
मेरी ट्रेन कानपुर से छूटी है। पूर्वांचल की बोली में कहे तो कानपुर से खुली है। खिड़की के बाहर झांकता हूं तो एक चौड़ी गली में भैसों का झुण्ड बसेरा किये नजर आता है।
कानपुर ही नहीं पूर्वी उत्तरप्रदेश के सभी शहरों या यूं कहें कि भारत के सभी (?) शहरों में गायें-भैंसें निवसते हैं। शहर लोगों के निवास के लिये होते हैं, नगरपालिकायें लोगों पर कृपा कर वहां भैंसों और गायों को भी बसाती हैं। ऑपरेशन फ्लड में वे अपना जितना भी बन सकता है, योगदान करती है। वर्गीज़ कुरियन नहीं रहे; उनकी आत्मा को पता नहीं इससे आनन्द होता होगा या कष्ट?!
शहरों को दूध सप्लाई का इससे रद्दी कोई मॉडल नहीं हो सकता। यह उन दूधियों से हजार दर्जा अश्लील है – जो बालटा ट्रेनों के बाहर लटका कर शहरों को सवेरे एक दो घण्टा यात्रा कर आते हैं और दोपहर-शाम को अपने कस्बे-गांव लौटते हैं। वे दूधिये तो गांव के किसानों गाय भैंस पालने वालों से अच्छा-बुरा हर तरह का दूघ खरीदते हैं। ट्रेनों में कम्यूटर्स और लम्बी दूरी के यात्रियों के लिये न्यूसेंस होते हैं। पर फिर भी वे शहर की सिविक एमेनिटीज़ पर गाय-गोरू पाल कर पहले से ही चरमराती व्यवस्था पर बोझ नहीं करते।

मैं अपने शहर इलाहाबाद को देखता हूं – लगभग हर सड़क-गली में भैंसें-गायें पली नजर आती हैं। उनको पालने वाले सड़क पर ही उन्हे रखते हैं। देखने में कम से कम भैंसें अच्छी नस्ल की लगती हैं। हरा चारा तो उन्हे नसीब नहीं होता, पर जब तक वे दूध देती हैं, उन्हे खाने को ठीक मिलता है। जब वे दूध देने वाली नहीं होती, तब वे छुट्टा छोड़ दी जाती हैं और जर्जर यातायात व्यवस्था के लिये और भी खतरनाक हो जाती हैं।
शहर में पशुपालन – एक लाख से ज्यादा की आबादी वाले शहर में व्यवसायिक रूप से ५ से अधिक पशुपालने के लिये वेटनरी विभाग/नगरपालिका से पंजीकरण आवश्यक है। उसके लिये व्यक्ति के पास पर्याप्त जमीन और सुविधायें (भोजन, पानी, जल-मल निकासी, पशु डाक्टर इत्यादि) होनी चाहियें। यह पंजीकरण ३ वर्ष के लिये होता है और इसकी जांच के लिये जन स्वास्थ्य विभाग तथा नगरपालिका के अधिकारी समय समय पर आने चाहियें। … ये नियम किसी पश्चिमी देश के नहीं, भारत के हैं! 😆
आधा इलाहाबाद इस समय खुदा हुआ है सीवेज लाइन बिछाने के चक्कर में। आसन्न कुम्भ मेले के कारण सड़क निर्माण के काम चल रहे हैं, उनसे भी यातायात बाधित है। रही सही कसर ये महिषियां पूरी कर देती हैं। लगता है डेयरी को-ऑपरेटिव इतने सक्षम नहीं हैं कि शहरी दूध की जरूरतों को पूरा कर सकें। इसके अलावा लोगों में एक भ्रम है कि सामने दुहाया दूध मिलावट वाला नहीं होता। इस लिये (मेरा अपना अनुमान है कि) समय के साथ शहर में भैंसे-गायों की संख्या भी बढ़ी है और सड़कों पर उनके लिये अतिक्रमण भी।
मैं जितना वर्गीज़ कुरियन को पढ़ता हूं, उतना स्वीकारता जाता हूं कि दूध का उत्पादन और आपूर्ति गांवों के को-ऑपरेटिव्स का काम है। शहरी भैंसों का उसमें योगदान न केवल अकुशल व्यवस्था है, वरन् स्वास्थ्य के लिये हानिकारक भी।
चंडीगढ से आये एक सहकर्मी की आँखें आश्चर्य से खुली रह गयी थीं जब उसे पता लगा कि देश के लगभग सभी अन्य नगरों में मवेशीपालन (खासकर भैंस) के लिये नियमों का खुला उल्लंघन होता है। कितने ही कानून ऐसे हैं जिनकी या तो जानकारी ही नहीं है या अपना काम चल रहा हो तो “सब चलता है” के सिद्धांत के तहत सब स्वीकार्य हो जाता है।
LikeLike
इलाहाबाद की याद ताज़ा हो गई।
LikeLike
इलाहाबाद की याद ताज़ा हो गई। शहरी गाये, भैंस शहर की शोभा ट्यूशन और कोचिंग की होर्डिंगों से ज़्यादा आँखों को सुकून पहुँचाती हैं, और भैंस का ताज़ा दूध अपने सामने निकलवाने का जो इलाहाबादी आनंद है वो दिल्ली में रह कर मिस करते हैं, जिस तरह से इलाहाबाद में पराग का दूध मजबूरी में पीना पड़ता है वैसे ही दिल्ली में मदर डेयरी का दूध बड़ी मुश्किल से गले से नीचे उतरता है।
LikeLike
बाकी तो सब ठीक है किन्तु लगता है चित्र तो आपने रतलाम में ही ले लिए थे – अपनी गत रतलाम यात्रा में।
LikeLike
जानवरों को नगरनिकाला दे रखा है विकास के उपासकों ने।
LikeLike
जानवरों से वोटिंग कराई जाये कि शहर में रहना चाहेंगे या गांव में; तो बहुमत (या सर्वसम्मति) गांव या जंगल के पक्ष में आये।
LikeLike
गाय-भैंस भी अपने ब्लॉग जगत में कहती होंगी- शहर में आबादी की बढ़त के चलते सड़क पर टहलना दूभर हो गया है ससुर!
