पढ़ने, देखने या सुनने के इतने विकल्प जीवन में पहले कभी नहीं थे। अब टेलीवीजन का महत्व खत्म हो गया है। जो कुछ है वह मोबाइल या टैब पर है। जब लिखना होता है तब टैब या लैपटॉप पर जाना ठीक लगता है। उसके लिये कभी कभी लगता है कि विण्डोज वाले लैपटॉप की बजाय एक मिड-रेंज का क्रोमबुक बेहतर रहेगा। उससे, बकौल आजकल की भाषा के, अनुभव सीम-लेस हो जायेगा। पर उसको लेने के बारे में अभी तय नहीं कर पाया हूं।
कोरोना संक्रमण काल ने पढ़ने, देखने (वीडियो देखने) या सुनने (पॉड्कास्ट सुनने) के अलावा विकल्प सीमित कर दिये हैं। पर यह सीमित होना भी एक तरह से असीमित सम्भावनायुक्त है।

जब से किण्डल आया है, कागज पर उपलब्ध पुस्तक पढ़ने का चाव जाता रहा है। मेरे किण्डल पर करीब एक हजार और कैलीबर पर दो हजार से ऊपर पुस्तकें हैं। अत: हार्ड-बाउण्ड या पेपरबैक पुस्तक का नम्बर नहीं लगता है। कभी कभी तो (अगर किण्डल पर सस्ती मिल रही हो, तो कागज पर उपलब्ध पुस्तक का भी किण्डल संस्करण खरीद लिया है।

दो-तीन सौ पेज से ज्यादा बड़ी पुस्तक को पढ़ना दुरूह कार्य है। उसके लिये बुक समरी वाले एप्प (Blinkist) का सहारा लिया जाता है। उसपर उपलब्ध पुस्तकों की भी एक बड़ी संख्या है। उसमें यह भी मजा है कि पुस्तक-संक्षेप आंख मूंद कर सुना भी जा सकता है; और बुक-समरी को किण्डल पर ठेला जा सकता है।
पुस्तक की सॉफ्ट कॉपी पाने के लिये इण्टरनेट पर कई साइट्स हैं। कभी कभी उनपर किण्डल के लिये उपयुक्त फॉर्मेट पर पुस्तक नहीं होती। तब भी उसको किण्डल पर पढ़ने योग्य बनाने के यंत्र मैंने जुगाड़ लिये हैं और येन केन प्रकरेण पुस्तक को किण्डल पर ले ही आता हूं।
अभी हाल ही में इरावती कर्वे की पुस्तक – युगांत मैंने इसी जुगाड़ से पढ़ी। इसकी पीडीएफ कॉपी नेट पर उपलब्ध है। उसे मैंने पहले वर्ड डॉक्यूमेण्ट में उतारा, और फिर उसे केलीबर के माध्यम से किण्डल पर ठेला।
यह तो हुई पुस्तकों की बात। इस सब जतन से जितनी पुस्तकें जमा कर ली हैं, उनको पढ़ने के लिये तीन चार जन्म चाहियें। मुझे हिंदू धर्म पर आस्था इस कारण से भी है (और यह प्रमुख कारण है) कि इस धर्म का एक मूल घटक पुनर्जन्म का सिद्धांत है। जो आसक्ति ले कर इस संसार से विदा होऊंगा, उसे पूरा करने की फ्रीडम इस धर्म में प्राप्त पुनर्जन्म का सिद्धांत देता है। इस्लाम में वह फेसिलिटी तो है ही नहीं!

वीडियो या फिल्म देखने में मेरी रुचि पहले से ही कम रही है। पर मेरी बिटिया (वाणी पाण्डेय) यदा कदा नेटफ्लिक्स, हॉटस्टार, अमेजन प्राइम पर कुछ न कुछ देखने की सलाह देती रहती है। मेरा नेटफ्लिक्स पर लॉग-इन भी उसी के प्राइम प्लान के अंतर्गत है। वैसे आजकल वह कहती है कि नेटफ्लिक्स वामपंथी है, उसे देखने की बजाय कहीं और – हॉट्स्टार या अमेजन प्राइम पर जाना चाहिये। इन ओटीटी सुविधाओं कि बदौलत मैंने पिछले छ महीने में जितनी फिल्में देखी हैं; उतनी जिंदगी भर में नहीं देखीं।
पर वीडियो देखने का मेरा मुख्य सोर्स यू-ट्यूब ही है। करीब एक दर्जन यू-ट्यूब सामग्री ठेलकों को सब्स्क्राइब कर रखा है, वे कुछ न कुछ नया थमाते रहते हैं। चंद्रप्रकाश द्विवेदी जी का चाणक्य उसी पर देखा है मैंने।

आजकल पॉडकास्ट सुनने का भी चाव बढ़ा है। स्पोटीफाई का एप्प भी मेरे मोबाइल पर है। दिन भर में तीन चार पॉडकास्ट सुन ही लिये जाते हैं। उसपर अपने युग के तीस चालीस फिल्मी गाने भी मोबाइल में भर लिये हैं। उन्हे पहले कभी इतना नहीं सुना, जितना अब सुना जा रहा है।
बहुत व्यापक उपलब्धता है घर के अंदर रहते हुये समय गुजारने की। और पहले कभी इतनी बड़ी च्वाइस, इतने कम खर्चे में, इतनी अधिक गुणवत्ता के साथ कभी नहीं रही।
पर क्या इनपर इस प्रकार समय व्यतीत करना सही है?

