अलाव, जवाहिर और आठ बिगहा खेत

मैं कुहासे और काम के बोझ में सवेरे की सैर पर जाने वाला नहीं था, पर लगता है गंगामाई ने आमन्त्रण देते कहा कि तनी आवा, बहुत दिन्ना भये चक्कर नाहीं लगावत हय (जरा आओ, बहुत दिन से चक्कर नहीं लगा रहे हो)। और गया तो कुछ न कुछ बदलाव तो पाया ही।

शिवकुटी घाट के आगे जमीन से चिपका था कोहरा।

गंगाजी लगभग पचीस लाठी और पीछे हट गयी हैं।  कछार में कोहरा पानी की परत सा जमा था – उसके ऊपर दिख रहा था पर कोहरे की ऊंचाई – लगभग आठ दस फीट तक नही दिखाई पड़ रहा था। इक्का दुक्का डाई-हार्ड स्नानक (बारहों महीना गंगा नहाने वाले) स्नान कर लौट रहे थे। गंगाजी के पीछे हटने से लोगों ने अपने खेत उनके द्वारा खाली की जगह पर और आगे सरका लिये थे।

एक डाई-हार्ड गंगा स्नानक स्नान के बाद कोहरे में लौटता हुआ। उसके बायें हाथ में गंगाजल की बोतल है और दायें हाथ में गमछा-कपड़े आदि का झोला।

घाट की सीढ़ियों पर वृद्धों के लिये बन रहा रैम्प और घाट का विस्तार काफी कुछ हो गया था। एक बालू, बजरी, गिट्टी मिक्सर भी किनारे पड़ा था – अर्थात काम चल रहा है आजकल।

कल्लू की झोंपड़ी में कोई कम्बल ताने सो रहा था। कल्लू ही होना चाहिये। यानी कोहरे में भी खेत की रखवाली करने की जरूरत बन रही है – यद्यपि मटर के पौधे अभी बहुत बढ़े नहीं हैं।

कल्लू की झोंपड़ी में सोया था कोई और उसके खेत में मटर के पौधे बड़े हो रहे थे।

जवाहिरलाल वापस आ गया है। अपनी प्रवृत्ति के विपरीत एक पूरा स्वेटर और उसपर जाकिट पहने था। जलाऊ लकड़ी और घास बीन कर अलाव जला रहा था। बाल मिलेटरी कट कटवा रखे थे और दाढ़ी भी बनवा रखी थी। जवाहिरलाल अघोरी नहीं, जैण्टिलमैन लग रहा था।

पण्डा चुहुल कर रहे थे जवाहिर से कि बाल बहुत बढ़िया कटाया है। आर्मी में भर्ती हो सकता है जवाहिर। पूछने पर जवाहिर ने बताया कि उससे पन्द्रह रुपये लेता है नाई बाल बनाने और दाढ़ी के। अऊरन से बीस लेथ, हमसे पन्द्रह। दोस्त अहई सार (औरों से बीस रुपये लेता है, मुझसे पन्द्रह। दोस्त है साला)।

कहां चला गया था जवाहिर? मैने उसी से पूछा तो उसने बताया कि वह अपने गांव बहादुरपुर, मछलीशहर गया था। पण्डाजी ने बताया कि इसके पास आठ बिगहा जमीन है। बीवी बच्चे नहीं हैं तो भाई बन्द हड़पने के चक्कर में हैं जमीन और यह इस फिराक में है कि किसी तरह बेंच कर वहां से निकल ले।

आठ बिगहा! यानी मुझसे ज्यादा अमीर है जवाहिर जमीन के मामले में! मैं अपने मन में जवाहिर के प्रति इज्जत में इजाफा कर लेता हूं। यूपोरियन परिवेश में जमीन ही व्यक्ति की सम्पन्नता का खरा माप है न!

अलाव जलाया था जवाहिरलाल ने। साथ में पीछे आग तापने एक और व्यक्ति आ गया था।

जवाहिर लाल पहले नीम के कोटर में दातुन रखता था। पर कुछ महीने पहले वहां से दातुन निकालते समय उसमें बैठे नाग-नागिन ने उसे काट खाया। अब वह कोटर की बजाय पण्डाजी की चौकी के नीचे रखता है दातुन। मेरे सामने उसने वहां से दातुन निकाली और एक ईंट से उसका फल कूंच कर ब्रश बनाने लगा।

क्या, जवाहिर, दांत से मुखारी नहीं कूंचते तुम?

