पॉडकास्ट गढ़ते तीन तालिये

वे तीन हर शनिवार देर रात पॉडकास्ट करते हैं – तीन ताल। बहुत कुछ बंगाली अड्डा संस्कृति के सम्प्रेषण समूहों की बतकही या पूर्वांचल की सर्दियों की कऊड़ा तापते हुये होने वाली बैठकों की तरह। मैं उन तीनो महानुभावों के चित्र देखता हूं। उनके बारे में ट्विटर/फेसबुक/लिंक्डइन और उनमें बिखरे लिंकों पर जा कर कुछ जानने का यत्न करता हूं। इसलिये कि मुझे वह पोडकास्ट, तीन ताल अच्छा लग रहा था और उसके बारे में एक पोस्ट लिखना चाहता था। मैं उसके कण्टेण्ट या उससे मेरे मन में उठे विचारों के आधार पर तीन-चार सौ शब्द ठेल सकता था। उतना भर ही मेरी सामान्य पोस्ट होती है और उतने भर से ही मेरे ब्लॉगर धर्म का निर्वहन हो जाता। पर, तीन ताल के कण्टेण्ट की उत्कृष्टता के कारण, उस पॉडकास्ट के कारीगरों पर कुछ और टटोलना मुझे उचित लगा।

बांये से – पाणिनि आनंद, कमलेश कुमार सिंह और कुलदीप मिश्र

मैंने उन्हें “radio@aajtak.com” पर एक ई-मेल भी दिया –

आप लोग बहुत अनूठा पॉडकास्ट करते हैं। कोई मीनमेख की गुंजाइश नहीं! मैं सेवानिवृत्त व्यक्ति हूं, सो मेरे पास समय की कोई कमी या पबंदी नहीं। अभी साल भर से आंखें टेस्ट नहीं कराईं, इसलिये कह नहीं सकता कि मोतियाबिंद की शुरुआत हुई है या नहीं, पर उत्तरोत्तर किताब पढ़ने की बजाय किताब या पॉडकास्ट सुनना ज्यादा अच्छा लगने लगा है। इसलिये आपलोगों का दो घण्टे का ठेला पॉडकास्ट बहुत आनंद देता है। इस ठेलने की आवृति बढ़ाने – हफ्ते में दो बार (या रोज भी) करने पर आप लोग विचार करें। हुआ तो अच्छा लगेगा।

[…] आप लोगों से वैचारिक ट्यूनिंग जितनी हो या न हो (और मुझे यकीन है कि आप तीनों अपनी कोई विचारधारा बेचने में नहीं लगे हैं) , एक बार फिर कहूंगा कि पॉडकास्ट में आप कमाल करते हैं। आपका यह पॉडकास्ट प्रयोग देख कर हिंदी में और भी जानदार लोग आगे आयें, यह कामना रहेगी। अन्यथा, हिंदी गरीब टाइप ही है, इण्टरनेट पर।    

उन लोगों ने मेरे ई-मेल का विधिवत और विस्तृत उत्तर अपने अगले पॉडकास्ट में दिया।

कुलदीप मिश्र जी ने अपने पॉडकास्ट रिकार्डिंग का यह स्क्रीन शॉट उपलब्ध कराया। कोरोना काल में यह कार्यक्रम ऑनलाइन हो रहा है। किसी एक कमरे में साथ साथ चाय का सेवन कर अड्डे वाली बैठक के रूप में नहीं।

बेतरतीब बिखरे (मेरे इलाके की अवधी में कहें तो झोंटा बगराये) बाल और उनमें से दो आदमी खिचड़ी दाढ़ी वाले, तीसरा एक सुटका सा (पतला दुबला) नौजवान – कुल मिला कर उनका रंग-ढंग मुझे सेण्टर से वाम की ओर पाये जाने वाले तथाकथित मार्क्सवादियों जैसा लगा – या उनसे थोड़ा ही कम। मैं अपने को सेण्टर के दक्षिण की ओर चिन्हित करता हूं। आजकल भृकुटि के बीच चंदन का टीका नहीं लगाता, पर कभी लगाता था और अब भी कोई लगा दे, तो मुझे अच्छा ही लगता है। मेरे से कुछ ही और दक्षिण में उन लोगों का टोला है, जिन्हे ट्विटर पर ‘भगत’ की संज्ञा दी जाती है।

कुल मिला कर तीन ताल वाले लोगों से मेरा विचारधारा का तालमेल हो, वैसा नहीं कहूंगा मैं। अनुशासन के हिसाब से भी मैं एक नौकरशाह रह चुका हूं और वे पत्रकारिता के लिक्खाड़ लोग हैं। हम लोग अलग अलग गेज की पटरियाँ हैं जिनपर अलग गेज की विचारों की रेलगाड़ियां दौड़ती हैं। पर शायद विचारधारा या सोच के अनुशासन को पोषण देने के ध्येय से मैं वह पॉडकास्ट सुनता भी नहीं हूं। ‘तीन ताल’ का सुनना मुझे शुद्ध आनंद देता है। विचार-वादों की सीमाओं के परे आनंद!

