क्या लिखोगे पाँड़े, आज?

का लिखब्यअ पाँड़े, आज? यह सवाल रोज सामने होता है। यह रोज लिखा जाता है रोजनामचा में कि ब्लॉग पर परोसने के लिये पांच पोस्टें शिड्यूल की हुई होनी चाहियें। पर कभी होता नहीं। रोज कुँआ खोदते हो पानी पीने के लिये। यह मध्यवर्ग की हैबिट नहीं, दरिद्र क्लास की आदत है। वह जो आज के आगे कोई सोच ही नहीं रखता। बस आज का भोजन, या उससे भी आगे, इस जुआर (पारी) की रोटी लह जाये; उतने तक की फिक्र है उसकी। तुम ब्लॉग-दरिद्र हो जीडी! :-)

आज सवेरे लेट निकला साइकिल ले कर। साइकिल यानी साथी। पुरानी वाली साइकिल “बटोही” थी। यह नया वाला “साथी” है – कोट्रेवलर। इसका हैण्डल किस ओर मुड़ेगा, यही तय करता है। कई बार गंगा किनारे जाने के लिये निकलता हूं और पंहुच जाता हूं लीलापुर के ताल की ओर! मनमौजियत है। घण्टे डेढ़ घण्टे की मनमौजियत। दूसरी पारी वाला आदमी ही यह अनुभव कर सकता है, नित्यप्रति।

उस अजीबोगरीब से दिखते (शायद शीशम के) पेड़ के पास रुकता हूं। लतायें उसपर इस तरह चढ़ गयी हैं कि अजीब सी आकृति बन गयी है। लगता है जैसे विशालकाय दैत्य को रस्सियों में जकड़ दिया गया हो। या उस पर हजारों सर्प लिपट गये हों!

उसके पास तक जाने के लिये सवेरे निपटान कर गये लोगों के ठोस-द्रव से बचते हुये रास्ता बनाना होता है। साथी को सड़क किनारे खड़ा कर देता हूं।

उस अजीबोगरीब से दिखते (शायद शीशम के) पेड़ के पास रुकता हूं।

वहां पर देर तक रुकना चाहता हूं, पर विष्ठा की दुर्गंध वापस साथी की ओर धकेलती है। दूर से निहारने के लिये एक बायनाक्यूलर होना चाहिये, जिससे दिखे भी और दुर्गंध से भी बचा जा सके। उसका खर्च भी पत्नीजी से सेंक्शन करवाना होगा!

दूध लिया। अचानक याद आया कि पत्नीजी ने कहा है कि उनका शहद खत्म हो रहा है। उसे लेने के लिये पास में चौड़े मुंह वाला जार नहीं है और जेब में पैसा भी नहीं। विकास चंद्र पाण्डेय को फोन करता हूं तो वे बताते हैं कि उनके पास सवा किलो की टोमेटो केचप की बोतल में मल्टीफ्लोरा शहद है। साथी उनके घर की ओर मुड़ जाता है।

उनके गांव उमरहाँ में घर पर उनकी पत्नीजी मिलीं। घूंघट निकाले। पर उन्होने मुझे बैठाया, पंखा ऑन किया। बेसन के लड्डू और जल ले कर आयीं। शहद की बोतल दे कर अपने बेटे प्रतीक पाण्डेय से फोन पर बात करवाई और उसके फोन नम्बर पर मैंने पैसा पेमेण्ट किया। जेब में एक भी पैसा न होने पर कैशलेस काम चल गया। उनके घर से चला तो बिना कैश जेब में हुये, गांवदेहात में शहद खरीद कर लौटने का संतोष मन में था। कैशलेस क्रांति अब साल-दो साल में व्यापक हो गयी है। जितना तेज संक्रमण कोरोना का नहीं हुआ, उससे तेज कैशलेस का हुआ है। गूगल पे, फोन पे, भीम एप्प और पेटीयम जैसे तरीके अब सब्जी के ठेले वाला भी ले कर चल रहा है। शहद वाले विकासचंद्र जी अगर और अच्छी पैकेजिंग और कुरियर वाला टाइ-अप कर ऑनलाइन व्यवसाय प्रारम्भ करें तो खूब प्रगति हो।

विकास पाण्डेय जी के घर से चला तो बिना कैश जेब में हुये, गांवदेहात में शहद खरीद कर लौटने का संतोष मन में था।

