नदी के और मन के लैगून

लैगून (lagoon)  को क्या कहते हैं हिन्दी में? कामिल-बुल्के में शब्द है समुद्रताल। समुद्र के समीप वह  उथला जल जो सब ओर से धरती से घिरा हो – वह लैगून है। इसी तरह नदी/गंगा का पानी पीछे हटते समय जो उथले जल के द्वीप बना देता है उसे लैगून कहा जायेगा या नहीं? मैं बहुधा भाषा के मकड़जाल में फंसता हूं और दरेर कर बाहर निकलता हूं। लैगून लैगून है। चाहे समुद्रताल हो या नदीताल। बस। पीरियड।

ये जो नदी है, उसमें परिवर्तन रेंगते हुये नहीं होता। दिन ब दिन परिवर्तन रेंगता नहीं , उछलता है।  केवल प्रकृति ही नहीं इस तरह उछलती। प्रकृति-मनुष्य इण्टरेक्शन जर्क और जम्प में चलता है। नदी की धारा अगले दिन दूसरा ही कोर्स लिये होती है। आदमी दिन भर  कछार में काम करता है और अगले दिन का नक्शा अप्रत्याशित रूप से बदला नजर आता है।  एक रात तो चोरों ने बनते घाट की रेलिंग के लोहे के डण्डे चुरा कर दृष्य बदल दिया था – शायद महज अपनी रात की शराब के जुगाड़ के लिये!

जो लोग गंगा को सिम्पल, मंथर, अपने कोर्स पर चलनेवाली और प्रेडिक्टेबल नदी मानते हैं; वे मात्र लिखे पढ़े के अनुसार बात करते हैं। मेरी तरह कौतूहल से ऑब्जर्व करने वाले लोग नहीं हैं वे। 

कल छिछला जल था। आज यहां लैगून हैं। एक लड़की दो बाल्टियों से वहां पानी भर रही है। मुझे देख कर पूछती है – यहां क्यों आ रहे हैं? मैं जवाब देता हूं – तुमसे मिलने आ रहा हूं, और तुम्हारे पौधे बचा कर आ रहा हूं। उसका नाम है साधना। उससे भी छोटी बहन है आराधना। आराधना के आगे के दांत टूटे हैं और वह इतना छोटी है कि एक मिट्टी की घरिया में पानी भर रही है। यह पानी वे अपने खेत के पौधे सींचने में इस्तेमाल कर रहे हैं।

किसके पौधे हैं? इसके उत्तर में साधना कहती है कोंहड़ा और लौकी। फिर शायद सोचती है कि मैं शहराती कोंहड़ा नहीं समझता होऊंगा। बोलती है कद्दू और लौकी। साधना बताती है उसके पिता नहीं हैं। उसके नाना का खेत है। नाना हैं हीरालाल। अपने बालों का जूड़ा सिर पर गमछे से ढंके हीरालाल आते दीखते हैं। उनकी मन्नत अभी भी पूरी नहीं हुई है। केश अभी भी नहीं कटे हैं। वे बताते हैं कि साधना उनकी नातिन है। — मुझे यह ठीक नहीं लगता कि पूछूं उनकी लड़की विधवा है या और कोई बात है (जो साधना कहती है कि उसके पिता नही हैं)। अपने को इतना सक्षम नहीं पाता कि उन लोगों की प्राइवेसी ज्यादा भंग करूं। वैसे भी हीरालाल प्रगल्भ नहीं हैं। अपनी ओर से ज्यादा नहीं बोलते।

हर एक के अपने प्राइवेसी के लैगून हैं। उन्हें मैं निहार सकता हूं। उनमें हिल नहीं सकता। मैं गंगा का पर्यटक हूं। गांगेय नहीं बना हूं!

कल्लू, अरविंद, रामसिंह के सरसों के खेत के किनारे एक अधेड़ महिला बैठी है। साथ में एक छोटी लड़की रेत से खेल रही है। लड़की का नाम है कनक। बहुत सुन्दर और प्यारी है। वह महिला कहती है कि एक बोतल पानी घर से ले कर आई है और दिन भर खेत की रखवाली करेगी। मेरी पत्नीजी के साथ उसका परिचय आदान प्रदान होता है। हमारे कई पड़ोसियों को वह जानती है। हमें नहीं जानती, हम पर्याप्त लोकल नहीं हुये हैं शायद।

अपने बारें में सोचता हूं तो लगता है कि मेरे जीवन के कई लैगून हैं। मैं पण्डा, जवाहिरलाल, मुरारी आदि से मिल लेता हूं। पर वह शायद सतही है। मुझे नहीं लगता कि वे मुझे अपने गोल का मानते होंगे। इसी तरह ब्लॉगजगत में अनेक मित्र हैं, जिनसे व्यक्तिगत जीवन में कोई इण्टरेक्शन नहीं है। एकोहम् वाले बैरागी जी तो एक बार कहते पाये गये थे कि रतलाम में हमसे वे इस लिये नहीं मिले थे कि वहां तो हम अफसर हुआ करते थे। — आप जान रहे हैं न कि मैं जो देख रहा हूं, उसपर अच्छे से लिख क्यों नहीं सकता? इस लिये कि मैं उसे देख रहा हूं, पर उसका अंग नहीं हूं। मेरे मन मे जो लैगून हैं उनकी सीमायें मिट्टी की नहीं हैं। वे वाटर टाइट कम्पार्टमेण्ट्स हैं। एक से दूसरे में जल परमियेट (permiate) नहीं होता।

