यह एक रेवलेशन था कि जवाहिरलाल के पास आठ बिगहा खेत है; बहादुरपुर, मछलीशहर में। किन परिस्थितियों में वह गांव से निकला और यहां दिहाड़ी पर लेबर का काम करता है; वह समझने के लिये उससे और भी अन्तरंगता चाहिये। जो मेरे साथ अभी नहीं है। पर जवाहिर के आठ बिगहा जमीन के बारे में बातचीत आगे और हुई्।

कल मुझे सवेरे घर से निकलने में देर हो गयी। जवाहिर का अलाव लगभग बुझ चुका था। सदाव्रत में अलाव तापने वाले जा चुके थे। घाट पर जवाहिर और पण्डा भर थे। धूप हल्की ही निकली थी। अलाव अगर आधा घण्टा और चलता तो बेहतर रहता। जवाहिर राख को एक लकड़ी से कुरेद रहा था। बीच बीच में मुंह में रखी मुखारी दायें बायें घुमा लेता था। जब से उसने बताया है कि उसके दांत हिलते हैं, उसको ध्यान करने पर लगाता है कि वह बेकार इतनी ज्यादा मुखारी घिसता है। पर अगर वह न घिसे तो सवेरे का समय कैसे गुजरेगा?!
उसके मुखारी-अनुष्ठान की एक और विशेषता है। बीच बीच में वह इण्टरवल लेता है और एक बीड़ी सुलगा कर पीता है। बीड़ी खत्म कर वह पुन: मुखारीआसन में आ जाता है।
खैर, इस पोस्ट के मुद्दे पर आया जाये। कितने की होगी जमीन? मेरे यह पूछने पर जवाहिर कोई साफ जवाब नहीं देता। पण्डा सप्लीमेण्ट्री दागते हैं – पांच लाख की तो होगी ही!
जवाहिर ने कहा – नाहीं, ढेर होये (नहीं, ज्यादा की होगी)!
पण्डा, सप्लीमेण्ट्री-II – कितने की, दस लाख?
जवाहिर पत्ता खोलता है – लेई वाले खुद्दै पंद्रह लाख कहत रहें (जमीन लेने वाले खुद ही पंद्रह लाख कह रहे थे)।
पण्डाजी तुरन्त कहे – पंद्रह लाख क का करबो जवाहिर? फिक्स करि द बैंक में। ब्याज बहुत होये तोहका खाई बरे (पंद्रह लाख का क्या करोगे जवाहिर? बैंक में फिक्स डिपॉजिट कर दो। उसका व्याज ही बहुत होगा तुम्हारे लिये)।
जवाहिर लाल बताता है कि महीने में उसका खर्चा दो हजार है। मैं सोचता हूं कि अगर बैठे ठाले उसे खाने भर को मिल गया तो वह निकम्मा हो जायेगा। दिन भर दारू पियेगा और जल्दी चला जायेगा दुनियां से। जमीन बेचना काउण्टर प्रोडक्टिव हो जायेगा।

टोह लेने के लिये पूछता हूं – कितना पीते हो? जवाहिर जवाब देते लजाता नहीं। आधा लीटर पी जाता है रोज। छोट क रहे तब से पियत रहे। बाबू सिखाये रहेन। (छोटा था, तब से पी रहा हूं। पिताजी ने सिखाया था पीना।)
मैं उसे सुझाव देता हूं कि जमीन बेचने पर जो मिले उसका आधा वह धर्मादे में लगाये – यहीं घाट के परिवेश को सुधारने में। बाकी आधा बैंक में रखे गाढ़े समय के लिये। अपना काम अपनी मेहनत से चलाये और अगर दुनियां से जाते समय पैसा बचा रहे तो भाई बन्द को वसीयत कर जाये।
पर जवाहिर भाई-कुटुम्ब को वसीयत करने के बारे में सहमत नहीं है – ओन्हन के काहे देई (उनको क्यों दूं)? शायद कहीं कुछ कड़वाहट है परिवार को ले कर।
मैं ब्लॉगर भर हूं। उपन्यास लेखक होता तो अपना काम धाम छोड़ कर सेबेटिकल लेता और जवाहिर के साथ समय व्यतीत कर उसपर एक उपन्यास लिख मारता। रोज हम बैठते। जवाहिर बुझे अलाव को कुरेदता और मैं जवाहिर को।
पर हिन्दी में उपन्यास लिखने के लिये सेबेटिकल? हिन्दी लेखन कालजयी बना सकता है – खांची भर ब्लॉगर भी कालजयी हैं। हिन्दी लेखन पैसे दिला सकता है? उस ध्येय के लिये तो सेबेटिकल ले कर पापड़ बेलना ज्यादा काम की बात नहीं होगी?
पर कल मुझे दफ्तर के काम की देर हो रही थी। सूरज आसमान में चढ़ गये थे। मैं घाट से चला आया।