उन लोगों के कहे में वह ही नहीं होता जो आप सोचते हैं। पर उससे कहीं बेहतर होता है, जो आप सोचते हैं। यही मजा है तीन ताल पॉडकास्ट का। मैं अनुशंसा करूंगा कि आप इस सीरीज के सभी पॉडकास्टों का श्रवण करें, करते रहें। इसका नया अंक आपको शनिवार देर रात तक उपलब्ध होता है।

उन लोगों के कहे में वह नहीं होता जो आप सोचते हैं। पर उससे बेहतर कुछ होता है, जो आप सोचते हैं। यही मजा है तीन ताल पॉडकास्ट का (चित्र – पाणिनिआनंद के फेसबुक पेज का हेडर)

उन लोगों के नाम हैं – कमलेश किशोर सिंह (उर्फ ताऊ), पाणिनि आनंद (उर्फ बाबा) और कुलदीप मिश्र (उर्फ सरदार)।

कमलेश कुमार सिंह

कमलेश सिंह जी की आवाज में ठसक है। हल्की घरघराहट है जो किसी ‘ताऊ’ में होती है। उसके अलावा उनमें और कुछ पश्चिमी उत्तरप्रदेश या हरियाणे का नहीं लगता। उनकी प्रांतीयता भी, बकौल उनके, ‘अंगिका’ बोली से परिभाषित है – बिहार/झारखण्ड की बोली जिसकी लिपि बंगला है और जो मेरे हिसाब से मैथिली के ज्यादा नजदीक होगी। अंग के नाम से मुझे कर्ण की याद हो आती है। उनके प्रोफाइल परिचय में है कि वे ‘एडिटोरियल होन्चो’ हैं। अर्थात अपनी टीम (आजतक/इण्डियाटुडे) के सम्पादकीय महंत। बाकी, वे तीन ताल के डेढ़ दो घण्टे की अड्डाबाजी में अपनी महंतई ठेलते या थोपते नजर नहीं आते। उनकी होन्चो-गिरी एक बिनोवेलेण्ट होन्चो या सॉफ्ट महंत की लगती है। नौकरशाही में ऐसी याराना महंतई नहीं दिखती (अमूमन); और शायद मेरा यह ऑब्जर्वेशन मीडिया क्षेत्र की वर्क कल्चर न जानने के कारण हो। पर यह सोचना है मेरा। उनके अनुभव, भाषा और वाकपटुता में गहराई मजे से है। चलते डिस्कशन में अपनी गरजदार आवाज में हथौड़े से जो पीटते हैं, उससे हो रही बातचीत एक नया-अलग ही शेप लेने लगती है। आप चमत्कृत-प्रभावित हुये बगैर नहीं रह सकते।

पाणिनि आनंद

पाणिनी आनंद ढेर विद्वान टाइप हैं। उनकी भाषा में लालित्य है। उनकी अवधी मुझे वैसी लगती है जैसी मैं बोलना सीखना चाहूंगा। उन्हें ‘बीस कोस पर बानी’ के जो परिवर्तन होते हैं, उसकी न केवल जानकारी है वरन वे उन प्रकार की अवधी में बोल भी लेते हैं। हम पचे आपन लरिकाई में जस बोलि लेत रहे, ऊ ओ जानत समझत बोलत रहथीं (हम जने अपने बचपन में जैसी अवधी बोलते थे, वे वैसी अवधी जानते बोलते समझते रहते हैं)! उनकी बातें सुन कर ज्ञान भी बढ़ता है, जानकारी भी और नोश्टाल्जिया भी खूब होता है। भाषा के अलावा साहित्य, संगीत, पाक कला, घुमक्कड़ी, पत्रकारिता, राजनीति आदि पर भी वे राइट हैण्डर होते हुये भी बायें हाथ से नौसिखिये अनाड़ी लोगों के लिये मंजी हुई बॉलिंग-बैटिंग कर सकने का दम खम रखते हैं। महीन आवाज में दमदार बात करते हैं पाणिनि। मैं इस तीन ताल की टीम में खास उनसे मिलना चाहूंगा – बशर्ते वे अपने पाकशास्त्र की नॉनवेजिटेरियन या बैंगन जैसी सब्जी की रेसिपी की बातें न ठेलने लगें! 😆