LikeLike
हां, यह भी कहती होंगी कि रामभरोसे ने दूध तो सारा निकाल लिया और सड़क पर टहलने के लिये कह दिया। सबेरे से चाय तक नसीब न हुई! या फिर पर साल बछड़ा हुआ था, पर जालिम रामभरोसे ने उसे न चारा दिया न मुझे दूध पिलाने दिया! 😦
LikeLike
😦
LikeLike
अभी जिस शहर में मैं रह रहा हूँ, गुजरात के इस शहर के विषय में एक कहावत बड़ी प्रचलित है.. कहते हैं कि भावनगर की तीन विशेषताएं हैं – गाय, गांठिया और गांडा (गुजराती भाषा में पागलों के लिए प्रयुक्त शब्द).. गायें यहाँ भी सडकों पर घूमती दिखती हैं..लेकिन मेरे घर के सामने खुले मैदान में सुबह सारी गायें एकत्र होती हैं और दूर दूर से लोग हरी घास लेकर आते हैं और उन्हें खिलाते हैं..
गायें, विश्वास नहीं होगा, मगर आपके फाटक का दरवाजा खटखटाकर रोटी पाने की गुहार लगाती हैं और आपके हाथों से ही रोटियां स्वीकार करती हैं.. आपकी पोस्ट पर तस्वीरों का महत्व देखते हुए जी चाहता है कि उन गायों की इलाहाबाद, कानपुर और बनारस से अलग तस्वीर दिखाऊँ..
और हाँ.. ट्रेन ‘छूटने’ को ‘खुलने’ ही रहने दीजिए… अपनापन लगता है!!
LikeLike
वाह! आप तो बिहार से ’खुले’ और खम्बात की खाड़ी के छोर पर डेरा जमाये हैं।
भावनगर के – गायों के भी और अन्य भी – चित्र पोस्ट कीजियेगा!
LikeLike
पशु-पक्षी प्रेम के मामले में गुजरात की बात ही और है। घुघूती जी ने एक बार ज़िक्र किया था कि लोग पेड़ पर लगे फल पक्षियों के लिये छोड़ देते हैं।
LikeLike
वाकई यह समस्या तकरीबन हर शहर में है, दक्षिण का पता नहीं लेकिन उत्तर व मध्य भारत में तो यह बड़ी समस्या है। दिक्कत यह है कि हर जगह तथाकथित ‘गौसेवा आयोग’ भी मौजूद है लेकिन इसके ‘गौसेवकों’ को कार्यशाला, एसी दफ्तरों से ही फुरसत नहीं मिलती कि वे ‘गौ’ की सुधर ले सके। इधर हमारे यहां साल-दो साल से नगर निगम में कुछ साहसी कमिश्नर आए हैं जो डेयरियों को शहर से बाहर करने के अभियान में लगे हुए हैं और सफल होते नजर आ रहे हैं, राजनीतिक दबाव के बाद भी।
LikeLike
बधाई! आपको साहसी कमिश्नर मुबारक! इलाहाबाद में ये लिविंग मेमोरी में नहीं आये/पाये गये!
LikeLike
ये पशु माफिया का काम है जिसके आगे नगर पालिका की नहीं चलती या नहीं चलाना चाहते .
LikeLike
इनका अपना वोट बैंक है। राजनैतिक दखल है। साथ ही अकुशल नगरपालिका, पब्लिक हेल्थ और एनीमल हसबेण्ड्री विभाग और पुलीस हैं जो थोड़ी सी घूस पर आंख मूंदते हैं।
LikeLike
विदेशों में भारत की एक इमेज ये भी है.. कि यहाँ गाय-भैंसे-कुत्ते सड़क पर घूमते रहते हैं…
LikeLike
छुट्टे पशुओं का आतंक जितना बनारस में है उतना तो कहीं नहीं होगा। इस पर मैने बहुत लिखा है।
LikeLike