थोड़ा लजा गया जवाहिर। नाहीं, दंतये सरये हिलई लाग हयेन्। (नहीं, दांत साले हिलने लगे हैं)। जवाहिर लाल की उम्र कम नहीं होगी। बाल काले हैं। शरीर गठा हुआ। पर उम्र कहीं न कहीं तो झलक दिखाती है। सो दांत हिलने लगे हैं। इस समय मैने देखा तो कुछ अस्वस्थ भी लगा वह। शायद तभी जाकिट और स्वेटर पहने था। कुछ खांस भी रहा था।

अगर अपनी जमीन बेचने में सफल हो जाता है वह, तो आठ दस लाख तो पायेगा ही। एक कम खर्च व्यक्ति के लिये यह बहुत बड़ी रकम है जिन्दगी काटने के लिये। पर मुझे नहीं लगता कि जवाहिर पैसे का प्रबन्धन जानता होगा!

क्या वास्तव में नहीं जानता होगा? कितनी बार मैने जो आकलन किया है, सरासर गलत निकला है। गंगाजी की जलधारा की प्रवृत्ति, प्रकृति के बारे में तो लगभग रोज गलत सोचता पाया जाता हूं। कछार में खेती करते लोग बहुधा अपने कौशल और ज्ञान से चमत्कृत करते हैं। इसलिये कह नहीं सकते कि जवाहिरलाल कितना सफल निकलेगा।

यू डेयर नॉट प्रेडिक्ट ऐनीथिंग जीडी! यू बैटर नॉट! तुम मात्र किताब और थ्योरी के कीड़े हो। — मैं अपने से कहता हूं। और आठ बीघा जमीन का मन में विजुअलाइजेशन करता घर लौटता हूं!

अपडेट – ऊपर जो लिखा, वह कल देखा था। आज रात में कोहरा नहीं रहा मेरे उत्तर मध्य जोन में। रेल गाड़ियां बेहतर चलीं। जितनी मालगाड़ियां हमने लीं, उसके मुकाबले लगभग तीस मालगाड़ियां और निकाल कर बाहर भेज पाये और लगभग अठारह सौ मालडिब्बे जो हमारे यहां फंसे थे, बाहर कर दिये हैं। मेरी टीम ने मेरी अपेक्षा से कहीं ज्यादा बेहतर काम किया है। जो लोग फ्रण्टलाइन छवि के आधार पर हमारी आलोचना करते हैं, उन्हे विषम परिस्थिति में दिन रात लग कर काम करने के इस जज्बे को समझने का अवसर शायद नहीं मिलेगा – सिवाय मेरे जैसे के इस तरह के लेखन में उल्लेख के! :lol:

अपडेट २ – नीचे टिप्पणी में श्री दिनेशराय जी ने पूछा कि जवाहिर क्या काम करता है। वह दिहाड़ी पर लेबर का काम करता है। आज पाया कि अलाव पर उसके इर्दगिर्द बहुत लोग थे। उनसे बात कर रहा था वह कि इस समय कोई काम नहीं मिल रहा है। पण्डाजी ने कहा कि अगर नौ दस बजे घाट पर उपस्थित रहे तो घाट के परिवर्धन के काम में दिहाड़ी मिल जायेगी – २००-२५० रुपये के रेट पर।

अलाव पर सबसे पीछे है जवाहिर और सबसे आगे खड़े हैं पण्डाजी (स्वराज कुमार पांड़े)।

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

28 thoughts on “अलाव, जवाहिर और आठ बिगहा खेत

  1. लगता है जवाहर की नाई से पक्की दोस्ती नहीं है … नहीं तो सार फ़्री कटिंग करि देत :)

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  2. यूपोरियन या अदरवाईज़.. ज़मीन का मालिक होना हमेशा सम्पन्नता का प्रतीक रहा है. यहाँ राजस्थान में जहाँ हर ज़मीन खेती लायक नहीं, यहाँ भी.

