
एक हाथ में मोबाइल, दूसरे हाथ में बेटन। जींस की पैण्ट। ऊपर कुरता। अधपके बाल। यह आदमी मैं ही था, जो पत्नीजी के साथ गंगा किनारे जा रहा था। श्रावण शुक्लपक्ष अष्टमी का दिन। इस दिन शिवकुटी में मेला लगता है। मेलहरू सवेरे से आने लगते हैं पर मेला गरमाता संझा को ही है।
मैं तो सवेरे स्नान करने वालों की रहचह लेने गंगा किनारे जा रहा था। सामान्य से ज्यादा भीड़ थी स्नानार्थियों की। पहले सांप ले कर संपेरे शिवकुटी घाट की सीढ़ियों पर या कोटेश्वर महादेव मंदिर के पास बैठते थे। अब किसी नये चलन के अनुसार स्नान की जगह पर गंगा किनारे आने जाने के रास्ते में बैठे थे। कुल तीन थे वे।
उनमें से एक प्रगल्भ था – हमें देख जोर जोर से बोलने लगा – जय भोलेनाथ। जय नाग देवता! आपका भला करेंगे…

दूसरा, जो दूसरी ओर बैठा था, उतनी ही ऊंची आवाज में बोला – अरे हम जानते हैं, ये ममफोर्डगंज के अफसर हैं। दुहाई हो साहब।
मैं अफसर जैसा कत्तई नहीं लग रहा था। विशुद्ध शिवकुटी का देशज बाशिंदा हूं। अत: मुझे यह ममफोर्डगंज के अफसर की थ्योरी समझ नहीं आयी। हम आगे बढ़ गये। स्नान करते लोगों के भिन्न कोण से मैने दो-चार चित्र लिये। गंगाजी बहुत धीमे धीमे बढ़ रही हैं अपनी चौडाई में अत: स्नान करने वालों को पानी में पचास कदम चल कर जाना होता है, जहां उन्हे डुबकी लगाने लायक गहराई मिलती है। लोगों की एक कतार पानी में चलती भी दिख रही थी और उस पंक्ति के अन्त पर लोग स्नान करते नजर आ रहे थे। साल दर साल इस तरह के दृष्य देख रहा हूं। पर साल दर साल सम्मोहन बरकरार रहता है गंगाजी का, उनके प्रवाह का, उनके दांये बांये घूम जाने की अनप्रेडिक्टेबिलिटी का।
वापस लौटते समय मेरी पत्नीजी ने कहा कि दस पांच रुपये हों तो इन संपेरों को दे दिये जायें। मैने जब पैसे निकाले तो वे संपेरे सतर्क हो गये। मम्फोर्डगंज का अफसर बोलने वाले ने अपने दोनों पिटारे खोल दिये। एक में छोटा और दूसरे में बड़ा सांप था। बड़े वाले को उसने छेड़ा तो फन निकाल लिया उसने। संपेरे ने मेरी पत्नीजी को आमन्त्रण दिया कि उसको हाथ में ले कर देखें वे। हाथ में लेने के ऑफर को तुरत भयमिश्रित इनकार कर दिया पत्नीजी ने। पर उस सपेरे से प्रश्न जरूर पूछा – क्या खिलाते हो इस सांप को?
बेसन की गोली बना कर खिलाते हैं। बेसन और चावल की मिली गोलियां।
दूध भी पिलाते हो? – यह पूछने पर आनाकानी तो किया उसने, पर स्वीकार किया कि सांप दूध नहीं पीता! या फिर सांप को वह दूध नहीं पिलाता।

वह फिर पैसा मिलने की आशा से प्रशस्ति गायन की ओर लौटा। अरे मेम साहब, (मुझे दिखा कर) आपको खूब पहचान रहे हैं। जंगल के अफसर हैं। ममफोर्डगंज के। मुझे अहसास हो गया कि कोई डी.एफ.ओ. साहब का दफ्तर या घर देखा होगा इसने ममफोर्डगंज में। उसी से मुझको को-रिलेट कर रहा है। उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया हमने। पर पत्नीजी ने उसे दस रुपये दे दिये।
दूसरी ओर एक छोटे बच्चे के साथ दूसरा सपेरा था। वह भी अपनी सांप की पिटारियां खोलने और सांपों को कोंचने लगा। जय हो! जय भोलेनाथ। यह बन्दा ज्यादा प्रगल्भ था, पर मेरी अफसरी को चम्पी करने की बजाय भोलेनाथ को इनवोक (invoke) कर रहा था। उसमें भी कोई खराबी नजर नहीं आयी मुझे। उसे भी दस रुपये दिये पत्नीजी ने।

एक तीसरा, अपेक्षाकृत कमजोर मार्केटिंग तकनीक युक्त सपेरा भी बैठा था। उसको देने के लिये हमारे पास पैसे नहीं बचे तो भोलेनाथ वाले को आधा पैसा उस तीसरे को देने की हिदायत दी। … मुझे पूरा यकीन है कि उसमें से एक पाई वह तीसरे को नहीं देगा। पर हमारे संपेरा-अध्याय की यहीं इति हो गयी। घर के लिये लौट पड़े हम।

sapo ko chhota sa petarame rakhne ka matlab unki prakritik jindagi se khilwad hai ,3 se 6 fit ka sap ko chhita dibba me bharkar rakhna kitna anyay hai sochkar dil pighal jata hai.
LikeLike
बढ़िया…. बेचारे सपेरों की भी रोजी-रोटी है लेकिन साँपों की दुर्दशा देखकर बुरा लगता है.. भोलेनाथ बेसन खाकर छोटे से बक्से में घुटते रहें यह अच्छा नहीं है… सरकार अगर संपेरों को कोई दूसरा रोजगार देने की व्यवस्था करे तो मुझे लगता है वो जरुर यह पेशा छोड़ने को तैयार हो जायेंगे…
LikeLike
धन्य है यह सर्प कथा ..
जंगल का अफसर होता तो वाईल्ड लाईफ एक्ट १९७२ में धर दबोचता …..कोबरा शिड्यूल एक का प्राणी हैं -पकड़ना कैद में रखना सब प्रतिबंधित और सालों की जेल २५हजार जुरमाना ..
और आपके सौजन्य से ये संपेरे पारितोषित पाए ….अब क्या कहें मैंने भी एक को पांच रूपये दिए इसी बार ..
ये जंगलात विभाग कर क्या रहा है -ममफोर्डगंज में ही आफिस भी है वाइल्ड लाईफ वार्डेन का !
LikeLike
पता नहीं, संपेरे का फोटो लेना और प्रदर्शित करना भी किसी एक्ट में जुर्म न हो! 😦
LikeLike
जिसकी मार्केटिंग स्ट्रेटेजी कमजोर हो उसे फायदा कहां से होगा ? सीधे सादे प्रसंगों को रोचक बनाना कोई आपसे सीखे । भोलेनाथ की कृपा आप पर बनी रहे ।
LikeLike