सूर्यमणि तिवारी जी मुझे बार बार सलाह देते हैं कि इन सब (सांंसारिक विषयों) से हट कर अपने को अंतर्मुखी करने का समय है। “यह मान कर चला जाये कि (उम्र के इस पड़ाव पर) हम लोग पैरोल पर हैं।” वे मुझे कबीर, तुलसी, भागवत पुराण, कठोप्निषद, भर्तहरि के नीति-वैराज्ञ शतक आदि से उधृत कर आगे की दिशा की बात करते हैं। वैसा कोई अन्य व्यक्ति मुझसे नहीं करता। किसी को शायद पड़ी नहीं है, या काबलियत नहीं है। तिवारी जी से इन विषयों पर बातचीत से लगता है कि वे काफी अध्ययनशील व्यक्ति हैं और अपने व्यवसायिक दायित्वों का निर्वहन करते हुये भी व्यक्तित्व के इन आध्यात्मिक (?) पक्षों की ओर सजग हैं। वे यह मानते हैं कि विभिन्न विषयों पर जाने-फुदकने की बजाय जीवन की सार्थकता पर ध्यान देने और अपने को दैहिक-भौतिक वासनाओं से समेटने की ओर लगाने का समय आ गया है।

ऑफकोर्स, ये सब माध्यम – पुस्तकें, किण्डल, केलीबर, ब्लिंकिस्ट, यूट्यूब, ओटीटी, पॉडकास्ट आदि पर्सोना को अंतर्मुखी भी बना कर इस लोक के पार सोचने को भी प्रेरित कर सकते हैं। हर व्यक्ति को उसकी वृत्तियों/वासनाओं के अनुसार देखने, सोचने, समझने और पाने की चाइस उपलब्ध करते हैं ये एप्प और यंत्र।
और एक मनीषी बनने या अपना परलोक साधने की सम्भावनायें भी इस समय, इन संसाधनों के कारण, अब पहले से कहीं ज्यादा हैं। शायद “सविता सरस्वती के कूल पर बसे” हमारे ऋग्वैदिक पुरखों से भी ज्यादा।
भौतिकता के साथ साथ ज्ञान और चेतना का भी विस्फोट हो रहा है इस युग में। दुनियां के बेस्ट माइण्ड्स, सबसे अच्छी सीख, सबसे अच्छी सोच का स्रोत भी हाथ कि उंगलियों पर उपलब्ध है।
उठ जाग मुसाफिर, भोर भई!
आपने कहा है –
“पुस्तक की सॉफ्ट कॉपी पाने के लिये इण्टरनेट पर कई साइट्स हैं। कभी कभी उनपर किण्डल के लिये उपयुक्त फॉर्मेट पर पुस्तक नहीं होती। तब भी उसको किण्डल पर पढ़ने योग्य बनाने के यंत्र मैंने जुगाड़ लिये हैं और येन केन प्रकरेण पुस्तक को किण्डल पर ले ही आता हूं।”
तो इन जुगाड़ पर एक ‘हाऊ टू डू’ किस्म का आलेख लिख दें. बहुतों की समस्याओं का भला होगा.
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कोशिश करूंगा!
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बेहतरीन। हम लोग लगभग Tsundoku हो गए है जापानी शब्द जिसका अर्थ किताबें ख़रीदना, जमा करना , लेकिन नहीं पढ़ना। क्रोमबुक के विषय में इतना कहूँगा की विंडोज़ बेहतर है क्रोमबुक पावरफ़ुल नहीं होती काफ़ी बेसिक होती है।
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सही युक्ति लगी अगले सात जन्मों के लिए आपने हजारों पुस्तकों का संचय कर लिया है। आपकी लेखनी से प्रेरणा मिलती है।
ज्ञान दत्त जी, एक अनुरोध करना चाहूंगी, मेरी पहाड़ी परिवेश,लोक व जीवन पर आधारित कहानियों का संकलन पाइन इन द टेल- टेल्स फ्राम द माउन्टेस अभी एमेजॉन पर किंडल में मुफ्त उपलब्ध है। क्या यह संभव है कि आप उसे डाउनलोड कर पढ़ें और अपने विचार तथा टिप्पणी से मुझे अनुग्रहित करें?
पुस्तक के लिंक संलग्न हैं-
https://pothi.com/pothi/node/199541
साभार धन्यवाद 🙏
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मैं आपके कहे अनुसार करने का यत्न करूंगा। धन्यवाद।
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