सब्जियां निकलने लगी हैं कछार में

रेत में खोदे कुयें से पानी ले कर निकलती महिला। दो मिट्टी की गागर हाथ में लिये है।

गंगाजी का पानी क्वार के महीने में उतरता है। कार्तिक में दीपावली के बाद चिल्ला वाले शिवकुटी के कछार में खेती प्रारम्भ करते हैं सब्जियों की। कुछ लोग गेहूं, सरसों की भी खेती करते हैं। काफी श्रमसाध्य काम है यह। गंगाजी की लाई मिट्टी की परत से जो परिवर्तन होता है, वह शुरू में धीमा दीखता है। कोहरे के मौसम में और धीमा नजर आता है। पर मकर संक्रांति के बाद जब सूरज की गरमी कुछ बढ़ती है, पौधे पुष्ट होने लगते हैं और परिदृष्य़ तेजी से बदलने लगता है।

फरवरी के मध्य तक कछार की हरियाली व्यापक हो जाती है। लौकी के सफेद और कोन्हड़े के पीले फूल दिखने लगते हैं। फूल फल में परिवर्तित होने में देर नहीं लगाते। और फल बढ़ने, टूटने और बाजार तक पंहुचने में सप्ताह भर से ज्यादा समय नहीं लेते। इस समय लौकी और कोन्हड़ा बहुत बड़े बड़े नहीं हैं, पर बाजार में टूट कर आने लगे हैं। अभी उनका रेट ज्यादा ही होगा।  उनकी अपेक्षा सर्दी की सब्जियां – बन्द और फूल गोभी – जो कछार में नहीं होतीं – कहीं ज्यादा सस्ती हैं। कोन्हड़ा अभी बाजार में बीस रुपया किलो है, लौकी का एक छोटा एक फिट का पीस 12 रुपये का है। इसके मुकाबले गोभी के दो बड़े फूल या बन्द गोभी के दो बड़े बल्ब पन्द्रह रुपये में आ जाते हैं।

अपने कछार के लौकी-कोन्हड़ा के पौधों को सींचती महिला। रेत वाले सफेद हिस्से में कुआं खोदा हुआ है, जिसमें से वह दो गागरों से पानी निकाल कर लाती है। उसके पीछे है सरपत की टटरी, जिसके नीचे रखवाली करने वाले सुस्ताते हैं!

शिवकुटी के घाट की सीढ़ियों से गंगाजी तक जाने के रास्ते में ही है उन महिलाओं का खेत। कभी एक और कभी दो महिलाओं को रेत में खोदे कुंये से दो गगरी या बाल्टी हाथ में लिये, पानी निकाल सब्जियों को सींचते हमेशा देखता हूं। कभी उनके साथ बारह तेरह साल की लड़की भी काम करती दीखती है। उनकी मेहनत का फल है कि आस पास के कई खेतों से बेहतर खेत है उनका।

यही खेत एक महीना पहले इस दशा में था।

आज एक ही महिला थी गगरी से पानी निकाल कर सींचती हुई। कई लौकी के पौधों में टूटे फलों की डण्ठल दीख रही थी – अर्थात सब्जी मार्किट तक जा रही है।

मैने यूंही पूछा – मड़ई में रात में कोई रहता है?

छोटी और नीची सी मड़ई। मड़ई क्या है, एक छप्पर नुमा टटरी भर है। सब तरफ से फाल्गुनी हवा रात में सर्द करती होगी वातावरण को। रात में रहना कठिन काम होगा।

महिला अपनी गगरी रख कर जवाब देती है – रहना पड़ता ही है। नहीं तो लोग तोड़ ले जायें लौकी-कोन्हड़ा। दिन में भी इधर उधर हो जाने पर लोग निकाल ले जाते हैं।

एक ब्लाउज नुमा स्वेटर पहने और थोड़ी ऊपर उठी साड़ी पहने है वह महिला। साड़ी पुरानी है और बहुत साफ भी नहीं। काम करते करते उसे कितना साफ रखा जा सकता है। मैं उस महिला के चेहरे की ओर देखता हूं। सांवला, तम्बई रंग। सुन्दर नहीं, पर असुन्दर भी नहीं कही जा सकती। मुझे देख कर उत्तर देने में उसे झिझक नही थी – शायद जानती है कि इसी दुनियां का जीव हूं, जिसे जानने का कौतूहल है।


वहीं, गंगाजी के उथले पानी में एक चुम्बक से पानी से पैसे निकालते देखा राहुल को। बारह तेरह साल का लगता है वह। साथ में एक छोटा लड़का भी है – दिलीप। दिलीप गंगा तट से फोटो, मिट्टी की मूर्तियां और चुनरी आदि इकठ्ठा कर रहा है।

राहुल ने बताया कि आज तो उसे कुछ खास नहीं मिला, पर शिवरात्रि के दिन थोड़े समय में ही बीस रुपये की कमाई हो गयी थी।

मैं डोरी से बन्धा उसका चुम्बक देखता हूं – लोहे का रिंग जैसा टुकड़ा था वह। राहुल ने बताया कि पुराने स्पीकर में से निकाला है उसने।

राहुल डोरी से बन्धा चुम्बक फैंक रहा है गंगाजी के उथले पानी में। पास में खड़ा है पीली बुश-शर्ट पहने दिलीप।

मछेरे गंगाजी से मछली पकड़ते हैं। राहुल चुम्बक से पैसा पकड़ रहा है।

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

27 thoughts on “सब्जियां निकलने लगी हैं कछार में

आपकी टिप्पणी के लिये खांचा:

Discover more from मानसिक हलचल

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Design a site like this with WordPress.com
Get started