    जवाहिर स्मार्ट दीख रहा है !

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  3. जवाहिरलाल जी (‘जी’, अब लगा रहा हूँ जबसे जाना कि आठ बिगहे के कासकार है, वरना तो जवहिरा से ही काम चल जाता था )……हां, तो जवाहिरलाल जी बहुत नेक, स्वावलंबी और परोपकारी इंसान हैं। देखिये कि चित्र में जवाहिरलाल जी ने आगे बढ़कर सबसे पहले अलाव जलाया लेकिन मुफ्त की सेंकैती करने वालों की सुविधा का ख्याल कर ‘वे’ सबसे पीछे बैठ कर सेंक रहे हैं :)

    यू आर ग्रेट जवाहिरलाल जी….. मे आई हैव योर टवीटर ओर फेसबुक आई डी प्लीज…….आई वान्ट टू फालो यू……….वी फेसबुकर्स, वांट टू स्टार्ट कैम्पेन लाईक ……सेव जवाहिरलाल or एट बिगहा्स ऑफ जवाहिरलाल :)

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  4. भले ही २ बीघा जमीन है जवाहिर के पास पर जब अपने ही उसे लूटने लगे तो फिर ज़मीन जाने से ज्यादा विश्वासघात का दर्द जिंदगी भर सालता है पाण्डेय जी …और जवाहिर ठहरा जीवट बड़ी गभीरता से इनका प्रबंधन स्वाभिमान के कसूती पर कर रहा है तो निश्चय ही वो ज़मीन से आये पैसों का उत्तम प्रबंध स्वतः ही कर लेगा …:)

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  5. आपका ब्लॉग खुला पड़ा है, और मैं इतर कार्यों में व्यस्त हूँ, पर अचानक ही ब्लॉग हेडर पर लगी फोटू पर नज़र गई…. गर पुराना सेंसर बोर्ड होता तो सायद ‘व’ सिर्तिफिकत देता…:)
    गाँधी फिल्म याद आ गयी…. उसमें एक दृष्य में गाँधी जी किसी औरत को उसी कपडे को धोते देखते हैं जो उसने पहन रखे हैं… उसके बाद वो कम कपडे पहनने लग जाते हैं…. पता नहीं क्यों वो सीन याद आ गया.. बाकी मैं आपको ये नहीं कह रहा कि आप भी गांधी जी की तरह एक धोती में रेलवे ट्राफिक कंट्रोल करें :)

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    1. कम से कम यह जरूर है कि टाई नही पहनता और सूट पहने भी कई दशक हो गये! :)

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  6. पंजाबी में कहावत है जिन्हांदे घर दाने – उन्हानदे कमले वे सयाने ..
    जब पैसा आ जाता है तो बन्दा सयाना भी हो जाता है पैसा खर्च करने का और संभालने का शअउर भी आ जाता है … जवाहिर के साथ भी ऐसा ही होगा.. :)

    पचीस लाठी = मेरे ख्याल से ६ फीट की लाठी नाप की होगी या फिर कुछ और ?

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  7. आठ बिगहा बोले तो दू हेक्टेयर -बड़ी जमीन है दैया रे ! लखपति बनाए रखने के लिए पर्याप्त !
    मगर बक्चोद के हराम का खाने की आदत हो गयी है !

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    1. और किसी की नहीँ जानता, जवाहिर इस प्रकार का चरित्र नहीँ है। अपने मेहनत की खाता है और हद दर्जे का स्वाभिमानी। उसके स्वाभिमान की बराबरी बहुत से धनी नहीँ कर सकते।
      हराम की खाने वाले मध्यवर्ग और धनिक वर्ग में ज्यादा पाये जाते हैं।

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  8. गंगा और उसके आस पास के परिवेश को जिस तरह आप पेश करते हैं वो रोमांचक और रोचक है…रोज गंगा जी के दर्शन कर खूब लाभ प्राप्त कीजिये और हम आपके द्वारा खींचे चित्र देख कर लेते हैं…

    नीरज

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  9. वास्तविकता से रूबरू कराती है आपकी पोस्ट। सारे पात्र जाने-पहचाने से लगते हैं।

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