कुलदीप मिश्र

और कुलदीप मिश्र निहायत शरीफ व्यक्ति लगे मुझे। अपने से उम्र में सीनियर लोगों को तीन ताल के कलेवर में बांधे रहना और बात को पटरी पर बनाये रखना बड़ी साधना से करते निभाते हैं कुलदीप। इसके अलावा बातचीत में जरूरी काव्य,खबरों और इण्टलेक्चुअल इनपुट्स की छौंक लगाने का काम भी वे इस कुशलता से करते हैं कि तीन ताल में रंग और गमक आ जाती है। पॉडकास्ट का बैकग्राउण्ड तैयार करने में वे बहुत ही मेहनत करते होंगे। बहरहाल, वे देर सबेर होन्चोत्व प्राप्त करेंगे ही। उसके लिये उन्हे अपना वजन 8-10 सेर तो कम से कम बढ़ाना ही होगा; उसकी तैयारी उन्हें अभी से करनी चाहिये। 😀

कुल मिला कर ये तीनों महानुभाव एक दूसरे के कॉम्प्लीमेण्टरी हैं। इन तीनो को मिल कर ही तीन ताल का संगीत निकलता है।

इन तीनों के बारे में अपनी कहने में ही इस ब्लॉग पोस्ट की लम्बाई काफी हो गयी है। तीन ताल के कण्टेण्ट पर आगे बातें होती रहेंगी। फिलहाल तो इस पॉडकास्ट को आज तक रेडियो की साइट पर या किसी थर्ड पार्टी एप्प – स्पोटीफाई, गूगल पॉडकास्ट आदि पर आप तलाश कर सुनना प्रारम्भ करें। आपको एक अच्छा ब्लॉग पढ़ने से ज्यादा आनंद आयेगा!

आप में से कई मोबाइल पर घण्टों अंगूठा घिसने में पारंगत हो गये होंगे। या बहुत से लोग अपना खुद का ही चबड़ चबड़ बतियाने और दूसरे की न सुनने के रोग से ग्रस्त होंगे। किसी और को व्यासगद्दी पर बिठा भागवत सुनना आसान नहीं होता। ये दोनों रोग आपको होल्ड पर रखने होंगे करीब डेढ़ दो घण्टा। तभी तीन ताल सुनने का मजा मिलेगा। वैसे आप टुकड़े टुकड़े में भी सुन सकते हैं।

आप को श्रवण के अच्छे अनुभव की शुभकामनायें!


पोस्ट-स्क्रिप्ट :- कल बुधवार को तीन ताल वालों का ट्विटर स्पेसेज पर बेबाक बुधवार कार्यक्रम था – देसी ह्यूमर Vs विदेशी ह्यूमर। उसपर मुझे भी कहने का अवसर मिला। मैं ठीक से कह नहीं पाया, पर कहना यह चाहता था कि हमारे यहां ‘गालियों’ में जो ह्यूमर #गांवदेहात में बिखरा पड़ा है, उसकी तुलना में टीवी/फिल्म आदि का ह्यूमर कुछ भी नहीं। उसके लिये आपको साइकिल ले गंगा किनारे घूमना पड़ता है। आप यह ब्लॉग-पोस्ट देखें – बाभन (आधुनिक ऋषि) और मल्लाह का क्लासिक संवाद

विदेशी या शहरी ह्यूमर के बदले यह आसपास बिखरा ह्यूमर मुझे ज्यादा भाता है। काशीनाथ सिन्ह के ‘कासी का अस्सी’ में भी वैसा ही कुछ है! 😆


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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

11 thoughts on “पॉडकास्ट गढ़ते तीन तालिये

  1. आपकी जरूरत से ज्यादा तारीफ से लगता है कि एकाध एपिसोड सुनना ही होगा. फिर शायद आगे का सोचा जाएगा. मगर, सुनने का मेरा अटेंशन स्पान ५ मिनट से अधिक का नहीं है. जबकि पढ़ने में तो ऐसा है कि बाजू में आग लग जाए तब भी पता नहीं चलता.

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    1. पढ़ने और सुनने में मेरा भी हाल आपके जैसा था, पर अब तेजी से बदल रहा है. अब किताबें भी ऑडीबल पर सुनने का दौर प्रारंभ हो गया है. वेब पेज पढ़ने की बजाय सुन लेता हूं…

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      1. ओह, तो मैं सुनना चालू कर दूं तो सुनने की आदत पड़ सकती है. इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि पत्नी जी का उलाहना नहीं सुनना पड़ेगा कि मैं उनकी बात भी नहीं सुनता !

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