[कुछ दिनों से मौसम खुला है, पर हवा में तेजी और ठण्डक बढ़ गयी है। ठण्डक बढ़ी तो इसी नमी के स्तर पर कोहरा पड़ेगा। कोहरा पड़ा तो मेरा काम बढ़ेगा। काम बढ़ा तो जवाहिर लाल का फॉलो-अप ठप्प हो जायेगा!
जवाहिरलाल मेरा फेयर वेदर फ्रेण्ड है! 😆 ]
आधा लीटर तो हम भी सुबह पीते हैं, पर पानी। आप अब ‘आठ बीघा और आधा लीटर’ के शीर्षक से अपने फेयर वेदर मित्र पर एक लघु उपन्यास लिख सकते हैं, मान लीजिये, बहुत पढ़ा जायेगा।
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द्विवेदी जी की टिप्पणी देखी – मैक्सिम गोर्की के पात्र सा है जवाहिरलाल। अगर सेबेटिकल ले कर लिखूं तो ७०० पेज का उपन्यास बनना चाहिये वर्णन करने में! वह मेरे बस का कहां!
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एक एक कर घटनाओं को जोड़ते जायें,थोड़ा चेतन भगत से प्रेरणा लें, ६ माह में हो जायेगा।
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फेयर वेदर में सही, जवाहिर का कुदेरा जाना, हम जैसों के लिए गुदगुदी सामान है.
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हर गाँव में हैं जवाहिरलाल,किंतु इनकी खोज आप के द्वारा हो सकी। हर पोस्ट के साथ कुछ अधिक जानकारी मिलती है।
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रोचक यह है कि लोग जवाहिरलाल में रुचि लेते हैं। और जब मैं जवाहिर लाल विषयक पुरानी पोस्टें देखता हूं तो मुझे भी वह दमदार चरित्र नजर आता है! 😆
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बीड़ी-मुखारी का अद्भुत काम्बिनेशन.
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आपको हमेशा ये पैसे को लिकर क्यों पडी रहती है पाण्डेय साहब 🙂
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आप ने बहुत किताबें पढ़ी हैं। यदि आप एक बार मक्सिम गोर्की की My Childhood, In the World और My Universities अवश्य पढ़ें। इन पुस्तकों में जवाहिर के भाई-बंद मिलेंगे। इन पुस्तकों के हिन्दी संस्करण भी मिल जाएंगे। वैसे ये तीनों पुस्तकें आप के पुस्तकालय में होनी चाहिए.
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बाबू सिखाये रहेन।
अब क्या कहें ?
सेबेटिकल ले कर पापड़ बेलना ! ह्म्म……
मै भी सोचता हूं! एक ब्रेक लेने का लेकिन महीने मे मिलने वाला वेतन बंद हो जायेगा! इतने पैसे अभी नही जमे की सेबेटिकल ले सकें!
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हिन्दी लेखन पैसे दिला सकता है?…
हिन्दी में लेखन पैसा नहीं दिलाता, रणनीति पैसा दिलाती है.
कितनी किताबें हैं हिन्दी की जो काउंटर पर बिकती हैं. ये लायब्रेरियों में जाती हैं. कारण, साफ है कि प्रकाशकों को विज्ञापन के बजाय कमीशन का रास्ता आसान लगता है.
जवाहिरलाल मेरा फेयर वेदर फ्रेण्ड है…. literally 🙂
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आप जवाहिर लाल के फ़ेयर वैदर फ़्रैंड हैं:)
परिवार वालों को देने की बात पर एक बात बताता हूँ – हमारे बैंक में एक बुढ़िया फ़िक्स डिपोजिट करवाने आई, नोमिनेशन के बारे में पूछा तो पहले तो समझी नहीं। हरियाणवी में समझाया कि इसका मतलब तेरे मर जाने के बाद ये पैसे किसे सौंपे दिये जायें? ताई फ़ट से बोली, “मेरे घर के लोगों को छोड़कर चाहे किसी को मिल जायें, किसी का भी नाम लिख दे।”
जवाहिरलाल जमीन बेचकर मायापति बनकर ऐसे ही कछार पर मुखारी करता दिखेगा न?
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“सेबेटिकल ले कर पापड़ बेलना ” – जल्दी ही हम भी एलिजिबल होने वाले हैं सेबेटिकल लेने के. ये आईडिया बहुत पसंद आया 🙂
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