प्रियंकर कहते हैं, मैं कवि हृदय हूं; भले ही कितना अपने आप को छिपाने का प्रयास करूं। मैं सहमत होने का जोखिम नहीं लूंगा। ढेर सारे कवियों की कवितायें सुनने और उन्हे एप्रीशियेट करने का बर्डन उसमें निहित है। दूसरे यह निश्चित है कि वे समझ में नहीं आतीं।
प्लेन/सिंपल सेण्टिमेण्टालिटी समझ में आती है। पर कवियों का शब्दों से खेलना समझ नहीं आता। दूसरे; कविता के अवगुण्ठन में अपना अतिसाधारणपन छिपाना तो और भी खलता है।
कविता, फोटोग्राफी और यायावरी – अभिव्यक्ति के माध्यमों के तकनीकी विकास के कारण सतही बनते जा रहे हैं। लोग शब्दों, चित्रों और पर्यटन से ज्यादा से ज्यादा खेलने लगे हैं। उनमें गुणवत्ता की ऐसीतैसियत साफ़ झलकने लगी है।
कल गोरखपुर में पहला दिन था। जगह साफ़ सुथरी लगी। मौसम भी (अपेक्षाकृत) खुला था। सवेरे कुछ कोहरा था पर दिन में साफ़ आसमान के साथ धूप थी। पर थकान थी और नये स्थान पर अकेले आने में उदासी भी।
पत्नीजी, जैसी भी हों भला हो (ऑन रिकार्ड, वह मुझसे कहीं बेहतर इन्सान हैं और ज्यादा जिम्मेदार भी), एक उम्र के बाद उनके बिना काम चलता नहीं। वह उम्र हो गयी है मेरी… हर दस मिनट में फोन करने की नौबत आ रही है – वह फलानी चीज कहां पैक की है तुमने? मिल नहीं रही मुझे। कभी मन होता है कि उनका फोन मिला कर कहूं कि राममिलन को फोन पर पोहा बनाने की रेसिपी बता दें कि उसमें हल्दी, नमक के अलावा और क्या/कितना मिलाना है!
एक उम्र के बाद आदमी का तबादला नहीं ही होना चाहिये!
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कल शाम को समधी जी फोन कर हाल-चाल पूछे। उन्हे पहले नहीं मालुम था कि मेरा तबादला हो रहा है। बोले – भईया यह तबादला हुआ कैसे और किसने किया? यह बताने पर कि फाइल तो मन्त्री जी तक जाती है, बोले अरे, रुकवाने के लिये वे कुछ बोलते। बताया होता तो। सांसद समधी होने में यही पेंच है। लूप में रहना चाहते हैं! यद्यपि न उन्होने मेरे काम धाम में बेफालतू सलाह दी है और न मैने उनसे राजनीति डिस्कस की है। हम दोनो के क्षेत्र अलग हैं। प्रवृत्तियां अलग और एक्स्पर्टीज़ अलग। भगवान ने हम दोनो को कैसे और क्यों जोड़ा यह भगवान जी ही बता सकते हैं। बाकी, हम दोनो में समीकरण ठीकैठाक है और आत्मीय। भगवान उन्हें आगे मन्त्री बनायें तो उनके थिंक-टैंक में जुड़ने की सोच सकता हूं! 😆
सवेरे के साढ़े आठ बज गये। रात में कोहरा था। सूरज चटक उग रहे हैं पर पत्तियों से कोहरे की बूंदें अभी सूखी नहीं!