
गंगाजी के कछार में ढुलाई का सुगम तरीका है ऊंट। रेती में आसानी से चल लेता है। गंगाजी में पानी कम हो तो उसकी पतली-लम्बी टांगें उसे नदी के आरपार भी ले जाती हैं। उसका उपयोग सब तरह की ढुलाई में देखा है मैने।
वर्षा का मौसम खत्म होने पर चिल्ला गांव वाले कछार की जमीन पर अपना अपन कब्जा कर सब्जी की खेती प्रारम्भ करते हैं। यह काम दशहरा-दिवाली के आस पास शुरू हो जाता है। उस समय से ऊंट इस काम में लगे दीखते हैं। गोबर की खाद की जरूरत तभी से प्रारम्भ हो जाती है और फरवरी-मार्च तक चलती रहती है। ऊंट एक बार में दो तीन क्विण्टल खाद ले कर चल सकता है।
आज शिवरात्रि का दिन था। मैं अपना सवेरे का मालगाड़ी परिवहन नियंत्रण का काम खत्म कर कोटेश्वर महादेव मन्दिर और उसके आगे गंगाजी की रह चह लेने निकला। पड़ोस के यादव जी की गायों के गोबर की खाद लद रही थी एक ऊंट पर। उसके बाद कोटेश्वर महादेव की शिवरात्रि की भीड़ चीर कर गंगाजी की ओर बढ़ने में मुझे देर लगी, पर ऊंट खाद लाद कर अपने तेज कदमों से मुझसे आगे पंहुच गया गंगाजी की रेती में।
रेत में सब्जी के खेतों में दायें बायें मुड़ता एक खेत में रुका वह। वहां उसे बैठने के लिये कहा उसके मालिक ने। बैठने पर जैसे ही उसके ऊपर लदे बोरे को मालिक ने खेत में पल्टा, ऊंट दाईं करवट पसर कर लेट गया। चार पांच मिनट लेटा ही रहा। मालिक के निर्देशों को अनसुना कर दिया उसने। जब मालिक ने उसकी नकेल कस कर खींची तब वह अनिच्छा से उठा और चल पड़ा। उसके पीछे पीछे खेत का किसान और उसके दो छोटे बच्चे भी चले। बच्चों के लिये ऊंट एक कौतूहल जो था।
पीछे पीछे हम भी चले, पर तेज डग भरता ऊंट जल्दी ही आगे निकल गया।
ऊंट यहां खाद की ढुलाई करता है। जब सब्जियां और अनाज तैयार हो जाता है तो वह भी ले कर बाजार में जाता है। ऊंट पर लौकियां का कोंहड़ा लदे जाते कई बार देखता हूं मैं।
कछार में अवैध शराब बनाने का धन्धा भी होता है। उस काम में भी ऊंट का प्रयोग होते देखता हूं। शराब के जरीकेन लादे उसे आते जाते कई बार देखा है दूर से। शराब का धन्धा अवैध चीज है, सो उसके पास जाने का मन नहीं होता। न ही उसमें लिप्त लोग चाहते हैं कि मैं आस पास से गुजरूं और ताक झांक करूं। यहां सवेरे भ्रमण करने वाले भी “कारखाने” की ओर जाते कतराते हैं।
खैर, बात ऊंट की हो रही थी। बहुत उपयोगी है यह गंगाजी के कछार में परिवहन के लिये। आप फेसबुक पर यहां अपलोड किया एक वीडियो देखें, जिसमें ऊंट गंगाजी में हिल रहा है।
जितना उपयोगी है, उसके हिसाब से बेचारे ऊंट को भोजन नहीं मिलता प्रतीत होता। बेचारा अस्वस्थ सा लगता है। तभी शायद मौका पाते ही काम खत्म कर रेती में लेट गया था।
ज्ञानेन्द्र त्रिपाठी जी ने पिछली पोस्ट पर टिप्पणी में ब्लॉग के मूल स्वरूप की बात उठाई है:
जवाहिर लाल, नत्तू पांड़े ये दोनो लोग तो आपके ब्लॉग के सशक्त किरदार हैं, एकदम से उपन्यास के किरदार की तरह.
बाकी सारी बातें इनके इर्द-गिर्द घूमती रहती है, और ये जो आपका यात्रा वर्णन है, ये पूरे कहानी पर जब फिल्म बनती है तो बीच-बीच में foreign location का काम करते हैं.
शायद एक ब्लॉग शुरू में अपना चरित्र खोजता है। पोस्टों को लिखने – बनाने की सुगमता, उनके पाठकों की प्रतिक्रियायें और लम्बे समय तक उन विषयों पर पाठकों की रुचि सस्टेन करने की क्षमता तय करती है ब्लॉग चरित्र। और एक बार चरित्र तय हो जाने के बाद उसमें बहुत हेर फेर न तो सम्भव होता है, न ब्लॉग की दीर्घजीविता के लिये उपयुक्त। यह जरूर है कि “चरित्र” तय होने के बाद भी ब्लॉगर के पास प्रयोग करने के लिये बहुत से आयाम खुले रहते हैं। इस बारे में चर्चा सम्भव है।
इस पोस्ट के ऊंट का विवरण इस ब्लॉग के चरित्र के अनुकूल है, ऐसा मेरा सोचना है! 😆
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ऊंट जी मेहनत तो बहुत करते हैं लेकिन उनको उत्ता महत्व नहीं मिलता जित्ते के वे हकदार हैं! आपकी यह पोस्ट देखते ऊंट जी तो खुश हो जाते! 🙂
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बिल्कुल! कमसे कम करवट तो बदल ही लेंगे ऊंट जी! 🙂
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“जितना उपयोगी है, उसके हिसाब से बेचारे ऊंट को भोजन नहीं मिलता प्रतीत होता। बेचारा अस्वस्थ सा लगता है। तभी शायद मौका पाते ही काम खत्म कर रेती में लेट गया था।”
एक व्यवहार विद की मानें तो इस तरह के भाव अन्थ्रोपोमार्फिजम(http://en.wikipedia.org/wiki/Anthropomorphism)की श्रेणी में आता है ….और आप खुद मानसिक हलचल के एक सशक्त किंवा मुख्य पात्र है..आशा है आदरणीय भाभी रीता जी आपका बेहतर ख्याल रखेगीं अब तो,इसलिए ही मैं यह उद्धृत करने की उद्दंडता कर रहा हूँ ! 🙂
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समीर लाल “पुराने जमाने के टिप्पणीकार”
यह पहली बार पढ़ा ☺
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पढ़ा जरुर पहली बार होगा…मगर जानते तो थे न….कि उहो नहीं??
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બહુત અચ્છા લેખ !
યહાઁ આપકો ઊંટ કે બારે મેં અધિક જાનકારી મિલ જાએગી .
http://en.wikipedia.org/wiki/Camel
http://photos.raftaar.in/Image-Gallery/PhotoResult.aspx?lang=Hindi&qry=%E0%A4%8A%E0%A4%82%E0%A4%9F~Camel&PNo=1
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