सीएसआर और गांव में लगी बेंचें

गांवों में घूमते हुये आजकल सीमेण्ट-कॉक्रीट की ढाली हुयी बेंचें दिख जाती हैं।

सोलर लाइट की बंटाई का फेज खतम हुआ। नब्बे परसेण्ट सोलर लाइटें दो तीन साल में बेकार हो गयी हैं। वे सांसद/विधायक/प्रधान के माध्यम से बंटी थीं। उनपर “फलाने सांसद की ओर से” जैसा कुछ लिखा भी था। कम्पनियों ने अपनी कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (CSR) फण्ड में प्रावधान कर जन प्रतिनिधियों के माध्यम से बटवाई थीं। उनकी बैटरीज को पांच सात साल चलना था, पर उसकी आधी भी नहीं रही उनकी जिंदगी। यह भारत की सामान्य कथा है। उसपर सिनिकल हो कर क्या लिखना।

कई चीजें हुयी या बांटी गई हैं गांवों में। चापाकल (हैण्डपम्प) लगे। वे सार्वजानिक होने थे, पर आम तौर पर जिसके दरवाजे पर लगे, उसकी प्राइवेट प्रॉपर्टी जैसे हो गए। आवास मिले। उसमें भी धांधली की खबरें लोग सुना जाते हैं। पर लोगों के चमकते घर और शौचालय दिखते हैं तो अच्छा लगता है। यह अलग बात है कि लोग अब भी सड़क या रेल लाइन के किनारे बैठते हैं निपटान के लिए।

सड़कें और मनरेगा के काम की गुणवत्ता की कमियां तो नजर आती हैं। अन्न वितरण, पूरी कसावट के बावजूद, बांटने वाले विभाग और कोटे दार की गड़बड़ का पूरा स्कोप रखता है। हर गतिविधि में छीन झपट है। पर फिर भी, कुछ न कुछ सार्थक होता है। वही संतोष का विषय है।

पर उक्त उन सब परिवर्तन के कार्यों की बजाय गांवों में ये बेन्चें जो आजकल लग गई हैं, बहुत उपयोगी लगती हैं।

अगियाबीर की यह पान की दुकान नुमा मड़ई में एक बेंच रखी गई है। दुकानदार ने बताया कि 6-7 ऐसी बेंचें गांव में वितरित हुई हैं। इस मड़ई में बहुत बार लोगों को बैठ कर काम की या राजनीति की चर्चा करते पाया है। बेंच लोगों को मिल बैठ बोलने बतियाने का अवसर सहज करती है। टीवी और मोबाइल के युग में जब आदमी एकाकी होने लगा है, सामाजिकता को सहज बनाने के लिए बेंच अच्छा विकल्प है।

पान की मड़ई वाला प्रसन्न था बेंच लग जाने से।

मैंने उस पान के दुकानदार से पूछा कि इस बेंच के लगने से बिक्री बढ़ी है? उसे सुनाई कम देता है। प्रश्न दोहराना पड़ा। हाँ और ना में झूलते हुए उसने बताया कि बेंच लगने पर लोग ज्यादा बैठते हैं और एक आधा पान या सुरती का पाउच ज्यादा बिक जाता होगा। उससे ज्यादा फर्क़ नहीं पड़ता पर लोग ज्यादा बैठते हैं, यह महत्वपूर्ण बात है।

छोटे बदलाव, उनके Nudge Effects बहुत महत्वपूर्ण हैं सामाजिक और आर्थिक बदलाव के लिए। आज छह बेंचें लगी हैं। इनकी संख्या बढ़ कर 30 – 40 हो जानी चाहिए। भले ही उसमें से तीन चार प्रधान जी अपने परिसर में लगवा लें। और बेंचों की लाइफ सोलर बिजली की अपेक्षा कहीं ज्यादा होगी।

सार्थक परिवर्तन ग्रामीण परिदृष्य में! इसी प्रकार के अन्य Nudge Effect वाले प्रयोग होने चाहियें।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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