी काले नहीं लगते!
यह जातक की तरह जुते रहने वाली बात बड़ी मजेदार है! :)
LikeLike
आदरणीय ज्ञान दत्त जी,
सिकन्दराबाद-हैदराबाद नाम देखा तो रहा नहीं गया क्योंकि अपने शहर का मोह तो होता ही है । आपका यात्रा-वृतांत पढ़ा बहुत अच्छे लेखक हैं आप …आपकी याददास्त की दाद देनी पड़ेगी ।आपने हैदराबाद में जो देखा उसका वर्णन तो बहुत सलीके से किया लेकिन अपने भाई-बंधुओं की तो न ही चर्चा की और न ही अपने आने की भनक ही लगने दी कम से कम बताए होते तो हम जैसे छोटे ब्लागर और अन्य ब्लागर भी आपसे मिल लेते शायद राजा गारू के चक्कर में प्रजा रह ही गई …कोई बात नहीं फिर कभी सही ……
सार्थक लेख केलिए बहुत बहुत शुभकामनाएं…..
LikeLike
डा. रमा जी, यह तो आपने सही पकड़ा कि मैने बहुत चर्चा नहीं की अपनी यात्रा की। मैं बहुत नेटवर्कर ब्लॉगर हूं नहीं। :(
पर मैने सेवाग्राम वाली पोस्ट पर फुट नोट जरूर दिया है – क्षमा करें, टिप्पणियों के मॉडरेशन और प्रकाशित करने में देरी सम्भव है। उनतीस और तीस जुलाई को मैं सिकन्दराबाद में व्यस्त रहूंगा।
आपने मुझे इस टिप्पणी में सम्मान दिया, बहुत धन्यवाद।
————–
बहुत जानदार हैं आपके हाइकू –
LikeLike
आधे घंटे से आपके ब्लॉग पर बैठा हूँ. अन्दर की यात्रा जो थी. मन मोह लिया. मूसी नदी पर धोबी घाट बड़ा विचित्र है, जैसे आजकल के मोडर्न दफ्तरों में क्युबिकल्स रहते हैं.
LikeLike
ओह, वह धोबीघाट देखना रह ही गया। :-(
वैसे इलाहाबाद का धोबीघाट भी कुछ मॉडर्न सा है। एक चक्कर उसका लगाता हूं कभी!
LikeLike
सालारजंग संग्रहालय तो पूरा देख ही लेना चाहिए था , कई बार देखने के बाद भी मेरा तो मन नहीं भरा कभी ….नायाब संग्रह है !
नेकलेस रोड तो मैं भी नहीं देख पायी , भाई भतीजे बता रहे थे इस बारे में …
मंच्रियाल ,वारंगल …पोस्ट ने कितनी ही यादों को ताजा कर दिया!
LikeLike
चलिये, आपके कहे अनुसार अगली बार सालारजंग संग्रहालय अवश्य देखूंगा वाणी जी!
और आपकी यादें अगर ताजा हो गयी हैं तो उनके बारे में लिखिये न!
LikeLike
तेज गति से यात्रा हो रही है, जैसे कंडक्टेड टूर का बस.
LikeLike
बाहर तो निमित्त भर था। यात्रा तो अन्दर थी।
LikeLike