खैर, देखता हूं कि कोंहड़े के पौधे बहुत बढ़ गये हैं एक खेत में। इतने कि रखवाली के लिये उसने सरपत की बाड़ बना ली है। पौधे अब बेल बनने लगे हैं।

एक अन्य खेत में महिसासुर का अवशेष अभी भी खड़ा है। इसे लोग एक जगह से उठा कर दूसरी जगह ले जा कर खडा कर रहे हैं। कोई अलाव में जला नहीं रहा। शायद जलाने में किसी अपसगुन की आशंका न रखते हों वे।

घाट पर वृद्धों के लिये रैम्प बनाने का काम चल रहा है। कुछ मजदूर काम कर रहे हैं और कुछ पण्डा की चौकी पर लेटे धूप सेंक रहे हैं। चौकी पर बैठ-लेट कर मूंगफली क्रैक कर खाने का मन होता है। पर वास्तव् में वैसा करने के लिये मुझे कई मानसिक लैगून मिलाने पड़ेंगे।

मैं सोशल ब्लॉगर जरूर हूं। पर सामाजिक स्तर पर रचा बसा नहीं हूं। ब्लॉंगिंग में तो आप चित्र और वीडियो की बैसाखी से सम्प्रेषण कर लेते हैं। पर विशुद्ध लेखन के लिये तो आपमें सही सोशल कैमिस्ट्री होनी चाहिये।

दैट, इंसीडेण्टली इज मिसिंग इन यू, जी.डी.! योर सोशल जीन्स आर बैडली म्यूटेटेड!

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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

26 thoughts on “नदी के और मन के लैगून

  1. Comment copy paste ‘All excellent writings are monologues! :)’ What goes around comes around :) :)
    नीले में हाइलाइट किए जीवन के लागून बेहद पसंद आए…खास तौर से रंग का चुनाव :) और सबसे अच्छी लगी ये पंक्ति…इसे इस विषय से इतर भी इस्तेमाल कर सकते हैं।

    ‘हर एक के अपने प्राइवेसी के लैगून हैं। उन्हें मैं निहार सकता हूं। उनमें हिल नहीं सकता।’

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  2. पाण्डेय जी आपसे मैं उम्र में काफी छोटा हूँ …२७ वां पड़ाव ही पार किया है जीवन का पर बहुत करीब से देखा और महसूस किया है की …ये लैगून नदियों में पानी के उतार से बनता है लेकिन जीवन की धारा अपने उफान पर भी अनगिनत लैगून बना देती है …पता ही नहीं चलता …और तो और अधिकांश लैगून अक्सर उजाड़ ही रहते हैं एक्का दुक्का ही ऐसे होते हैं जिसमे प्रेम और सुकून की बेल पनपती है …और मन है की फिर भी अन्झुराए रहता है उन्ही में …कहे होता है ऐसा कुछ मार्गदर्शन कीजिये …..
    उम्र का जिक्र मैंने आपको उम्रदराज बताने के लिए नहीं किया उपर …परन्तु भय था की कहीं कोई बालसुलभ बात आपको क्षोभित न कर दे ….

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    1. शिखर पर एकांत रहता है और गर्त मेँ भी। शिखर पर आप अकेले होते हैँ, वहाँ और पंहुच नहीं पाते और गर्त में आप अकेले होते हैं – आपके साथ कोई होना नहीं चाहता। आत्मन्येवात्मनातुष्ट: ही सुखी रहता है।
      मार्गदर्शन – गीता का स्थितप्रज्ञदर्शन – दूसरा अध्याय ५४वां श्लोक और आगे! :lol:

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  3. बहुत सोचते हैं आप, वो भी जीवन और माल गाड़ियों की धकड़-पकड़ के बीच,

    कहाँ से लाते हैं इतना माद्दा ???

    मैं अगर आपको इलाहाबादी गुलज़ार समझूं तो गलत नहीं है शायद.

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  4. हर व्यक्ति अपने अपने लैगून का मेंढ़क होता है और दूसरे लैगून को अपनी परिधि के बार समझता है:)

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  5. मुझे लगता है की कई बार हम शब्द और शब्दार्थ मे बिना उलझे अगर अपनी बात का संप्रेषण कर पाए तो यह ज़्यादे कारगर है, और यही शब्द की सार्थकता भी. मुझे ‘लैगून’ शब्द भी पसंद आया और यहाँ पर उसका भावार्थ भी.
    हम अपने जीवन मे एक ही नहीं कई लैगून बनाए रखते है. हम अपने दायरे खुद तय करते हैं. ‘सोच के डब्बे’ शीर्षक से लिखी एक कविता शायद आपको पसंद आए.
    http://musafir-theunknownjourney.blogspot.com/2011/07/blog-post.html
    हम अपने बनाए ‘सोच के डब्बों’ या कहे की ‘लैगून’ मे खुश रहते है. पर ज़रूरत है उससे बाहर आने की.
    गंगा पर्याय है ‘जीवन’ का ‘लैगून’ भ्रम के दायरे और इन सब को छोड़ते हुए एक दिन सागर मे विलीन होकर गांगेय होना, गंगा अर्थात जीवन की पूर्णता.

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  6. सर जी भाषा और भाव के स्तर पर आप लाजवाब हैं…यूँ दिल खोल के रख देते हैं के बस…क्या कहें…ये सच है के हम सब के अपने अपने लगून हैं…अजी दूसरों को छोडिये, हम अपने आपको भी सही से नहीं जान पाते…

    नीरज

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