कारू मामा की कचौरी

कल सवेरे मंसूर अली हाशमी जी रतलाम स्टेशन पर मिलने आये थे, तो स्नेह के साथ लाये थे मिठाई, नमकीन और रतलाम की कचौरियां। मैं अपनी दवाइयों के प्रभाव के कारण उदर की समस्या से पीड़ित था, अत: वह सब खोल कर न देखा। शाम के समय जब विष्णु बैरागी जी मिले तो उन्होने अपने “बतरस” में मुझे स्पष्ट किया कि हाशमी जी कारू राम जी की कचौरियां दे गये हैं और जानना चाहते हैं कि मुझे कैसी लगीं?

मंसूरअली हाशमी जी मुझसे मिलने आये। उनके मोबाइल से लिया चित्र जो मैने फेसबुक से डाउनलोड कर टच-अप किया है।

कारूराम जी की कचौरियों के बारे में उन्होने बताया कि रतलाम में कसारा बाजार में कारू राम जी की साधारण सी दुकान है। कारूराम जी (कारूमामा या कारू राम दवे) समाजवादी प्राणी थे। उन्हे लोगों को बना कर खिलाने में आनन्द आता था। सत्तर के दशक की घटना बैरागी जी बता रहे थे कि २५ कचौरियां-समोसे मांगने पर कारूमामा ने तेज स्वरों में उनको झिड़क दिया था – “देख, ये जो कचोरियां रखी हैं न, वे एक दो कचौरी लेने वाले ग्राहकों के लिये हैं, पच्चीस एक साथ ले जाने वाले ग्राहक के लिये नहीं। तू भाग जा!”

हाशमी जी की लाई कारू मामा की कचौरी और समोसा।

अनुमान लगाया जा सकता है कि कारू मामा कैसे दुकानदार रहे होंगे। बैरागी जी ने बताया कि अब कारू मामा की अगली पीढ़ी के लोग उन्ही उसूलों पर अपनी दुकान चला रहे हैं। उनकी दुकान पर जा कर लगता है कि पच्चीस पचास साल पीछे चले गये हैं काल-खण्ड में।

कैसे रहे होंगे कारू मामा? बैरागी जी की मानें तो अक्खड़ थे, कड़वा भी बोलते थे, पर लोग उस कड़वाहट के पीछे सिद्धान्तों पर समर्पण और स्नेह समझते थे। पैसा कमाना उनका ध्येय नहीं था – वे आटे में नमक बराबर कमाई के लिये दुकान खोले थे – दुकान से घाटा भी नहीं खाना था, पर दुकान से लखपति (आज की गणना में करोड़पति) भी नहीं बनना था।

अच्छा हुआ, मंसूर अली हाशमी जी कारू मामा की कचौरी (और समोसे) ले कर आये। अन्यथा इतने वर्षों रतलाम में रहने पर भी उन जैसी विभूति के बारे में पता नहीं चला था और अब भी न चलता…

कचौरी कैसी थीं? मेरी पत्नीजी का कहना है कि रतलाम में बहुत दुकानों की कचौरियां खाई हैं। यह तो उन सबसे अलग, सब से बढ़िया थीं। भरे गये मसाले-पीठी में कुछ बहुत खास था…

मुझसे शाम के समय मिलने आये श्री विष्णु बैरागी जी।

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

16 thoughts on “कारू मामा की कचौरी

  1. ‘कालू मामा’ नहीं ज्ञानजी! ‘कारू मामा’। ‘कालू मामा’ में परिष्‍कार का ग्‍लेमर है जबकि ‘कारू मामा’ में गमठैलपने की गन्‍ध और अनगढ सुन्‍दरता है।

    बहरहाल, मुण्‍े इस तरह से प्रस्‍तुत कर मेरा मान बढाने केलिए आभार।

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    1. मैं नाम में परिवर्तन कर देता हूं, बैरागी जी। सुनने में या याद रखने में चूक हुई।

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  2. भारत में कुछ स्थान अपने खाद्य पदार्थों के नाम से ही विख्यात होते हैं ..!! सबकुछ नस्ट होने पर भी पदार्थ जीवित रहता है …यह भौतिकी का सिद्धांत है !! ,

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  3. क्या बात है! थोड़ा बहुत खाया जा सकता था, दवाइयों के बाद भी ;) । मैं इस बात के इंतजार में हूं कि आपकी ट्रेन का रुख छत्तीसगढ़ की तरफ कब होगा।

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  4. आपके वर्णन ने मुंह में पानी ला दिया …
    आपकी जगह मैं होता तो डॉ से छिपा कर खाता जरूर , और होमियोपैथिक दवा से उदर समस्या ठीक कर लेता !
    राम राम भाई जी ..

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  5. आजकल के चालुमामा रुपये ५० की २ खोखली कचोरियाँ देते हैं,ऐसा प्रतीत होता हैं अपनी कमाऊ दूकान के वातानुकूलन का चार्ज हमसे ही ले रहे हैं !!

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