लौटानी में एक जगह भरसायँ जलाई जा रही थी। दो महिलायें और एक नौजवान वहां थे। बताये कि आज कोई त्यौहार है – जगरन। उसके बारे में तो अलग से लिखना-कहना बनता है। पर वहां का जो चित्र लिया वह नीचे है।

कच्चे रास्ते किनारे भरसाँय

और आगे तीन बालक दिखे सड़क किनारे। ताल में मछली मारे थे। छोटी छोटी मछलियाँ। ताल का पानी एक छोटे भाग में सुखा कर पकड़ी थीं वे मछलियाँ। बताया कि आधा घण्टा का उपक्रम था वह। अब वे आपस में पकड़ी गयी मछलियों का बंटवारा कर रहे थे।

वे बच्चे खूब खुश नजर आते थे। मैंने पानी को मेड़ बना कर रोकने और उसके पानी को उलीच कर उसमें से बची मछलियाँ पकड़ने का काम करते बच्चों (और बड़ों को भी) यहां गांवदेहात में बहुत देखा है। ताल में, नाले में या गंगा नदी में – कहीं भी। उन बच्चों के हाथ पैर, यहाँ तक की मुंह भी कीचड़ से सने थे। पर उसकी फिक्र उन्हें कहां! वे तो अपने ज्वाइण्ट वेंचर में अपनी प्रोडक्टिविटी का आनंद ले रहे थे। आधा घण्टा की मेहनत का आनंद। आज तीनों के घर में हाई प्रोटीन डाइट का इंतजाम हो गया। माई बाबू पढ़ने के लिये नहींं कहेंगे; मछली के लिये जरूर आसीसेंगे! :lol:

तीन बच्चे आपस में पकड़ी गयी मछलियों का बंटवारा कर रहे थे।

घर से निकला था तो इनमें से कोई भी दृष्य देखना तय नहीं था। घूमने का कोई भी खाका मन में नहीं था। यह भी सम्भव था कि धूप और उमस लगती तो दस मिनट में घर वापस लौट आता। अभी वापस लौटा तो डेढ़ घण्टा हो गया था। इस दौरान हनुमान जी के मंदिर में रुक कर सीतारामदास की बांसुरी सुनने का भी मन था। वह हुआ होता तो आधा घण्टा और लगता।

कुल मिला कर सवेरे लिखने को कुछ नहीं था, पर लिखना हो ही गया। ब्लॉग-पोस्ट तैयार! :lol:


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

8 thoughts on “क्या लिखोगे पाँड़े, आज?

  1. mera khyal hai ki ap bijalivali saikil abhi na kharide varana pachchtayenge/ isaka kaaran hai ki isaki maintenance aap nahi kar paoge/ isase achcha hai ap pep plus scooty le le / mere vichar se is umra me apake liye cycle sabase achchi hai kyonki agar aap scooter chalana nahi janate to yah scooty bhi sirdard sabit hogi upar se 100 rupaye rojana ka petrol bhi hamesha muh baye khada rahega/ mai abhi bhi scooty chalata hu aur lamba safar bhi tay karata hu / kai bar vichar kiya ki prayag raj, banaras aur apake yaha bhadohi scooty se hi aau lekin samay aur duri kaise match kare yah samikaran nahi mila pa raha hu/ baharhal likhate rahiye bhale hi MALLAHI likhiye lekin likhiye jarur apaki lekhan shaili ahan samai man ko apeal karati hai

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    1. धन्यवाद बाजपेयी जी. अच्छा लगेगा आप यहां आयें और अपनी स्कूटी से आयें. मुझे स्कूटर चलाए अर्सा हो गया और गांव की सड़कों के लिए शायद वाहन का चक्का बड़ा चाहिए. इसलिए घर में स्कूटी होने के बावजूद चलाया नहीं.
      आप आनंद से रहें, यह शुभकामनाएं! जय हो!

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  2. अच्छा है यूं ही चलते चलाते ब्लॉग सामाग्री मिल जाती है, ग्रामीण जीवन और परिवेश की जानकारी मिल जाती है।

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  3. यही अपने आप में भरी पूरी ब्लॉगपोस्ट है। कितना कुछ कहा गया है, कितना कुछ समझा गया है। बटोही ब्लॉगजगत के इतिहास में अपना स्थान बना चुकी है।

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    1. कभी कभी मन होता है कि बिजली वाली साइकिल में अपग्रेड हो जाया जाए. पर तब अपने पैरों की बजाय शायद टेक्नोलॉजी पर निर्भरता बढ़ जाएगी.

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